कहना—सुनना
हम कहेंगे नहीं
वो सुनेंगे नहीं
क्या वो सुनेंगे
क्या हम कहेंगे
कह भी दें तो
सुनें ही न तो
क्या कहें
क्या सुनें
अच्छा है
चुप ही रहें।
वो सुनेंगे नहीं
क्या वो सुनेंगे
क्या हम कहेंगे
कह भी दें तो
सुनें ही न तो
क्या कहें
क्या सुनें
अच्छा है
चुप ही रहें।
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प्रेयसी
हां,
तुम मेरी प्रेयसी हो,
किसी बंधन, किसी रिश्ते, किसी छुअन से परे
हां तुम मेरी प्रेयसी हो
शब्दों के आलिंगन की तरह
जो छूते हैं सीधे दिमाग से निकलकर
तह करके रखी हुए हृदय की परतों पर।
तुम मेरी प्रेयसी हो,
किसी बंधन, किसी रिश्ते, किसी छुअन से परे
हां तुम मेरी प्रेयसी हो
शब्दों के आलिंगन की तरह
जो छूते हैं सीधे दिमाग से निकलकर
तह करके रखी हुए हृदय की परतों पर।
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चार लाइनतस्वीरें उखड़कर आती हैं इतिहास से
वर्तमान की दर्दीली दीवारों पर
तब भी जब कोई हल्के से
लाइक की बटन को टुनकाता है।
28 मार्च 2015
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रायपुर, 24 नवम्बर 2012
अब केवल पढ़ाई ही नहीं है मेरे एजेंडे में
=================
उदंती डॉट कॉम ने मलाजखंड पर लिखी कविता प्रकाशित की। http://www.udanti.com/2013/04/blog-post_5278.html |
सबसे खतरनाक क्या
सबसे खतरनाक होती है साजिश
सबसे खतरनाक होती है रंजिश
सबसे खतरनाक होता है खतरा
सबसे खतरनाक होता है पहरा !
सबसे खतरनाक होता है मूल्यों का पतन
सबसे खतरनाक होता है पड़ोसी वतन
सबसे खतरनाक होता हे भ्रष्टाचार
सबसे खतरनाक होता है राजनीतिक व्यवहार !
सबसे खतरनाक होती है दूरी
सबसे खतरनाक होती है मजबूरी
सबसे खतरनाक होती है प्यास
सबसे खतरनाक होती है रूकती हुई सांस!
सबसे खतरनाक होती है भूख
सबसे खतरनाक होती है बंदूक
सबसे खतरनाक होता है सच
सबसे खतरनाक होता है भ्रष्ट
नहीं नहीं नहीं
मेरी नजर में
सबसे खतरनाक है तुम्हारा मौन
सबसे खतरनाक है सब कुछ देखते जाना
सबसे खतरनाक है कुछ ना कर पाना
सबसे खतरनाक है आंखे मूंद बैठ जाना
सबसे खतरनाक है साजिशों में शामिलाना !
