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अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस : बेहद जरुरी है दुनिया में शांति


अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस 21 सितम्बर पर विशेष लेख



राकेश कुमार मालवीय

विकास के लिए सबसे अहम चीज है शांति। शांति केवल व्यक्ति को समृद्ध नहीं करती, पूरे समाज का इस पर असर होता है। जिन भौगोलिक क्षेत्रों में शांति का बसेरा है, वहां के समाज ने स्वयं अपने को हर स्तर पर अपने जीवन स्तर को समृदध किया है। बुद्ध ने शांति का संदेश पूरी दुनिया में फैलाया, दुनिया के महान लोग शांति को दुनिया में स्थापित करने में लगे रहे, सम्राट अशोक ने भयंकर युद्ध कर अंतत: यह समझा कि युद्ध कोई हल नहीं है, युद्ध स्थायी नहीं है, स्थायी तत्व है शांति। इसलिए हमारी परंपरा में गृहस्थ जीवन छोड़छाड़ कर शांति की तलाश में पहाड़ोपर्वतों की ओर निकल जाने के आख्यान आते हैं। वह शांति को प्राप्त करने की चरम अवस्था है, लेकिन इसे सामान्य जीवन में भी कहें तो स्वाभाविक मानवीय स्वभाव शांत है। वह मूलत: हिंसक नहीं है। कुदरती रूप से भी। इसलिए मनुष्य की दैहिक बनावट पशुओं से अलग है।

जाने कब और कैसे मनुष्य ने अशांति की तरफ बढ़ना शुरू किया होगा। जब तक मनुष्य कुदरत के साथ जीया  उसने अपने पेट के लिए ही साहस किया। उसमें किसी को अपने आधिपत्य में लेने की इच्छा नहीं थी। जब से एकदूसरे को अपना उपनिवेश बना लेने की भावना बढ़ी, परस्पर सहजीवन खत्म हुआ और उसी स्तर पर अशांति भी बढ़ती गई। दो घरों में, दो समाजों में, दो देशों में युद्ध ने अशांति का भयपूर्ण वातावरण तैयार किया, जो अंतत: विनाशकारी साबित हुआ। यहां तक कि विश्व स्तर पर भी दोदो युद्धों की विभीषिका को दुनिया ने झेला है। इनका परिणाम अंतत: बुरा ही हुआ। इसीलिए शांति की जरुरत को समझा गया और इसकी स्थापना के औपचारिक प्रयास शुरू हुए।

इसकी शुरूआत प्रथम विश्व युद्ध के बाद पेरिस में एक शांति सम्मेलन के रूप में हुई थी। जिसमें दुनिया के शांति के पक्षधर कई देशों ने हिस्सा लिया था। यूनाइटेड नेशन ने द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक इसी मुहिम को चलाने की कोशिश की। इसके बाद कई स्तरों पर कोशिश होती रही। भारत हमेशा से दुनिया में शांति का पक्षधर रहा है। इसलिए भारत से ही दुनिया को वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश जाता है। हमारा समाज शुरू से ही इतना सम्र्रध है जो दुनिया को एक इकाई मानते रहा है। आजादी के महान योद्धा महात्मा गांधी भी सत्य, अहिंसा के जिन रास्तों का चुनाव करते हैं, उनके अंदर शांति अंर्तसमाहित है। यह केवल दिखाने के लिए नहीं है। आजादी मिलने के बाद सेवाग्राम में महात्मा के उसी आश्रम में स्थित शांति भवन में एक विश्व शांति सम्मेलन आयोजित किया गया था। जिसमें उस वक्त के तमाम बड़े नेता सभी लोग शामिल हुए और गांधी के रास्तों को आगे ले जाने की बात की। आज भी यह शांति भवन उसी स्वरूप में मौजूद है।

