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मेरे बचपन का गणतंत्र और संविधान में लिखा मुल्क




राकेश कुमार मालवीय
हम गणतंत्र दि‍वस की बात सोचकर जितना अपने बचपन में जाते जाते हैं,  यह दिन और खूबसूरत होता जाता है। मैं यह बात भरोसे के साथ कह सकता हूं कि मेरी तरह आपका गणतंत्र भी बचपन में एक छुट्टी का दिन नहीं होता होगा। हमने अपनेअपने दायरों में इसे कुछ यूं मनाया है कि अब सोचकर लगता है इससे खूबसूरत और क्या हो सकता है ?
याद करूं तो मेरे बचपन का गणतंत्र गांव की गलियों से गुजरकर स्कूल के कार्यक्रम और उसके बाद टीवी स्क्रीन आने वाले एकमात्र चैनल दूरदर्शन से राजपथ की आती भव्‍य तस्वीरों से होकर गुजरता था। गांव की धूलभरी सड़कों से राजपथ का चमचमाता रोड गणतंत्र को वास्तव में हमारे भीतर तक वास्तव में समग्रता से उतारता, वह आज की तरह खांचोंखांचों में बंटा नहीं होता।

आज जब हम राष्ट्र शब्द, राष्ट्रवादी शब्द को सुनते हैं तो सोचते हैं कि वास्तव में यह बचपन के मेरे अपने में समाए उस राष्ट्र जैसा या राष्ट्रवादी जैसा है या उससे कुछ अलग हो गया है। मेरे बचपन के गणतंत्र को कोई दो चार पीढ़ी तो न गुजरी पर यह दृश्य इतना तेजी से क्यों बदला जा रहा है?
 
मेरे बचपन का गणतंत्र का दायरा कोई बड़ा तो नहीं था। मुझे लगता था कि यह देश मेरे गांव बराबर तो ही है। मेरा गांव ही मेरा देश है, यह बेहद खूबसूरत है और इसे मुझे और संजानासंवारना है। इसलिए पूरी ताकत लगाते थे कि गणतंत्र को पूरी मेहनत से मनाएं। 

यही तो वह एकमात्र मौका होता था जबकि गांव के एक बड़े मंच पर अपनी कला और अभिव्यक्ति को हम और हमारे जैसे बच्चे पेश कर पाते थे। स्वतंत्रता दिवस तो अक्सर बारिश की भेंट चढ़ते ही पाया। गणतंत्र के मौसम पर हमें ज्यादा भरोसा था, ठंड से तिड़े गालों और बेदर्द सर्दी को हमने अपने उत्साह से हमेशा ही हराया। 

कईकई दिन की तैयारी के बाद यह भी एक परीक्षा होती कि कौन कैसा परफार्म कर पाया। इस परफार्म करने के लिए भाषण, डांस, नाटक, कविता, गीत विधाओं में से किसी का चयन भी आसान नहीं होता। पर क्या तो खूब भाषणों का रटा जाना, रटे भाषण का तो भूलना तय है ही, तो भाषण के बीचोंबीच जाकर अटकना, फिर जेब से पर्चा निकाल कर दोबारा शुरू करना। 

ऐन डांस के वक्त कैसेट में गाने का न मिलना, या गाने का बीच में ही अटक जाना,  नाटक करते-करते जोश में आना और उसकी जोश में कास्ट्यूम का बिखर जाना, कविता कहतेकहते गांव की बिजली का धोखा देना और माइक का बंद हो जाना, या किसी अच्छी प्रस्तुति पर किसी बच्चे के गले में अध्यक्ष महोदय की अपनी फूलमाला का बच्चे को पहना देना अंत में जोरजोर से माइक पर गांव में देशभक्ति गीतों का बजते रहना और इसी बैकग्राउंड में कार्यक्रम की अपार सफलता को अपने सीने पर सजाए आजादी की नुक्ती खाना। आह, मेरे बचपन के गणतंत्र। तुम्हारे जैसा तो कोई नहीं। 

एक उम्र के बाद हम घटनाओं को किसी चलचित्र की भांति पीछे छोड़ आते हैं, पर वह फिजूल तो नहीं होतीं। वह हमें बनाती हैं, हम ही राष्ट्र को बनाते हैं, समाज को बनाते हैं। पर हम देखते हैं कि जो बदला उसने समाज को भी किस तरह से बदला। पहले असुविधाओं में मिलजुल कर काम होते थे ओर उनमें भागीदारी होती थी। अब सुविधाएं तो खूब हैं, हर इंतजाम आसान है, पर उसमें भागीदारी का नया संकट है। 

अब एक कैमरा और सैकड़ों चेहरे नहीं हैं हर चेहरे के सामने एक कैमरा है, वह सेल्फी में इतना आत्ममुग्ध है कि देश का चेहरा क्या बन रहा है ​उसे देखने की फुर्सत ही नहीं है। अब देश में सेनाओं का जोर है, हर समाज की अपनी सेना है और वह अपने मुद्दे पर किसी भी हद तक जाकर कर गुजरने को जुनूनी है। उसे देश की संपत्ति का ख्याल नहीं वह उसे पल में स्वाहा कर देती है। 

वह गणतंत्र जिसे हम बिना किसी भेदभाव के बिना किसी एक खांचे में डालकर केवल और केवल अपने राष्ट्र के लिए मनाते थे, अब उसके मायने कुछ और हैं। किसने और कैसे बदल दी परिभाषा। क्या यही संविधान के निहित मूल्य हैं जो समता और समानता के सिद्धांत की बात करते हुए हर व्यक्ति को अपनी अभिव्यक्ति की पूरीपूरी स्वतंत्रता देते हैं, वह हर वर्ग को संरक्षण, सुरक्षा और न्याय देते हैं ? कैसा विचित्र वक्त है कि देश के सबसे बड़ी न्यायपालिका के माननीय न्यायाधीश प्रेस कॉन्फ्रेंस करने को मजबूर हैं।

मुझे लगता है कि बचपन में जब हम अपने गांव में अपने बचपन का गणतंत्र मनाया करते थे, तब हमें अपने संविधान की इन इन बातों का कोई पूरा-पूरा पता भी नहीं था, पर उसे हम महसूस किया करते थे। अब ऐसा लगता है कि हमें संविधान के बारे में बहुत कुछ पता है, पर ऐसा नहीं लगता कि यह वही मुल्क है जैसा कि संविधान में लिखा है।

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