किस तरह से याद करें? 10 दिसम्बर वाले
जावेद को याद करें, दस दिसम्बर और उसके पहले के कुछ वक्त तक वाले
वाले को याद करें उस जावेद को याद करें जिसके होने का मतलब जावेद था। जावेद, जिसका एक अर्थ है शाश्वत, एक अर्थ है अमर...अनंतकाल
और अरबी में खोजेंगे तो पाएंगे सदाबहार या दीर्घजीवी। दुनियावी नजरों का अंदाज भले
ही हमें इन सारे अर्थों को धता बता रहा होगा, पर यदि मर्म को जानना है
तो थोड़ा अंदर जाना होगा और दस दिसम्बर के जावेद को भुलाकर दरअसल उस जावेद को याद
करना होगा जिसने एक सुंदर दुनिया का सपना बनाने का न केवल सपना देखा बल्कि उसका
शिल्पकार बनने की कोशिश करता भी रहा, अपने विचारों में, अपने कामों में।
मेरे पास भी तमाम लोगों की तरह ही सैकड़ों सवाल
हो सकते हैं? पर मैं जानता हूं कि उन सवालों के ठीक—ठीक जवाब एक भी आदमी
के पास नहीं हैं। केवल कयास ही हो सकते हैं और कयासों के सहारे किसी भी परिणाम पर
पहुंच जाना ठीक या सटीक बात नहीं हो सकती। हां, उस दरमियां बेशक कुछ सबक
हो सकते हैं, कुछ विमर्श हो सकते हैं, और उनका हम सभी की जिंदगी
में स्वागत होना चाहिए।
हां, मैं लिखता हूं, पर एक महीने में
इस पर मुझसे कुछ लिखा न गया। हालांकि इधर बिना गुने मथे किसी भड़भड़ी में, एकदम जल्दी मेंए
कुछ भी लिखने से बचता हूं, पर यह घाव जरा गहरा था। और जब अब हम सभी ने खुद
को संभाला है तो सवाल सामने है कि अब हम जावेद को किस तरह से याद करें।
मुझे लगता
है कि हम सब की यादों के कैनवास पर उस युवा जावेद की छाप ज्यादा होना चाहिए जो
किसी बड़ी जगह से पढ़लिख कर आया, जिसके पास अच्छे वेतन—शान और शौहरत वाली
नौकरियों के तमाम विकल्प हो सकते थे पर उसने बनिस्पत एक कठिन रास्ता चुना। वह कुछ
अलग सपने देखने वाली उन युवाओं की टोली में
शामिल हुआ, न केवल युवाओं की बल्कि भोपाल में भी कुछ इस
तरह से शामिल हुआ कि आखिर दो गज जमीन भी भोपाल की ही नसीब हुई।
जावेद, एक लेखक जावेद, सामाजिक
कार्यकर्ता जावेद, एक दोस्त जावेद, सेकुलर जावेद, सपने देखने वाला जावेद, एक पढ़ाकू जावेद, मूवी देखने उन पर
लिखने वाला जावेद, भोर को टहलने वाला जावेद, एक प्रशिक्षक
जावेद, धीमे से मुस्काने वाला जावेद, एक टीममेकर जावेद, सहकर्मी जावेद, डॉक्टर जावेद।
दोस्ती के साथ बीते कुछ सालों मुझे उनके साथ काम करने का मौका मिला। और पिछले दो
साल से और ज्यादा करीब से कामकाजी यात्राएं भी। कई बार साथ आने से दूरियां बढ़ती
हैं, लेकिन यहां हो रहा था। हम ज्यादा करीब से काम कर रहे थे और
एक दूसरे पर यकीन में भी इजाफा हो रहा था।
हम दोनों का स्वभाव मूलत: कम बोलने कम और लिखने
वाला ज्यादा रहा है। और हम साथी इस बात को अपनी यात्राओं में कहते भी रहते थे कि
यदि हमें एक कमरे में रहने का मौका मिले तो हम घंटों चुपचाप समय गुजार सकते हैं।
अलबत्ता अब लगता है कह देना ज्यादा ठीक होता है। खासकर तब जब आपकी जिंदगी और लोगों
से जाकर जुड़ती है। खासकर तब जब आप अपने श्रम से खुद को एक इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी
बना लेते हैं और उस मुकाम पर होते हैं जहां आपसे एक सामान्य व्यक्ति से ज्यादा
उम्मीदें बांध ली जाती हों। जावेद भी ऐसे ही थे।
उनके बारे में एक चलती वर्कशॉप में मैंने एक
चुटकुला गढ़ा था। जावेद भाई के सामने ही मैंने पूछा कार्तिक भाई दुनिया के पास चार
वेद हैं, पर हमारे पास पांचवा वेद भी है। बताओ कौन। और जब कार्तिक
भाई नहीं बूझ पाए तो मैंने हंसी में कहा जावेद। यह तुलना मजाकिया हो सकती है, पर वास्तव में वह
कई साथियों के लिए किसी अच्छी किताब की तरह ही थे, उस किताब का बंद हो जाना, हम सभी के लिए
दुखद है।
जावेद अपने बहुत सारे काम अधूरे छोड़ गए हैं।
बेहतर समाज बनाने का उनका सपना अधूरा है। मेरे पास उनकी बहुत सारी निजी यादें हैं।
आप अपना अपना हिस्सा तय कर सकते हैं, पर मैं 9 दिसम्बर के पहले
वाले जावेद को उसके काम को अपनी स्मृति में दर्ज करके हमेशा के लिए रखना चाहूंगा।
सलाम जावेद भाई।
राकेश कुमार मालवीय
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