राकेश कुमार मालवीय
रायपुर 30 नवम्बर 2012
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सदियों से मैं मजदूर हूं
चलाता रहा हूं चरखा
कभी खोदता रहा हूं गडढा
चलाता रहा हूं चरखा
कभी खोदता रहा हूं गडढा
बनाता रहा हूं इमारत
बहाता रहा हूं पसीना
सदियों से मेरे पसीने पर
मेरे खून पर
तुम करते रहे हो मौज
मैं देखता हूं, समझता हूं
पर खामोशी से चलाता हूं कुल्हाड़ी
मुझे पता है मेरे बिना नहीं अस्तित्व तुम्हारा
जिस दिन चाहूंगा हिला दूंगा बुनियाद तुम्हारी
लेकिन खामोशी में ही मेरी है खुशी
पसीना बहाए बिना मुझे नींद नहीं आती।
राकेश कुमार मालवीय
बहाता रहा हूं पसीना
सदियों से मेरे पसीने पर
मेरे खून पर
तुम करते रहे हो मौज
मैं देखता हूं, समझता हूं
पर खामोशी से चलाता हूं कुल्हाड़ी
मुझे पता है मेरे बिना नहीं अस्तित्व तुम्हारा
जिस दिन चाहूंगा हिला दूंगा बुनियाद तुम्हारी
लेकिन खामोशी में ही मेरी है खुशी
पसीना बहाए बिना मुझे नींद नहीं आती।
राकेश कुमार मालवीय
रायपुर, 24 नवम्बर 2012
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मलाजखंड 1
सैकडों
सालों से
मेरे
सीने में
बेशुमार दौलत
धरती
के ठंडा होते
जाने से
मनुष्य के कपडे
पहनने तक
जिसे
हम कहते हैं
सभ्यता का पनपना
और
इसी सभ्यता
के पैमानों पर
सभ्यता को आगे
बढाने के लिए
हम
होते जाते हैं
असभ्य ।।
हां
मैं मलाजखंड
मेरी
अकूत दौलत
इसी
सभ्यता के
लिए
मैंने
कर दी कुर्बान
अपने
सीने पर
रोज
ब रोज
बारूद
से खुद को
तोड तोड
खुद
बर्बाद होने के
बावजूद
तुम
इंसानों के लिए
।।
पर
यह क्या
मेरी
हवा
मेरा
पानी
मेरा
सीना
मेरे
पशु
मेरे
पक्षी
मेरे
पेड्
मेरे
लोग
जिनसे
बनता था मैं
मलाजखंड
ऊफ
ऐसा
तो नहीं सोचा
था मैंने
मेरे
साथ बर्बाद होंगे
यह सब भी
हां
यह जरूर था
कि
मैंने दी अपनी
कुर्बानी
लेकिन
वह वायदा कहां
गया ।।
मलाजखंड 2
मलाजखंड में
रोज दोपहर
या
कभी कभी दोपहर
से थोड्ा पहले
एक
धमाका
सभी
को हिला देता
है
इस
धमाके से हिलती
हैं
छतें,
दीवारे,
लगभग
हर दीवारों पर
छोटी
बडी लहराती दरारें
यह
दरारें मलाजखंड तक
ही नहीं हैं
सीमित
दरारों
से रिस रहा
पीब
मलाजखंड के
मूल निवासियों
का
दर्द बयां करता
है
पशु
पक्षियों
जानवरों की
सांसें
केवल
हवा ही नहीं
निगलती
उसके
साथ होती है
खतरनाक और जानलेवा रेत
उफ
मैं
मलाजखंड
मैंने
दुनिया को अपना
बलिदान दिया
और
दुनिया ने मुझे
..........।
मलाजखंड 3
मलाजखंड की धरती आज खिलाफ हो गई है
अपने ही खिलाफ
अपनी ही सुंदरता, अपनी ही समदधता के खिलाफ
कौन होना चाहता है ऐसा
पर हां, मलाजखंड की धरती कर रही है ऐलान
हे इंसान, तुमने क्या कर दिया।
राकेश
कुमार
मालवीय
===================================
प्रेम में
गिलास
लोटा
कलछी
गंजी
चमकती स्याही से
कॉपी के पिछले
पन्नों पर
शायद रात के
वक़्त
एकदम तनहाई में
उससे बात करने
के बाद
किसी प्यारी सी
कविता से
चोरी -चोरी लिखे
यह शब्द !
हाँ,
तुम्हारी आँखें चमक रही
हैं
और यह मुस्कान
जो स्वाभाविक से
भी थोड़ी ज्यादा
पाता हूँ मैं
तुम जो गुनगुनाती हो
दिल के तराने
हाँ , हाँ
मैं सुन रहा
हूँ !
मैं देखता हूँ
तुम्हारा
प्रेम में कुलांचे मारना
अक्सर तुम्हारे
शून्य में खो
जाने का राज
अब समझ आ रहा है
धीरे - धीरे
कि समझ आ रहा है की
बोर्ड पर टकटकाती
तुम्हारी उंगलियाँ
शब्द नहीं
लिख रहीं थीं
प्रेम !
