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News18: रामचरित मानस का अखंड पाठ और हमारी हिंदी

 


राकेश कुमार मालवीय

हमारी पढ़ाई की शुरुआत अनार का आम का पढ़ने से हुई. बचपन में जब कभी रिश्तेदारी में शहर जाना होता, तो उन शहरी घरों की दीवारों पर टंगे अंग्रेजी वर्णमाला के पोस्टर हमें आकर्षित करते थे. अंग्रेजी के अक्षरों से औपचारिक साक्षात्कार पहली बार कक्षा छठवीं में आने पर हुआ जहां पर हमने बड़ी इंग्लिश और छोटी इंग्लिश की वर्णमाला को तीन रोलिंग वाली कॉपी में लिखना सीखा. हमारे जैसी पृष्ठभूमि वाले जाने कितने ही लड़के वंडर आफ साइंस या काउ या महात्मा गांधी का निबंध अच्छे से नहीं रट पाने के कारण आगे की कक्षाओं में नहीं पहुंच सके. अंग्रेजी के उस खौफ ने कभी पीछा नहीं छोड़ा. हमारी अगली पीढ़ी सीधे एबीसीडी पर उतरी. अब यह स्थिति गांवों में भी नहीं है. वहां भी अंग्रेजी अब तकरीबन पहली कक्षा से ही पढ़ाई जाने लगी है, गैर सरकारी स्कूलों में नर्सरी कक्षाओं से. 

अब मैं अपने आसपास के जिन बच्चों के साथ समय गुजार पाता हूं, वहां देखता हूं कि जो समस्या कभी हमारे साथ अंग्रेजी में हुआ करती थी वह अब हिंदी के साथ हो रही है. हिंदी पढ़ने बोलने और समझने वाले परिवारों के लिए हिंदी अब अंग्रेजी सी कठिन लगने लगी है. बच्चे अंग्रेजी में सहज हैं, पर हिंदी में नहीं. यदि हमने उनसे हिंदी में 79 संख्या बोल दी तो वह इसका मतलब अंग्रेजी में पूछने लगते हैं, अंग्रेजी में सेवनटी नाइन बोलने पर ऐसे स्वीकार करते हैं जैसे हमने हिंदी में बोल दी हो. ऐसे और भी तमाम उदाहरण हमें रोज देखने को मिलते हैं. हिंदी में न जाने कितने तरह की गलतियों से हम दो चार होते हैं, उनमें मात्राओं की गलतियां हैं, कहां छोटी मात्रा लगेगी, कहां बड़ी मात्रा लगेगी, बिंदी वाली गलतियां, एक मात्रा की जगह दो मात्राएं लगाने वाली गलतियां, बच्चे इनमें इतने कमजोर हैं जिनके बारे में हम सोच भी नहीं सकते हैं. उनको सुधारने का माहौल भी घर में नहीं है, उनके परिवार में भी मान लिया है कि भविष्य तो केवल अंग्रेजी के रास्ते से ही बन सकता है, यह भावना हिंदी का दुर्भाग्य बन चुकी है. 

लड़ाई हिंदी या अंग्रेजी की नहीं है. भाषाएं कभी एकदूसरे की शत्रु नहीं हो सकती हैं, भाषाओं में भेदभाव और समाज में खड़ा किया गया बडप्पन का भाव जरूर शत्रुत्व जैसा कुछ पैदा कर देता है. मसला सिर्फ इतना है कि किस भाषा में हम बहुत सामान्य और सहज तरीके से किसी ज्ञान को सीख, समझ सकते हैं. मध्यप्रदेश में कोरकू आदिवासियों के एक इलाके में जब मैं घूम रहा था तो मैंने देखा कि वहां स्कूल की दीवार पर उन्होंने हिंदी भाषा के शब्दों को कोरकू में अनुवाद करके लिख रखा था. तो जब भी पढ़ाई होती उन्हें कोरकू भाषा के शब्दों में पढ़ाया जाता. इससे उन्हें दुनिया अपनी सी लगती. वह सहज होकर पढ़ाई करते. यह अलग बात है कि ऐसे प्रयोग बिरले साबित होते हैं. पठनपाठन और अध्ययन का हम ऐसा तरीका अख्तियार करते हैं जो हमें पराया लगता है.

