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एक छोटी सी कोशिश बदल देगी तस्वीर

विश्व स्तनपान सप्ताह पर विशेष


संगीता ने शिशु को जन्म देने के तुरंत बाद उसे अपने आंचल में भरा और प्यार की एक झप्पी देकर तुरंत शिशु को अपना दूध पिलाया। यह एक छोटी सी पहल थी। जाहिर है इसमें संगीता को न कोई कष्ट हुआ और न ही इसके लिए कोई बड़ी भारी रकम चुकाई गई। सब कुछ स्वाभाविक तरीके से आराम से होता गया। संगीता मां के दूध की कीमत समझती थी। लेकिन बड़े ताज्जुब की बात है कि यह एक छोटी सी बात प्रदेश की 85 प्रतिशत महिलाएं या तो नहीं जानती या फिर जानती भी हैं तो समाज में चले आ रहे मिथकों को तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं। इसी का परिणाम यह दिखता है कि विकास के हजारों नारों के बीच हमारे प्रदेश के पचास फीसदी से ज्यादा बच्चे कुपोषण के चक्र में फंसे हुए हैं। इस कलंक से मुक्ति पाने का सबसे पहला उपाय यानी पहले घंटे और केवल छह महीने तक मां के दूध का संदेश न तो सरकार और न समाज लोगों तक प्रभावी तरीके से पहुंचा पाया।
 
संगीता खंडवा जिले में पंधाना तहसील के कवड़ीखेड़ा उपस्वास्थ्य केन्द्र भगवानपुरा की निवासी है। यह उनका पहला बच्चा है, जो कि सामान्य डिलेवरी से हुआ। संगीताबाई ने लड़की को जन्म दिया। जन्म के तुरंत बाद शिशु को माँ का दूध पिलाया। लड़की जन्म होने उनके सास-ससुर पति एवं परिवार के सभी सदस्य खुश हुये। संगीता बाई को भगवानपुरा की आशा कार्यकर्ता ताजबी ने जननी एक्सप्रेस वाहन से खंडवा पहुंचाया। संगीता ने गर्भावस्था के समय एएनएम उर्मिला शाह द्वारा बताई गई सभी आवश्यक जांच समय-समय पर करवाई एवं स्वास्थ्य संबंधी समझाईश भी। संगीताबाई ने आयरन की गोलियां भी लीं। अस्पताल से जातेजाते शिशु को सभी टीके भी लगवाये।

यह केस आश्चर्यजनक रूप से आपको इसी समाज में तब आशा की किरण के रूप में नजर आता है ​जबकि सबसे ज्यादा शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर के कारण पूरे देश में बदनाम हो। यह मामला उसी शासन तंत्र से निकलकर सामने आता है जहां की अव्यवस्थाओं को समाज और मीडिया गाहेबगाहे गरियाता है। लेकिन सच्चाई यह है कि भारत जैसे मुल्क में जहां की एक बड़े वर्ग को अब भी इन्हीं सरकारी सस्ती और जनकल्याणकारी सुविधाओं की दरकार है। इस गरियाने का एक पक्ष यह भी सामने आता है कि ऐसी बड़ी, महती और जनहितैषी योजनाओं को बंद कर दिया जाए। लेकिन गंभीरता से सोचने की जरूरत यह है कि यह समस्या का हल नहीं हैं। संभवत: जनस्वास्थ्य से जुड़े ऐसे पहलुओं पर चेतना के स्तर पर काम करने की जरूरत है। लोगों की छोटीछोटी आदतें हैं जिन्हें बदलकर हम आधी बीमारियों को वैसे ही ठीक कर सकते हैं जैसे टीकाकरण, हाथ धोना या पिफर सही समय पर शिशु को स्तनपान।

स्तनपान और टीकाकरण नीरस विषय हैं। समाज के लिए भी और मीडिया के लिए भी। आम लोगों की बातचीत में भी यह मुद्दे कभी-कभार ही शामिल हो पाते हैं। लेकिन मध्यप्रदेश  में बच्चों के स्वास्थ्य के हिला देने वाले आंकड़ों पर गौर करें तो इन दोनों ही महत्वपूर्ण पक्षों पर गंभीरता से काम करने की जरूरत दिखाई देती है, सरकार के स्तर पर भी और समाज के स्तर पर भी। स्तनपान मध्यप्रदेश के साठ प्रतिशत  कुपोषित बच्चों की तंदुरूस्ती में बुनियादी रूप से महती भूमिका अदा कर सकता है, लेकिन यह उतना ही चिंताजनक है कि प्रदेश  में 15  बच्चों को ही जन्म के एक घंटे में यह नसीब होता है, और केवल फीसदी 31 प्रतिशत  बच्चे ही छह माह तक केवल मां का दूध ले पाते हैं। यूनिसेफ की रिपोर्ट कहती है कि देश  में हर दिन 5 हजार बच्चों की मौत हो जाती है, और इनमें से 65 प्रतिशत  मौतें ऐसी हैं जिन्हें रोका जा सकता है। यानी टीकाकरण और स्तनपान बाल और शिशु मृत्यु दर को कम करने में प्रभावी साबित हो सकता है, लेकिन जिस समाज के 28 प्रतिशत लोगों को इसकी जरूरत ही महसूस नहीं होती और 26 प्रतिशत लोग इसके बारे में जानते ही नहीं हैं, वहां बच्चों की मौतें रोक पाना निश्चित ही एक बड़ी चुनौती है। 

राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण की तीसरी रपट के मुताबिक शहरी क्षेत्रों में लगभग पांच प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग चार प्रतिशत बच्चे स्तनपान से वंचित हैं। जनजागरूकता की जब बात आती है तो अक्सर  इसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों को दोषी करार दे दिया जाता है। दरअसल ऐसा है नहीं। प्रसव के आधा घंटे के दौरान स्तनपान के आंकड़े को देखें तो जहां तीस प्रतिशत बच्चों को शहरी क्षेत्र में मां का दूध मिला था वहीं ग्रामीण क्षेत्र में यह शहरी क्षेत्र की तुलना में केवल आठ प्रतिशत ही कम था। यह बहुत बड़ा अंतर नहीं है। विषेषज्ञों के मुताबिक प्रसव के एक घंटे के बाद का समय बच्चे के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है और इस दौरान का स्तनपान एक शिशु के पूरे जीवन के लिए स्वास्थ्य के नजरिए से एक मजबूत बुनियाद रखता है।

सिक्के का एक पहलू यह भी है कि मध्यप्रदेश में सुरक्षित मातृत्व की कोशिशों के तहत संस्थागत प्रसव को बढ़ाकर लगभग 82 प्रतिशत तक लाया गया है। सरकार के इन आंकड़ों पर भरोसा करें तो यह एक आमूलचूल परिवर्तन कहा जा सकता है। लेकिन संस्थागत प्रसव का दूसरा पक्ष यह भी है कि संस्थागत प्रसव के साथ ही सीजेरियन डिलीवरी में भी बड़ा इजाफा हुआ है। इस तरह के प्रसव में जन्म के एक घंटे के भीतर स्तनपान की संभव है, लेकिन उसके लिए हमें अतिरिक्त प्रयासों की जरूरत है।

स्तनपान असल में केवल आहार का विषय ही नहीं है, बल्कि इससे कहीं आगे जाकर मातृत्व, बच्चों की परवरिश और सामाजिक चेतना से जुड़ा मसला भी है। लेकिन इस पूरे परिदृश्य में एक बात तो साफ नजर आती है कि स्तनपान और इससे जु़ड़ी प्रक्रियाओं, सामाजिक सोच, विचार और भ्रांतियों को अपने-अपने स्तर पर दूर करना होगा। लेकिन स्वास्थ्य के नजरिए से यह सवाल इतना आसान भी नहीं लगता। मध्यप्रदेश में रहने वाली 56 प्रतिशत माएं खून की कमी का शिकार हैं, यानी किसी न किसी तरह से बच्चे को उचित मात्रा में दूध पिलाने में वे शारीरिक रूप से पूरी तरह सक्षम नहीं है, ऐसा माना जाता है। लेकिन वैज्ञानिक रूप से तब भी मां थोड़ी सी कोशिश के साथ ही सफल स्तनपान कर सकती हैं। गौर करने वाली बात है कि जब पचास साल की उम्र में मां के वक्षस्थल से दूध की धारा निकल सकती है, तब मां को बेहतर पोषण देकर भी एनीमिक महिलाएं अपने शिशु को बेहतर बुनियाद दे सकती हैं। लेकिन उसके लिए केवल शिशु ही नहीं मां के पोषण का भी खास ख्याल रखना होगा। इसके लिए एक व्यापक रणनीति की दरकार है।   

हमारी प्रवृत्ति हर चीज के लिए जिम्मेदार समूहों पर दोष मथ देने की होती है, लेकिन सामाजिक चेतना के बिना इन तस्वीरों को बदलना बेहद मुश्किल  भरा है। सुरक्षित मातृत्व के मामले में भी समाज का रवैया ठीक ऐसा ही है। तमाम कोशिशों के बावजूद प्रसव प्रक्रियाओं को सुरक्षा के दायरे में लाने की कोशिशें  हुईं, कुछ प्रगति भी कर ली, लेकिन व्यावहारिक रूप से उन परिस्थितियों को नहीं समझा गया जो कि असल में सुरक्षा के नजरिए से बेहद जरूरी है। जन्म के तुरंत बाद शिशु  को गुड़ और शहद चटाने के रिवाजों से अब तक मुक्ति नहीं मिल पाई है। वहीं प्रसव के बाद दो-तीन दिन तक महिलाओं को उचित आहार ने देने जैसे बेतुके  रिवाज अब भी कायम है। अब सवाल यह उठता है कि संस्थागत प्रसव करवा भी दिया, लेकिन उनके दूसरे आयामों को समझे बिना निर्णायक परिणामों की अपेक्षा भी बेमानी है।                                                                                                          
 - राकेश कुमार मालवीय

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