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विश्व पुस्तक मेला : संविधान और संवैधानिक मूल्यों पर किताबें

साल 1999 में पटना के पुस्तक मेले में एकलव्य का स्वयंसेवक बनकर गया था। पहली बार रेल की लंबी यात्रा की थी। पहली बार किसी इतने बड़े पुस्तक मेले में जाना हुआ था। लंबी यात्रा के बाद बुखार हो आने के कारण दो तीन दिन खराब भी हुए।  बावजूद उसके वह एक बहुत अनूठा और दिलचस्प अनुभव था।  पहली बार किताबों की इतनी बड़ी दुनिया देखी थी। 

पिछले दो दिनों विश्व पुस्तक मेले में टहलते हुए न जाने क्यों गांधी मैदान के उस पुस्तक मेले की याद भी आती रही, इस सांत्वना के साथ कि तमाम कयासों के बीच किताबों की दुनिया जैसे और बड़ी हो गई हो। मेरी दिलचस्पी इसमें कतई नहीं है कि कितने की किताबें बिकती होंगी, नहीं बिकती होंगी। बस किताबों की मौजूदगी से ही मन गदगद हुआ जा रहा था। और इसमें तमाम विचारधाराएं, तमाम भाषाएं, सात समंदर पार से भी। जब तक किताबें रहेंगी, दुनिया के बेहतर होने की संभावना भी बची रहेगी। 

किताबों की इस दुनिया में इस बार हमारा भी एक छोटा सा कोना है। बहुत संकोच से हमने पहली बार हिम्मत की है, कि वहां खड़े रहें। हमारे पास न ज्यादा किताबों को बनाने का कौशल है,  न उन्हें बेच पाने के तौर तरीके पता है। बस अपना हिस्सा, जो अब तक किया या कर पा रहे हैं उसके लिए एक खिड़की है, दस्तक है। यह जानते हुए कि हम बहुत पॉपुलर हो जाने वाला कंटेंट भी नहीं बनाते। बस एक सपना है, और उस मंजिल तक पहुंचने का एक रास्ता ये भी है कि पढ़ा, लिखा जाए। 

पर क्या ही सुखद संयोग है कि हम भारत के लोग वाले इस पहले ही पुस्तक मेले में केंद्रीय थीम उसी संविधान के आसपास है, जिस पर हमने अपनी सामग्री सरल आसान और सहज भाषा में बनाने की कोशिश की है।  अपने दो दिन के अनुभव और लोगों से बातचीत के आधार पर ही मैं कह सकता हूं कि इस पर लोगों ने अच्छी अच्छी बातें कही हैं। उस आम समाज के प्रतिनिधियों ने भी जिस तक हम पहुंचने की कोशिश में हैं। बच्चों ने भी हमारे स्टाल पर आकर उस उतरती सीढ़ी चढ़ती सीढ़ी को खेला, पसंद किया और खरीदा, जिसके सांपों को हमने हटाना उचित समझा, क्यों सारे सांपों का नैरेटिव हम काट कर नीचे पहुंचाने का ही रखें जबकि हम जानते हैं कि हर सांप जहरीला नहीं है, और सांप हमारे खेतों के मित्र भी हैं। 

ऐसे कितने मूल्य हैं, जिन्हें हम इस तरह से भी सामने रख रहे हैं और जिन्हें आप इस बार पुस्तक मेले की केंद्रित थीम में देख समझ और चर्चा कर रहे होंगे।  मैंने बहुत सारे स्टॉल देखे पर यह संयोग है कि संविधान वाला हिस्से को आप आप हॉल नंबर दो और तीन के Q वाली लाइन में 17 नंबर स्टाल पर पाएंगे, जिसकी तख्ती पर विकास संवाद टंगा है। एक विनम्र आमंत्रण दिल्ली के और दिल्ली पहुंचे सारे मित्रों के लिए। 

सादर। 

राकेश कुमार मालवीय

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