जब सीखने की बात आती है तो हमें याद आता है कि गांव के मंदिर में सावन के महीने में लगातार कई दिन तक रामचरित मानस का अखंड पाठ हुआ करता था. कई बार इनमें रामायण पढ़ने वालों का टोंटा हो जाया करता. अक्सर दिन में क्योंकि लोग खेतों में काम करने चले जाते और महिलाओं के जिम्मे घर के काम होते थे. ऐसे दोपहर के कठिन वक्त में हमें स्कूल से मास्टरजी की अनुमति से उठा लिया जाता था. चूंकि यह पाठ माइक पर बजता था तो हमें विशेष मजा आता. इससे हम और हमारी कक्षा के लड़के   तुलसी की अवधी में रची रामायण खूब अच्छे से पढ़ना सीख गए. जिसका फायदा हमें हिंदी में भी मिला, ऐसे बच्चे जिनकी हिंदी अच्छी नहीं थी, वह भी फर्राटेदार हिंदी सीख गए.,  पढ़ना सीखने का यह तरीका वाकई अदभुत था.

काश ऐसी कुछ परम्पराएं विज्ञान में भी होतीं, या इंग्लिश में कभी रामायण का पाठ हो रहा होता जिससे हमारी इंग्लिश भी वैसी ही हो जाती. या इतिहास की सिलसिलेबार रामायण होती जिसे हम इसी तरह कहीं बैठकर सीख जाते, उसका नाम लेते ही हमें नींद नहीं आने लगती. क्यों हमें अपनी पढ़ाई की किताबें इतनी बोर लगने लगती हैं जिनके नाम से नींद आती है, उनमें रोचकता क्यों नहीं हैं, उनके पढ़ाने में रोचकता का भाव क्यों नहीं है ?

मैंने तय किया कि अपने बेटे के साथ एक बार रामायण पढ़कर देखता हूं कि क्या वाकई उससे वह हिंदी सीख पाने में और हिंदी को सही कर पाने में सफल होता है. मैं देख रहा हूं कि वह इसे बहुत अच्छे से कर पा रहा है. केवल शब्दों के स्तर पर नहीं उसमें लय, भाव और नए शब्दों के प्रति कौतुहल भी लगता है. कथा तो है ही.

जब हम हर बार हिंदी दिवस मनाते हैं और हिंदी की दुर्दशा के प्रति तकरीबन हर साल ही आंसू बहा रहे होते हैं उस स्थिति में हमें खुद ही यह विचार करना चाहिए कि यह समस्या क्यों और कैसे है ? हम हिंदीभाषियों का अपनी भाषा के प्रति यह दोहरा व्यवहार क्यों है. और इसे केवल हिंदी तक सीमित करके नहीं देखना चाहिए, दरअसल यह पूरा मसला अपनी मौलिक भाषा को लेकर है. इसलिए इस दिन केवल  हिंदी ही नहीं अपनी मौलिक भाषा और उपभाषाओं और बोलियों के बारे में भी सोचना चाहिए.

उस देश पर गर्व होना चाहिए जहां पर कि हर 12 कोस की दूरी पर बोली बदल जाने की बात कही जाती है. अकेले मध्यप्रदेश की बात करें तो जनगणना 2011 के अनुसार यहां पर 104 भाषाओं की पहचान हुई थी, यदि इनमें उपभाषा या बोलियों को शामिल कर लिया जाए तो यह 248 हो जाती हैं. इसमें 47 बोलियां हिंदी समूह की हैं, यह केवल एक हिंदी राज्य की स्थिति है.

 

आखिर इतनी विविधता वाला कोई दूसरा देश हो तो बताईये. विविधताओं से भरा खानपान, संस्कृति, आचार विचार, परम्पराएं, रीतिरिवाज, पहनावा, क्या हमें इसका सम्मान नहीं करना चाहिए, क्या हमें इनका संरक्षण नहीं करना चाहिए ? क्या अंग्रेजी को या उर्दू को हिंदी की शत्रु मानकर व्यवहार करना चाहिए, या उसके समानांतर हमें अपनी भाषाओं को समृदध बनाने पर काम करना चाहिए ?

इसलिए जब भी मुझे हिंदी दिवस का ख्याल आता है, मुझे लगता है कि यह सवाल दरअसल अपनी मौलिकता के सम्मान का है, विविधता के सम्मान का है और अजीब बात यह है कि उसे बचाने के लिए कुछ खास काम नहीं हो पा रहा है. हमारा पूरा तंत्र इस विविधता के खात्मे पर आमादा है और बाजार ने तो सभी का खानपान, पहनावा एक जैसा करने में कोई कसर छोड़ी नहीं. कुछ बचता इसे संचार की तरक्की ने और निपटा दिया. हिंदी का दायरा इंटरनेट की दुनिया में निश्चित रूप से बढ़ा है, जो असली संकट है वह तो उस विविधता पर है, जिससे मिलकर भारत बना है.

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