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हम पूजा भी करते हैं और मारते भी हैं


हमारा किस्म—किस्म के विरोधाभासों में जीता है। एक यह कि हमारे समाज में नागों की बड़ी धूमधाम से पूजा भी होती है और दूसरी ओर सूरत ढलने के बाद उसका नाम तक लेने की मनाही है, यदि वह किसी स्थिति में सामने आ जाए तो उसे जिंदा भी नहीं छोड़ते। आज नागपंचमी के मौके पर भी हम नाग को देवता मानकर उसकी पूजा करेंगे, लेकिन यह कभी नहीं सोचते कि प्रकृति में उनकी क्या भूमिका है, सभी सांप जहरीले नहीं होते हैं और दिन ब दिन उनके प्राकृतिक आवासों पर भी संकट हो रहे हैं तो ऐसे में हम क्या ऐसा कुछ कर सकते हैं जिससे सर्पदंश का शिकार मनुष्यों के प्राणों की रक्षा भी हो सके और दूसरी ओर सर्प प्रजाति को देखते ही मार देने की प्रवृत्ति में भी कमी आ सके। ऐसा करना निश्चित तौर पर एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा, क्योंकि सांप से खौफ एक वैश्विक मनोवैज्ञानिक सिग्मण्ड फ्रायड ने इसे वैश्विक मानवीय खौफ बताया है जो केवल मनुष्यों ही नहीं बंदरों चिंपैंजी जैसे जानवरों में भी होता है, लेकिन यदि इसे नहीं स्वीकार किया जाता तो फिर देश में सांपों की पूजा करने का क्या औचित्य रह जाता है? 

सांप की दुनिया में तकरीबन 2600 प्रजातियां पाई जाती हैं, इनमें से केवल 270 प्रजातियां ऐसी बताई जाती हैं, जिनका जहर मनुष्यों के लिए जानलेवा होता है, इनमें से भी केवल 25 प्रजातियों सर्पदंश से मौतों का कारण बताई जाती हैं। इसके बावजूद देखते ही मार देने की धारणा सभी जगह मौजूद है। इसके बावजूद कि सांप कीट-मकोड़ों और चूहों की आबादी को नियंत्रित करते हैं। किसानों के वे सबसे अच्छे दोस्त हैं, क्योंकि चूहे 20 फीसदी तक फसल को नुकसान पहुंचा देते हैं। सांप अपने आप में एक शर्मीला प्राणी होता है जो मनुष्यों से दूर रहना ही पसंद करता है और देखते ही भागता है, लेकिन इसके बावजूद यह खौफ और धारणा जाती नहीं है। 

इसका सबसे बड़ा कारण उनके काट लेने का भय ही है। और आंकड़े भी कम नहीं है। खासकर भारत जैसे देश में जहां दुनिया में सबसे ज्यादा सर्पदंश की घटनाएं होती हैं।  हर साल तकरीबन सर्पदंश से होती है। इंडियन जर्नल आफ मेडिकल रिसर्च में छपे एक रिसर्च पेपर के अनुसार दुनिया में हर साल 1.8 से 2.7 मिलियन लोग सर्पदंश से प्रभावित होते हैं, इनमें से हर साल तकरीबन 138000 लोगों की मृत्यु हो जाती है। भारत एक कृषि प्रधान देश है जहां की बड़ी जनसंख्या कृषि कार्यों में लगी है, और बड़ी जनसंख्या ऐसी भी है जो झुग्गी बस्तियों या ऐसी ही असुरक्षित जगहों पर भी रहती है, इसलिए हमारे यहां दुनिया में सर्पदंश के सर्वाधिक मामले सामने आते हैं। रिसर्च जर्नल के मुताबिक भारत में हर साल 58000 लोगों की मृत्यु सर्पदंश के कारण होती है। यही वह भय है जो सांपों के लिए लगातार संकट बना हुआ है। 

भारत की सत्तर प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है। यहां पर एक ओर तमाम किस्म के अंधविश्वास और कुरीतियां प्रचलित हैं तो वहीं दूसरी ओर हेल्थ केयर सिस्टम भी इतना अच्छा नहीं है कि ऐसे मामलों को डील कर सके। सर्पदंश के मामलों में एंटी स्नेक वीनम का की उपलब्धता या उसका डोज देने का प्रशिक्षण ही नहीं है। इसलिए पीड़ित व्यक्ति को समय पर उपचार ही नहीं मिल पाता और वह अस्पताल तक पहुंचते—पहुंचते दम तोड़ देते हैं। दूसरा बड़ा मसला यह भी है कि सांपों की आबादी जो कहीं दूर खेतों में विचरती है, अब वह बस्तियों की तरफ भागती है, क्योंकि खेतों में इतनी अधिक मात्रा में खतरनाक कीटनाशकों का प्रयोग हो रहा है जिसकी गंध मात्र से वह परेशान हो उठते हैं। जिन दिनों में इन कीटनाशकों का छिड़काव होता है उन दिनों में सांप निकलने की घटनाओं में काफी बढ़ोत्तरी पाई जाती है। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि सर्पदंश के विषय को प्राथमिकता में लिया जाए। 

भारत में फ्रंटलाइन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की सर्पदंश से होने वाली मौतों को नियंत्रित करने में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। इसके लिए एक रोडमैप तैयार होना चाहिए।  सांपों का संरक्षण की बात भी तभी हो पाएगी जबकि लोगों को यह भरोसा और विश्वास होगा कि सर्पदंश हो भी जाए तो उनकी जान बचाई जा सकती है। इस भरोसा के बिना मनुष्य के अंदर का सांपों का खौफ कभी नहीं जाएगा और मनुष्य हमेशा ही सांपों का दुश्मन बना रहेगा। 

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राकेश कुमार मालवीय 


 


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