हाँ, मैं देख
रहा हूँ
अब से कुछ
बरस पहले
एक पुरानी से
डायरी में
पीछे के
पन्नों पर
अब भी नख्ती
है
लोटा
बाल्टी
कलछी
गिलास
वक़्त गुजर गया
शब्द, शब्द ही
रहे
प्रेम न हो
सके !
राकेश
कुमार
मालवीय
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सिलाई मशीन 1
बचपन
से ही लुभाती है मुझे सिलाई मशीन
सोचती
हूं इस छोटी सी मशीन से आखिर
कैसे
हो जाते हैं इतने काम !
एक
लय में, एक जैसे सुरों के
साथ
दिलचस्प
है इसका संगीत
केवल
एक मशीन भर नहीं है यह
जिंदगी
का ताना-बाना भी बुनती है
संजीदगी
से
पुराने
शहर का एसके टेलर्स भी
दावा
करता है
निश्चित ही हर घर में मौजूद है
एक
न एक सिलाई मशीन
सिलाई
मशीन 2
आज मेरी मशीन भी आ गई
मेरे सपनों को मिला है आकार आज
बाकी
सपने भी बुनूंगी अब इसके सहारे
हां
ये अलग बात हे कि
थोड़ा-थोड़ा
ही सिलना जानती हूं अभी
पर
उस दिन जब टेलर चाचा ने
मुझे
सिखाए थे कुछ कटिंग टिप्स
और
उसके बाद आड़ी तिरछी
धीमी-तेज
गति से
चलाई
थी पहली बार सिलाई मशीन
सच
मानिए
और
तीव्र हो गई थी चाहत
तेज, तेज और तेज
सिलाई
मशीन चलाने की इच्छा
मशीन
दौड़ने के साथ ही
जिंदगी
की गाड़ी भी दौड़ रही थी
दोगुनी
गति से
यह
कठिन था कि केवल मेरे कहने पर
पिताजी
ला सकते सिलाई मशीन
पर
हां, वादा तो किया था,
फसल
आने का
पांच-पांच, दस, दस
रूपए की बचत
और
स्कूल से मिले स्कॉलर के पैसों को मिलाकर
आज
आ ही गई
मेरी
सिलाई मशीन
मेरी
प्यारी सिलाई मशीन
सिलाई मशीन 3
अब केवल पढ़ाई ही नहीं है मेरे एजेंडे में
पिताजी
को दिखाना भी है
घर
में सिलाई मशीन होन का मतलब
इसके
बावजूद कि रसोई,
और
घर के दूसरे काम भी हैं मेरे जिम्मे
पर
मेरी प्राथमिकता में तो
पहले
सिलाई मशीन है ना
शून्य
से शुरूआत कर
टाज
जबकि बढ़ती ही जा रही है मेरी गति
तारीफ
भी कर रही हैं
मोहल्ले
की अम्मां और चाचियां
हां, मेरी चर्चा हो रही है पूरे
गांव में
यही
कि बहुत अच्छे कपड़े सिलते है वह
चाहे
बंद गले का ब्लाउज हो
या
लो कट नया स्टाइल
हर
दिन नए प्रयोग
हर
कपड़े को बस नया आकार देने की कोशिश
चलती
है दिमाग में
इन
आकारों से मेरे जीवन को मिल रहा है आकाश
शायद
पिताजे के माथे से भी
अब
इस बात का अफसोस हो गया है गायब
कि
क्यों बड़ी रकम खर्च कर
बिटिया
को दिलाई सिलाई मशीन।
सिलाई
मशीन
4
आज
घर में आ गई है
एक
और सिलाई मशीन
जरूरत
नहीं थी
बहुत
अच्छी चल रही थी
मेरी
सिलाई मशीन
पर
चार साल पुरानी मशीन
दहेज
में नहीं दे सकते पिताजी
बाजू-बाजू
में रखी मशीन में
फर्क
जानती हूं मैं
एक
से सपने बुने मैंने आजादी से
दूसरी
से बुनना है बंदिशों में रहकर
राकेश कुमार मालवीय
=========================================
शब्द खामोश
शब्द खामोश,
जुबां खामोश,
दिल खामोश.
जहां खामोश.
