डाकिया बाबा, डाकिया बाबा. सर्दी के दिनों में अक्सर एक खास तरह की टिमकी की ताल और थाली के आवाज का इन्तेजार रहता था. गाँव में हर घर के आँगन में झक लाल कपड़ों में जब डाकिया बाबा गीत सुना सुना कर गोल गोल चक्कर लगते थे तो हम सभी बच्चों के लिए मनो एक अद्भुत आनंद की अनुभूति होती थी. टिमकी, थाली, और पैर में घुंघरुओं की आवाज का संगीत बेहत कर्णप्रिय और दिलचस्प होता था. पुरे गाँव में एक-एक घर जाने में इन्हें तीन-चार दिन का समय लगता. रात में जो लोग भी इन्हें आमंत्रित करते ये पुरे सज और श्रंगार के साथ हाजिर हो जाते. देर रात तक भजन सुनते, नृत्य करते, और इन सब के बदले केवल भोजन करते थे. अब डाकिया बाबा कम ही आते हैं.
हमारे मित्र वीरेंद्र तिवारी जी को इस साल डाकिया बाबा मिले तो उन्हीने इस परंपरा पर बात की. प्रस्तुत है उनकी ही कलम से काठी नृत्य की यह कहानी . राकेश
आधुनिकता के इस युग में लोक कला कभी-कभार ही देखने को मिलती है. हालाँकि भारत देश में अनेक परम्पराओं, रीति-रिवाजों में लोक कला का बोलबाला रहा है। लोक कला प्रेमियों को शासन की उपेक्षापूर्ण कार्य और संरक्षण नहीं मिलने के कारण लोक कलाकारों की प्रतिभाएं आने वाले समय में तो लुप्त ही हो जाएंगी। काठी नृत्य का तो अपना अलग ही महत्व है। परन्तु आधुनिकता के इस युग में लोक कला के कई कलाकार इस लोक कला को जीवित रखने के लिए प्रयासरत हैं.
कहते हैं कला किसी की कद्र की मोहताज नहीं होती. कला को परखने की जरूरत नही. क्योंकि जिस कलाकार के पास कला की पूंजी होती है, वो खुद बा खुद दुनिया के सामने आ जाता है। ऐसे ही कलाकार हैं मध्य प्रदेश के हरदा जिले के हरिओंम मौर और उनके साथी। ये अर्न्तराष्ट्ीय स्तर पर अपनी कला का प्रदर्शन कर संस्कृति और सभ्यता को प्रसारित कर रहे हैं. ब्रिटेन इंग्लेन्ड, फ्रांस, जर्मनी तक की यात्रा कर चुके ये कलाकार सन् 1986 से मध्य प्रदेश की लोक कला अकादमी भोपाल से जुडे है। ये कलाकार भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह का वर्णन अपनी प्रस्तुति में करते हैं. जिसे वाना कहा जाता है. तीन महिने तक चलने वाली यह प्रस्तुति शिवरात्रि पर समाप्त होती है। काठी नृत्य की शुरूआत देवउठनी ग्यारस से प्रारम्भ होकर शिवरात्रि तक चलती है। कलाकार नगर नगर, गांब गांब में अपनी कला का प्रदर्शन करते है और कला के प्रदर्शन के वदले अनाज प्राप्त करते है.
काठी नृत्य के कलाकार नृत्य के दौरान अपनी पारम्परिक विशेष वेशभूषा के साथ भगवान शंकरजी का अर्धनारीश्वर रूप धारण करते हैं, जो मनमोहक लगते है कलाकारों के शरीर के ऊपरी भाग में लाल चौला, गले में हार, हाथ में वाजूबंध सिर पर विशेष तरह की पगड़ी के साथ सिर के ऊॅपर कलगी लगी होती है। कमर के नीचे भाग में घाघरा पहनकर पूरे श्रृंगार के साथ नृत्य किया जाता है। इन कलाकारों के वाद्ययंत्र अनूठे होते हैं, नृत्य करने वाले के हाथ में डमरू और गाने वाले के हाथ में काँसे की थाली होती है, जिसे छोटी डन्डी से वजाया जाता है। एक कलाकार के पास विशेष पोशाक में पार्वती माता का प्रतीक रूप काठी होता है और वाद्ययंत्रों की धुनपर नाचते कलाकार भजनों के द्वारा काठी माता की कथा सुनाते है। काठी माता डेढ़ फिट वोरकी लकडी काटकर लाते हैं उस लकडी में छेदकर उसे बाँस की लकडी से जोडकर लाल कपडे से श्रृंगार किया जाता है। काठी नृत्य की लोक कला को संजोये लोक कलाकार गोंदागांव गंगोत्री तहसील टिमरनी जिला हरदा निवासी हरिओंम मौर्य ने वताया कि हम अनेक प्रान्त सहित बहुत दूर- दूर तक धूमकर आए. विदेश यात्रा भी की. श्रीमौर्य ने बताया कि यह मां पार्वती का स्वरूप है हम भगवान शंकरजी का बाना लेकर तीन महीने तेरह दिन भ्रमण करते है। हम शंकरजी का बाना लेकर नृत्य एवं भजन करते हुए देवउठनी एकादशी से महाशिवरात्रि तक भ्रमण करते हैं.
0 टिप्पणियाँ