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सुनील भाई: उनका एक ही चेहरा था

वह न तो फेसबुक पर कभी नजर आए, न ट्विटर पर न कभी दूसरी सोशल साइट पर, लेकिन उनका अपना समाज इतना मजबूत और दूर तक फैला था, इसकी बानगी हम केसला के भीतर जंगल के रास्ते घुसके सतपुड़ा की तराई में फैले गांवों में जाकर समझ सकते हैं जो दूसरी तरफ मालापाठ, नंदरवाड़ा, हिरनखेड़ा से होते हुए सिवनी मालवा तक फैला था।। सुनील भाई इन सब गांवों के थे, इन गांव खेड़ों के मुद्दों की, लोगों की बात करते करते जब वह भूमंडलीकरण, उदारीकरण, आर्थिक नीतियों, बाजार की बात करते करते अमेरिका और दुनिया के दूसरे तमाम देशों तक पहुंचते तब आपको पता चलता था कि सुनील भाई के काम का विस्तार कहां तक था ! मुझे सबसे ज्यादा आश्चर्य इसी बात पर होता था कि केसला के एक छोटे से गांव में बैठकर कैसे वह देश—दुनिया की जानकारियां न केवल वैचारिक रूप में बल्कि त्वरित सूचनाओं के रूप में भी जुटा लेते थे। जनसत्ता सरीखे अखबार में संपादकीय पन्ने पर उन्हें पढ़ते जब उनका चेहरा और व्यक्तित्व सामने आता तो आप एक बारगी यह नहीं समझ पाते कि यह वही सुनील भाई हैं या कोई और.... साधारण वेश में असाधारण।

यह भाई राजनारायण की स्मृति में निकली एक किताब थी, जिसने सुनील भाई से भी परिचय कराया था। एकलव्य होशंगाबाद की लाइब्रेरी में इस स्मारिका को पढ़ते हुए केसला के विस्थापितों के पूरे संघर्ष को पढ़ने का मौका मिला था। उस समय हम बच्चे ही थे। एकलव्य के चकमक क्लब से जुड़ने और उन्हें संचालित करने का एक बड़ा फायदा यह भी लगता था कि खूब सारी किताबें और ऐसे व्यक्तित्व से मिलने का मौका। केसला के संघर्ष और उस इलाके के बहुत से आदिवासी लोग हमारे गांव के आसपास भी आकर बसे थे, तो यह तवा के विस्थापितों का मुद्दा हमें अपने आसपास का ही लगता था।

कई रैलियों, धरनों, गोष्ठियों इनका हिस्सा हुआ करतीं। तवा बांध के विस्थापितों ने मछली पालन का सुंदर और उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया वह सुनील भाई के विजन और साथियों की मेहनत का ही अनुपम उदाहरण था। उनके इस संघर्ष पर तब मैंने चकमक क्लबों की सामूहिक बाल पत्रिका "उड़ान"  में एक स्टोरी भी लिखी थी "मछली ने संवारा जीवन।"

दिग्विजय सरकार ने इसी तवा बांध में आदिवासियों को मछली मारने का अधिकार खत्म कर दिया था। इसके विरोध में इटारसी के गांधी मैदान में एक बड़ी रैली हुई। उस रैली में मैं भी शामिल हुआ था गुस्से के साथ। यह एक जायज मांग थी। उस रैली में सुनील भाई को पहली बार मंच से बोलते हुए सुना। केवल सुनील भाई ही नहीं फागराम, गुलिया बाई सरीखे लड़ाके। यह उस संघर्ष और जमीनी लड़ाई का प्रतीक बनकर उभरे थे,जिसकी कोशिश राजनारायण और उसके बाद सुनील भाई सरीखे साथी एक आराम की जिंदगी छोड़कर कर रहे थे।

बाद में उन्हें कई गोष्ठियों में सुनते रहा। कई आंदोलनों में उन्हें देखा।   उनके आलेख यहां—वहां पढ़ने को
मिलते रहते। पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए जब माखनलाल यूनिवर्सिटी भोपाल जाना हुआ तब भी कभी भोपाल गैस कांड की बरसी पर तो कभी समाजवादी जनपरिषद की रैली में भी। पता था हारेंगे तब भी चुनाव लड़ा इसलिए कि एक राजनैतिक हस्तक्षेप हो।

यह दिवाली दूसरी शाम थी भाईदूज की। मैं, अंजली और प्रत्यूष बाइक से सिवनी मालवा से अपने घर की ओर हिरनखेड़ा लौट रहे थे। बानापुरा बस स्टैंड पर सुनील भाई खड़े हुए दिखाई दिए। अपने चिरपरिचित अंदाज में। मैंने ब्रेक लगाए, गाड़ी घुमाई। रायपुर में रहते हुए अपने लोगों से दूरी खलती है, ऐसे में जब कोई अनायास मिल जाता है तो खुशी दोगुनी हो जाती है। सुनील भाई थे ही ऐसे। उनसे मिलते हुए कभी किसी को झिझक नहीं होती थी। छुटपन में भी उनसे मिलते हुए ऐसा नहीं लगा।  पता नहीं खुद को कैसे छुपा लेते थे अंदर और आपसे आपकी तरह की ही बातें करते थे। तब भी संघर्ष में लगे हुए थे। सोयाबीन की फसल बेइंतहा खराब हुई थी, वही देखकर आ रहे थे, मुआवजे की लड़ाई।

झोले से सामयिक वार्ता निकाली। पूछा मिल रही है या नहीं। मैंने कहा बाबा मायाराम भेजते हैं पीडीएफ। मैंने बीस रुपए उनके हवाले किए। इसी अंक में उनका चर्चित सोने के पॉलिटिक्स वाला आलेख था। एक—एक दो दो रुपए कीमत वाली दस बीस पन्नों की पुस्तिकाओं से उन्होंने जाने कितना क्या समझाया, याद नहीं।  

उन्हें हिरनखेड़ा चलने को कहा, पर उनका रास्ता तय था। आने का वायदा जरूर किया था। उनके गांव में अपने कई संपर्क थे।  कैसे कहता आने को, अगले दिन निकलना था। हम अपने गांव छोड़कर जा रहे हैं और वह गांव में धंसे जा रहे थे। हमारे कई- कई चेहरे हैं पर सुनील भाई का केवल एक ही चेहरा था।

क्या पता था यह अनायास सी मुलाकात आखिरी मुलाकात बन कर रह जाएगी।

सुनील भाई के संघर्ष को हजारों हजार सलाम!

- राकेश मालवीय

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3 टिप्पणियाँ

virendra tiwari ने कहा…
सुनील भाई को श्रद्धांजलि.......
बढ़िया आलेख, राकेश भाई| शुक्रिया|