शब्द पत्थर,
जुबां पत्थर.
दिल पत्थर,
जहां पत्थर.
शब्द जालिम,
जुबां
जालिम.
दिल जालिम ,
जहां जालिम .
शब्द धकधक,
जुबां धकधक.
दिल धकधक ,
जहां धकधक.
राकेश कुमार मालवीय
----------------------------------------------
देना होगा तुम्हें
हर
सांस का हिसाब
किस
दिन
किस
नथुने से ली
और
किससे छोड़ी बाहर.
इससे
कोई मतलब नहीं
कि
कितनी ऑक्सीजन थी तुम्हारे हिस्से में
लेकिन
हाँ, तुम्हें देना होगा हिसाब
सीओटू
के अलावा भी तो नहीं था कुछ
तुम्हारी
सांसों में।
राकेश कुमार मालवीय
------------------------------------------
दूर गांव में
दूर
गांव में तब
भी-अब भी
भूख
की खबरें आती
हैं
नहीं
खिलौने, नहीं बिछौने
भूखे
पेट सुलाती हैं
दिन
भर की मजदूरी
नहीं
समय पर मिलती
है
खाली
बर्तन बजते घर
में
कैसे
ये मजबूरी है
जिस
मुल्क के शहरों
में आजकल
बाजार
चमकते रहते हैं
उसी
मुल्क के बच्चे
देखो
कैसे
भूखे-नंगे रहते
हैं
खुले
आसमां के नीचे
टनों
अनाज सड़ जाता
है
उसी देश में देखो तुम
भी
दीना
भूखा मर जाता
है
दूर
गांव में तब
भी-अब भी
चूल्हे
उदास रहते हैं
राशन की दुकानों पर
कई
ताले जड़े रहते
हैं
दूर
गांव में तब
भी-अब भी
भेदभाव
का नाता है
जिनको
मिले पहले हक
वही
सबसे बिटमाता है
दूर
गांव में तब
भी-अब भी
आवाज
दबा करती है
कानूनों की
मार उल्टी
लोगों
पर पड़ती है
दूर
गांव में तब
भी-अब भी
ऐसा
भ्रष्टाचार है
पैसा
नहीं पहुंच पाता
है
जुल्म
अत्याचार है
दूर
गांव में तब
भी-अब भी
रोटी
नहीं मिल पाती
है
भूखे
पेटों सोते हैं
जान
चली जाती है
पता
नहीं सोने की
चिड़िया
काहे
को कहते हैं
दूर
गांव में तब
भी-अब भी
क्या-क्या हम सहते
हैं
क्या-क्या हम सहते
हैं।
राकेश
कुमार
मालवीय
हे धृतराष्ट्र
हे धृतराष्ट्र
क्या
धृतराष्ट्र होना ही तुम्हारी नियति है।
या
कभी
खोलोगे
भी आंखें
सच तो
यही है राजन
कि
बेहद जरूरी है अब
आंखों
पर चढ़ी पट्टी हटाना
जान
लो यह सच्चाई
कि
अब संजय पर नहीं कर सकते विश्वास
मान
लो अब
कि
सदियों से तुम्हारे अंधियारे ने
कितने'-कितने महाभारत खड़े किए
कितने-कितने योद्धा मारे
गए
कितनी-कितनी
विधवा मां और वधुएं
अब
तक कर रही हैं प्रलाप
पर
तुम हो कि अब भी
बने
हुए हो
धृतराष्ट्र
के धृतराष्ट्र।
हे धृतराष्ट्र 2
सोच
रहे थे कि
अपने-आप
खुल जाएंगी हथकड़ियां
पहरेदार
सो जाएंगे
और
जमुना जल से पार होते हुए
तुम
पहुंच जाओगे उस पार
सुरक्षित
हाथों में
पर
कितनी
रातें गुजर गईं
नहीं
खुल पा रही हथकड़ियां
चटक
नहीं रहे ताले
अजीब
इत्तेफाक है कि
खुफिया
नेत्रों के भय से
सो नहीं
रहे हैं पहरेदार
कारागार
में बंद है तारणहार
और
पार्श्व में
गूंज रहा है
एक
भयानक अट्टाहास।
राकेश कुमार मालवीय
===================================
