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काकड़ी गांव से सीखें... कैसा होना चाहिए पुनर्वास

 

-        मध्यप्रदेश के नर्मदापुरम जिले में पुनर्वासित गांव काकड़ी की कहानी, जो पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ कैसे खुद अपनी नई इबारत लिख रहा है।

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‘विस्थापन’ शब्द सुनते ही एक उजाड़ तस्वीर जेहन में आती है। तमाम विस्थापन और पुनर्वास परियोजनाओं ने अनुभव ही ऐसे दिए हैं। पर मध्यप्रदेश के नर्मदापुरम जिले के एक आदिवासी गांव ने विस्थापन शब्द के इस नैरेटिव को बदलकर रख दिया है। तीस घरों वाले काकड़ी गांव ने सामूहिक जागरुकता, पर्यावरण के प्रति आस्था और अपनी दुनिया को साफ़ स्वच्छ बनाने का वह पाठ लिखा है, जो आज दूसरे पुनर्वासित गांवों के लिए एक रोल मॉडल के रूप में देखा जा रहा है।

मध्यप्रदेश में सतपुड़ा टाइगर रिजर्व के लिए विस्थापित होने वाले तमाम गांवों में से ‘काकड़ी’ भी एक था। इटारसी से 100 किलोमीटर अंदर बसे इस गांव को नर्मदापुरम जिले के बाबई विकासखंड में 2014-15 में लाकर बसाया गया। 30 परिवारों को पांच एकड़ जमीन और ढाई लाख रुपए प्रति व्यक्ति नकद राशि दी गई।



यहाँ आने से पहले काकड़ी गांव के लोग आशंकित थे, जाने कहां जाएंगे, कैसा माहौल होगा, क्या उन्हें वैसा ही वातावरण मिल पाएगा...बहुत सारे सवाल थे। आसपास बसे चार गांव नयी जगह जा चुके थे, पांचवा नंबर काकड़ी का था। अपना गांव अपना जंगल छोड़कर लोग नयी जगह आ बसे। नाम दिया ‘नया काकड़ी।‘

काकड़ी निवासी अर्जुन सिंह ने डाउन टू अर्थ को बताया कि जब यहां आए तो हमने मिलकर ​तय किया कि हमारा गांव कैसा हो, इसका निर्णय खुद करेंगे और उसे साकार भी खुद ही करेंगे। तीसों परिवारों ने मिलकर तय किया कि हर घर के आगे पचास फिट जगह छोड़ी जाएगी, और दोनों ओर किनारे पर दो पंक्तियों में पेड़ लगाए जाएंगे। सारे घर एक लाइन में बनाए जायेंगे। सौन्दर्यीकरण करेंगे।  

खेत बनाने के लिए आवंटित जमीन पर लगे पेड़ों को काटना भी जरूरी था, पर वन विभाग से मिलकर यह तय किया कि महुआ के पेड़ नहीं काटे जाएं, क्योंकि महुआ उन्हें आजीविका भी देता है। ऐसे लगभग ढाई सौ महुआ के पेड़ों को बचा लिया गया।

पूरे गांव में नए पेड़ लगाए गए। हर परिवार ने योगदान दिया। नये बसे काकड़ी ने तकरीबन पन्द्रह सौ नए पेड़ तैयार कर लिए हैं। हर घर के पीछे हर परिवार ने अपना किचन गार्डन तैयार किया है। रासायनिक कीटनाशक और उर्वरकों का प्रयोग कम से कम किया जाता है। पानी की कमी न हो इसलिए तीसों घरों में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाया गया है, छत का पानी सीधे जमीन में उतरता है, यानी यह शत प्रतिशत वाटर हार्वेस्टिंग वाला गांव भी है।

अर्जुनसिंह ने बताया कि हमारे गांव में चौपाल पर बैठकर सारे निर्णय लिए जाते हैं। चौपाल पर एक घंटी लगी है, जब यह घंटी बजाते हैं तो सभी लोग जमा हो जाते हैं। 200 की आबादी वाले इस गांव में सारे निर्णय सर्वानुमति से लिए जाते हैं। इन पेड़ों की व्यवस्था भी ऐसी ही सहयोग से हुई। किसी ने अपना आटो का योगदान दिया तो किसी ने पेड़ों ने। इस सामूहिकता की भावना से इस गांव में यह संभव हो पाया। इसी का नतीजा है कि आज यह पूरा गांव एकदम हरा—भरा साफ—स्वच्छ है, जैसे ही आप यहां प्रवेश करेंगे आपको लगेगा किसी दूसरी दुनिया में पहुँच गए हैं।

स्थानीय निवासी शिवलाल ने बताया कि गांव के बच्चों की शादी में भी दो पेड़ देने की परम्परा बनाई गई, ताकि दूसरे लोगों को पर्यावरण संरक्षण का संदेश मिले। जब गांव में कोई नयी बहू आती है तो भी उससे दो पेड़ लगवाने का रिवाज भी बनाया गया है। बारात में पटाखों और डीजे को प्रतिबंधित किया गया है। शिवलाल ने बताया कि हमने आसपास के गांवों में भी पेड़ लगाए हैं। हम मानते हैं कि प्रकृति सेवा ही हमारा जीवन है।

अर्जुन सिंह भी कहते हैं पेड़ हमारा जीवन साथी है, पेड़ नहीं होते तो हम भी नहीं होते। अब ये पेड़ लोगों की आमदनी का जरिया भी बन गए हैं, एक तरफ पर्यावरण की रक्षा भी और दूसरी तरफ आय का जरिया भी।

काकड़ी गांव में हर महीने की दो तारीख को स्वच्छता रैली निकालते हैं। स्वच्छता के लिए हर घर के आगे डस्टबिन है। यदि किसी ने नियमों का उल्लंघन किया तो जुर्माना भी है हालांकि ऐसी नौबत कभी आई नहीं।




अलबत्ता एक बार बाहर से आए एक सरकारी अधिकारी ने गुटका खाकर खुले में फेंक दिया। एक व्यक्ति ने उसे उठाया और स्कूल में लगे डस्टबिन में बिना कुछ कहे डाल दिया। बाद में वह अधिकारी खुद शर्मिंदा हुए और अपने व्यवहार पर माफी मांगी।

पेड़ों पर लगे फलों को वहीं पर खाने की छूट है पर यदि कोई झोले में भरकर ले जाने लगे तो सम्मान से मना कर दिया जाता है, यानी फुल गांधीगिरी।

काकड़ी गांव अपनी आदिवासी परम्परा व रीति रिवाज के संरक्षण के लिए भी जागरुक है। पुनर्वास में क्या खोया क्या पाया के सवाल पर अर्जुन सिंह कहते हैं कि कुछ चीजें यहां हैं वह वहां नहीं थीं, कुछ वहां थीं जो यहां नहीं हैं। यहां सड़क बिजली मिल गई, पर वह पर्यावरण छूट गया। हम कोशिश कर रहे हैं वैसा ही कुछ यहां पर भी हो पाए।

 

-        राकेश कुमार मालवीय


 

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