बहुत साल बाद भी इस दिन को अंतरराष्ट्रीय शांति दिवस कहने पर कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई थी। साल 1981 में पहली बार ये दिन युनाइटेड नेशन्स की ओर से मनाया गया। शुरूआत में सितंबर के तीसरे शनिवार को इस खास दिन के लिए मुकर्रर किया गया था, लेकिन साल 2001 के बाद से ये दिन 21 सितंबर को मनाया जाना तय किया गया।


क्या दुनिया में शांति की स्थापना सबसे जरूरी है


आज समूची दुनिया के देशों में, आंतरिक रूप से समाजों में बढ़ते संघर्ष, घृणा और हिंसा बढ़ रही है। जिस तरह से हिंसा बढ़ रही है, उसी पैमाने पर लोग शांति के महत्व को भी समझ रहे हैं, और शांति की स्थापना की आवाजें भी सुनाई दे रही हैं। यह मांग भी पूरे जोरों पर है कि दुनिया में युद्ध को पूरी तरह खत्म किया जाए, जबकि दुनिया की कई पूंजीवादी ताकतें हथियार बनाने का अपना मुख्य धंधा बनाई हुई हैं, दरअसल युद्ध की संभावना को यही ताकतें बनाए रखना चाहती हैं, व्यक्ति के स्तर पर यह किसी की महत्वाकांक्षा नहीं होगी कि किसी भी समाज को युद्ध में झोंक दिया जाए।

संयुक्त राष्ट्र की स्थापना तो दुनिया में शांति स्थापित करने के लिये ही की गई थी। इसका मुख्य मकसद विश्व में अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष को रोककर, शांति की संस्कृति का विकास करना था। शांति का संदेश विश्व में दूर-दूर तक फैलाने के लिये संयुक्त राष्ट्र ने कला, साहित्य, सिनेमा, संगीत और खेल क्षेत्र की विभूतियों को शांतिदूत के रूप में नियुक्त किया।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस का कहना है कि हमें समुदायों को विभाजित करने और पड़ोसियों को दूसरेके रूप में पेश करने के लिये किये जा रहे निंदक प्रयासों का विरोध करना चाहिए। हमें भेदभाव कम करना है। यह लोगों और समाज को अपनी पूर्ण क्षमता को प्राप्त करने से रोकता है। हमें धर्मनिरपेक्षता और मानव अधिकारों के समर्थन में खड़े होना है। हमें लोगों के बीच सेतु का निर्माण करना है। आइये हम सभी मिलकर भय को आशा में बदल दें। महासचिव की यह बात निश्चित ही इस दौर में महत्वपूर्ण कही जा सकती है. 


इस साल मानव अधिकार है थीम 


संयुक राष्ट्र हर साल इस दिन को अलग अलग थीम के साथ दुनिया भर में मनाता है. इस साल इसकी थीम विश्व मानव अधिकार दिवस के सत्तर साल पूरे होने पर केन्द्रित है।
 
किसी भी व्यक्ति की गरिमा स्थापित होती है उसके अधिकारों से। दुनिया में हर मनुष्य के अपने अधिकार हैं, जो उसे मिलने चाहिए। 10 दिसम्बर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने विश्व मानवाधिकार घोषणा पत्र जारी कर पहली बार मानवाधिकार व मानव की बुनियादी मुक्ति पर घोषणा की थी। वर्ष 1950 में संयुक्त राष्ट्र ने हर साल की 10 दिसम्बर की तिथि को 'विश्व मानवाधिकार दिवस' तय किया।

ग्लोबल पीस इंडेक्स में १३७ वें स्थान पर भारत


दुनिया में शांति के लिहाज से कौन देश किस स्थिति पर है इसका एक इंडेक्स इंस्टिट्यूट फॉर इकनॉमिक्स एंड पीस (आईईपी) द्वारा जारी किया जाता है। ग्लोबल पीस इंडेक्स 2018 में भारत 163 देशों की सूची में 137 वें स्थान पर रहा। इससे पहले 2017 में वह 141वें स्थान पर रहा था। इस तरह से भारत ने अपनी रैंकिंग में चार अंकों का सुधार किया है, ​लेकिन फिर भी अभी इसमें बहुत सुधार करने की चुनौतियां देश के सामने हैं।