खबर की किस्मत
हां
हर
खबर की किस्मत होती है
ठीक
उसी तरह जिस तरह
इंसान
अपनी हाथों की लकीरों में खोजते हैं
भविष्य
के गर्त की तस्वीरें
पर
कहा तो यह जाता है
हर
आदमी अपनी किस्मत लेकर पैदा होता है
ठीक
उसी तरह
खबर
की भी किस्मत होती है।
खबर
कितनी अच्छी है
उससे
मतलब नहीं है ज्यादा
अदद
तो यह है कि
किन
तारीखों में गढ़ी जा रही है वह
और
उस मौसम का मिजाज कैसा है
मौसम
भरा है या खाली विज्ञापनों से
अच्छी-अच्छी
खबरें भी
ठसाठस
भरे विज्ञापनों के बीच
टीसी
से डीसी, डीसी से सिंगल
और
कभी-कभी तो
पन्नों
के बाहर भी हो जाती हैं आसानी से।
यह
भी उतनी ही बुनियादी किंतु सच बात है कि
खाली
मौसम में खबरों की टांग खींचकर
ग्राफिक्स, प्वांइटर, सबहेड, बॉक्स और कार्टून के जरिए
किया
जाता है लंबा
पर
ऐसे दिन कम ही आ पाते हैं आजकल
पन्नों
पर बैठे लोगों को भी पता है
कौन
सा दिन, मौसम है खाली और भरा
जब
उन्हें करनी है कम और ज्यादा मेहनत
मैं
यह पूरे दावे के साथ कह सकता है
हर
खबर की किस्मत होती है
ठीक
उसी तरह
जिस
तरह समाज में किसी के पास
पीला
और नीला राशन कार्ड है
यह कार्ड
उनकी गरीबी,
भुखमरी, लाचारी और बेबसी का सबूत है
अफसोस
की बात तो यह भी है कि
ऐसे
लोगों की खबरों की किस्मत में भी
ऐसे
ही नीले-पीले कार्ड जड़े हैं
कई
दिनों के इंतजार के बाद
लाइन
में खड़े-खडे
या
कि
पेंडिंग
न्यूज की लिस्ट में पड़े-पड़े
खुद
ब खुद दम तोड़ देती हैं खबरें
ठीक
उसी तरह जिस तरह
भूख
से हर दिन दम तोड़ देते हैं बच्चे।
राकेश कुमार मालवीय
=======================
गरीबी का चेहरा
कोई
साठ- बासठ बरस पहले
लगा
था कि दूर होगी गरीबी
चेहरों
पर होगी रौनक
आएगी
खुशहाली
लेकिन
इन साठ-बासठ बरसों में
सिर्फ
चंद बोर्ड ही पहुंच पाए हम तक
दूर
तलक बस उदासी है
देखो
ऐसा
ही होता है
गरीबी
का चेहरा।
राकेश
कुमार
मालवीय
==================================================
दादी होने का मतलब
दादी होने का मतलब
एक बूढी देह भर नहीं है
झुर्रियों के बीच.
आप सोच सकते हो
झुर्रियां उम्र का तकाजा है.
एक सुन्दर चेहरे को बना दिया
कुरूप झुरियों ने
लेकिन
मुझे दिखता है
एक गजब सौंदर्य
दादी के झुरियों भरे चेहरे में .
झुर्रियां ऐसे ही नहीं उभर आई हैं
दादी के चेहरे पर
कितने साल लगाये हैं
तपाया है खुद को
पाला- पोसा
बुआ- पापा को
दादा के जाने के बाद
लड़ी हैं कितनी बार
जीवन संघर्षों में
तब जाकर बन पाई हैं
दादी के चहरे पर झुर्रियां
आप सोचते हो
कैसा भयावह चेहरा है
दादी का झुर्रियों वाला
मैं कहता हूँ
कितनी निखर
उठी हैं दादी
झुर्रियों के बीच .
राकेश
कुमार
मालवीय
१७ नवेम्बर
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