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बेटा उल्टी चप्पल क्यों पहनता है ?

  
अंतर्राष्ट्रीय बाल दिवस (२० नवम्बर)  
·         राकेश  कुमार मालवीय

मेरे एक मित्र ने नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर एक दिलचस्प सवाल छोड़ा। मेरा चार साल का बेटा हमेशा उल्टी चप्पल पहनता है। क्या किसी के पास सीधी चप्पल पहनने का उपाय है। सवाल खासा चर्चा में आया। इस पर सभी अपने-अपने नजरियों से सलाह देते नजर आए। कोई कह रहा था कि उसे उल्टा पहनने को कहें तो वह अपने-आप सीधा पहनने लगेगा तो कुछ लोग इस पक्ष में थे कि उसे सीधा पहनना के लिए कहना ही क्यों चाहिए। कुछ लोगों का यह भी मानना था कि हम बच्चों की दुनिया में टांग अड़ाए ही क्यों ?

वाकई देखा जाए तो हम बच्चों की दुनिया में हमेशा टांग अड़ाने को आतुर रहते हैं। ऐसा करो, ऐसा मत करो, ऐसे बैठो, ऐसे खाओ, यह खाओ, ओहो फिर गंदे कर लिए कपड़े। हर बात पर सीख और समझाइश। हम बच्चों को उनके मौलिक तौर-तरीकों से जीने की आजादी ही नहीं देते। उन्हें अपने मन की दुनिया बनाने की छूट ही नहीं मिल पाती। उनके परवानों पर बंदिश  लगा दी जाती है। पानी के स्पर्श  से लेकर, मिट्टी के स्वाद तक सब जगह कुछ बड़ी और जासूस आंखें पीछा कर रही होती हैं। यह सब जानते हुए कि बच्चों की दुनिया बड़ों से कहीं ज्यादा ईमानदार, मूल्यवान और मजेदार है, उन पर जल्दी से जल्दी बड़े होने का दबाव होता है। यह कहां तक उचित है। क्या उन्हें अपनी दुनिया खुद सजाने-संवारने के लिए खुला नहीं छोड़ देना चाहिए।

बच्चों के अधिकारों के पैरवीकार इस बात के लिए एक लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं कि बड़ों की दुनिया में बच्चों की बात भी सुनी जानी चाहिए। कमोबेश  बाल अधिकारों के लिए एक लिखित सहमति के बावजूद तमाम देशों की सरकारें ऐसी लोकप्रिय व्यवस्था नहीं बना पाई हैं। नीति-निर्माण से लेकर तमाम योजनागत व्यवस्थाओं में बच्चों की सलाह-मशविरा  के मौके कम ही आ पाए हैं। यह स्थिति वाकई कितनी अन्यायपूर्ण है कि हम टीवी शोज में तबला बजाने से लेकर नाचने-गाने और जहान में छा जाने की तो अपेक्षा रखते हैं, लेकिन वैचारिक संदभौं में हम बच्चों की दखल, उनके विचार और उनकी राय को अब तक नहीं समझ पाए हैं।

केवल सरकार के स्तर पर ही नहीं एक परिवार में भी बच्चों की अभिव्यक्ति के मौके की गुंजाइश  बेहद कमतर आंकी जाती है। बच्चों की हाजिरजवाबी के लिए उन्हें दाद तो मिल सकती है, लेकिन उनकी किसी राय को माने जाने की संभावना उससे बहुत कम है। प्रसिध्द शिक्षा  शास्त्री  प्रोफेसर यशपाल  का भी मानना है कि बच्चों के सवालों पर उतना ही गौर करने की जरूरत है जितना किसी अन्य के। बावजूद इसके उन्हें उतना ही कम स्थान दिया जाता। स्कूली व्यवस्था में ऐसे अवसरों को हम 'कॉरपोरल पनिशमेंट' के रूप में परिभाषित करते हैं, लेकिन यही स्थिति जब एक घर में बनती है तो उसे हम कुछ नहीं कहते।

परीक्षा में खराब पदर्शन  का जितना जिम्मा एक स्कूल का ठहराया जाता है उतना ही एक परिवार का भी माना जाना चाहिए। परीक्षा परिणाम में बेहतर-और बेहतर प्रदर्शन  की पारिवारिक अपेक्षा संभवत: बच्चों की आत्महत्या तक जाने में ज्यादा जिम्मेदार है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का आत्महत्या क कारणों वाला विश्लेषण  यह साफ करता है कि केवल परीक्षा मे खराब प्रदर्शन  आत्महत्या का बड़ा कारण बना है। होना तो यह चाहिए कि जिस तरह हम बच्चों को उनकी सफलता के लिए स्वाभाविक बधाई देते हैं ठीक वैसा ही नजरिया उनकी असफलता पर भी हो। 

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