शांति के मामले में सबसे बेहतर पांच देश


1.       आईलैंड
2.       न्यूजीलैंड
3.       आस्ट्रिया
4.       पुर्तगाल
5.       डेनमार्क

शांति के मामले में सबसे पिछड़े पांच देश


1.       सीरिया
2.       अफगानिस्तान
3.       साउथ सूडान
4.       इराक
5.       सोमालिया

महत्वपूर्ण है नेहरू का पंचशील सिद्धांत

भारत हमेशा से शांतिप्रिय देश रहा है, इसकी एक मिसाल पंचशील के सिदधांत हैं। 1954 के बाद से भारत की विदेश नीति को पंचशील के सिद्धांतों ने एक नई दिशा प्रदान की। इन सिद्धांतों का प्रतिपादन सबसे पहली बार 29 अप्रैल, 1954 को तिब्बत के संदर्भ में भारत और चीन के बीच हुआ था। इस पर दोनों देश चीन और भारत के प्रमुखों ने माना था। 28 जून, 1954 को चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई तथा भारत के प्रधानमंत्री नेहरू ने पंचशील में अपने विश्वास को दोहराया। शांति की स्थापना के लिए इन्हें श्रेष्ठ माना गया इसलिए एशिया के प्रायः सभी देशों ने इन सिद्धांतों को स्वीकार कर लिया। अप्रैल 1955 में बाण्डुग सम्मेलन में पंचशील के इन सिद्धांतों को पुनः विस्तृत रूप दिया गया। इस सम्मेलन के बाद विश्व के ज्यादातर राष्ट्रों ने पंचशील सिद्धांत को मान्यता दी और उसमें आस्था प्रकट की। पंचशील के सिद्धांत अंतरराष्ट्रीय सम्बंधों के लिए निःसंदेह आदर्श भूमिका का निर्माण करते हैं। पंचशील से अभिप्राय है- आचरण के पांच सिद्धांत । जिस प्रकार बौद्ध धर्म में ये व्रत एक व्यक्ति के लिए होते हैं उसी प्रकार आधुनिक पंचशील के सिद्धांतों द्वारा राष्ट्रों के लिए दूसरे के साथ आचरण के सम्बंध निश्चित किए गए हैं।
1. एक दूसरे की प्रादेशिक अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना।
2. एक दूसरे के विरूद्ध आक्रामक कार्यवाही न करना।
3. एक दूसरे के आंतरिक विषयों में हस्तक्षेप न करना।
4. समानता और परस्पर लाभ की नीति का पालन करना।
5. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति में विश्वास रखना।

दुनिया के सबसे बड़े शांतिदूत : गाँधी   


संयोग से दुनिया में सत्य, अहिंसा के शांतिपूर्ण अस़्त्र का सबसे अधिक प्रभावी प्रयोग करने वाले व्यक्ति का नाता भारत से है। भारत 200 साल ब्रिटिश सत्ता के अधीन रहा। 1857 में मेरठ शहर से पहली बार आजादी की चिंगारी उठी जो धीरेधीरे देश भर में फैली। आजादी के तकरीबन नब्बे साल के संघर्ष में भिन्न—​भिन्न तरीकों ने यह लड़ाई लड़ी। इसमें गरम दल वाले क्रांतिकारी भी नेता थे और नरम दल वाले भी। नरम दल यानी शांतिपूर्ण तरीके से अपनी मांगों और हकों के लिए अड़े रहना। अंतत: आजादी मिली। इस बात पर तमाम बहस है कि आखिर आजादी का श्रेय किसे दिए जाए और कौन सा तरीका ज्यादा सही है। पर जिस तरीके को पूरी दुनिया में सर्वमान्य स्वीकार्यता मिली वह तरीका था सत्य, अहिंसा का तरीका। जिसमें शांति का तत्व अंर्तनिहित था। इस तरीके को आजमाने वाले थे मोहनदास करमचंद गांधी। गांधी ने अपने पूरे जीवन को ही सत्य का एक प्रयोग निरूपित किया और कहा कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। सचमुच आज गांधी के 150 साल पूरे होने पर भी उनके विचारों की, उनके कार्यो की उतनी ही जरूरत महसूस होती है। दुनिया में हर तरफ मौजूदा चुनौतियों से निपटने का गांधीयन तरीका सबसे कारगर है। यही कारण है कि उनका तरीका केवल वह खुद ही नहीं बढ़ाते, दुनिया के अनेक देशों में उनके बताए मार्ग पर चलने वाले सैकड़ों उदाहरण हैं।

शांति का नोबल पाने वाले नेल्सन :


महात्मा गांधी का संघर्ष दक्षिण अफ्रीका की जमीन से शुरू हुआ। भारतीयों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार ने महात्मा के मन में गहरा प्रभाव छोड़ा और इसके बाद से उनका पूरा जीवन आजादी के संघर्ष में चला गया। इसी धरती पर एक दूसरा संघर्ष भी था और वह था रंगभेद का। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद से पार पाना उतना ही चुनौतीपूर्ण और जरूरी था जितनी भारत में आजादी। दक्षिण अफ्रीका में इस आजादी के जो अगुआ थे उनका नाम है नेल्सन मंडेला। नेल्सन मंडेला का जन्म 1918 में हुआ था। जब नेल्सन बड़े हुए तो उन्होंने पाया कि अश्वेत लोगों के साथ रंगभेद नीति अपनाई जाती है। तब मंडेला अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस से जुड़ गए। रंगभेद की नीतियों के कारण उन्होंने 27 साल जेल में गुजारे। 1990 में मंडेला ने श्वेत सरकार से अलग राज्य के लिए संघर्ष किया और एक अलग राष्ट की बुनियाद रखी। इस लंबे संघर्ष के कारण उन्हें दक्षिण अफ्रीका का गांधी कहा गया। संयुक्त राष्ट उनके जन्म दिन को नेल्सन मंडेला दिवस के रूप में मनाता है। भारत ने भी उन्हें अपने काम के कारण भारत रत्न का सम्मान दिया, यह सम्मान पाने वाले वह पहले विदेशी नागरिक थे। उन्हें शांति का नोबल पुरस्कार भी मिला।

सबसे कम उम्र में शांति का नोबल पाने वाले किंग


महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन से प्रेरित होने वाले एक दूसरे व्यक्तित्व का नाम था मार्टिन लूथर किंग। संयोग से इन्हें भी नस्लीय भेदभाव का शिकार होना पड़ा और उसके बाद उन्होंने इसके खिलाफ एक जरूरी आंदोलन खड़ा कर दिया। करिश्माई व्यक्तित्व वाले मार्टिन लूथर किंग ने अपना मशहूर भाषण 34 साल की उम्र में दिया था जिसे आज भी याद रखा जाता है। इससे पहले वह भारत आए थे और उन्होंने खुद माना था कि इसे तीर्थयात्रा जैसा बताया था। उन्होंने बार बार कहा कि महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत को अपनी सबसे बड़ी ताकत बताया। गांधी की तरह किंग ने भी रंगभेद के खिलाफ अपनी लड़ाई में  अपने विश्वास और सहानुभूति, सत्य और दूसरों के लिए जीने के अपने नियमों से ही ताकत जुटाई। कई बार जब उन्हें जेल जाना पड़ा । 1964 में सिर्फ 35 साल की उम्र में किंग को शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया। यह पुरस्कार पाने वाले वह इतिहास के सबसे कम उम्र के इंसान बन गए। सिर्फ चार साल बाद 1968 में किंग की हत्या कर दी गई।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.

( यह लेख रोजगार और निर्माण के लिए लिखा गया है )


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