भोपाल के रंगश्री लिटिल बैले ट्रुप का सभागार। कम ही होता है कि बिना ज्यादा पब्लिसिटी के दर्शकों का हुजूम उमड़ आना, इतना कि बैठने को जगह मुश्किल पड़ जाए। संभवत: नाटक और नाटक करने वालों से एक जुड़ाव इसकी एक कड़ी बनता है तब तो आज सभागार में नाटक को रचने वाला शख्स ही मौजूद नहीं है। सामने मंच पर एक नहीं दो दो तस्वीरें हैं। नाटक शुरू होने से पहले उद्घोषक इन दोनों शख्सियत के लिए दो मिनट का मौन करवाते हैं। एक तस्वीर है देश के ख्यात रंगकर्मी बंसी कौल और इस नाटक के सहनिर्देशक फरीद बज्मी की। अजीब संयोग है कि रंग विदूषक समूह के इस ख्यात नाटक को निर्देशित करने वाले बंसी दादा के जाने के कुछ समय बाद फरीद भाई ने भी एग्जिट ले ली।
वैसे नाटक के ब्रोशर में
इस नाटक के लेखक का नाम राजेश जोशी लिखा है। संयोग ही है कि राजेश जोशी का घर इस
सभागार से चंद मिनट की दूरी पर है। और उन्हें जब मंच पर दो शब्द कहने के लिए
बुलाया जाता है तो वह इस बात का खुलासा करते हैं कि दरअसल इस नाटक का शुरुआती ड्राफ्ट
फरीद बज्मी ने ही लिखा था। अपनी लंबी यात्रा में यह नाटक खुद में बदलाव करता गया।
एक चीनी किताब को भारतीय लोककथा मानकर तैयार किया गया यह नाटक देश दुनिया के
विभिन्न मंचों पर तकरीबन 140 बार खेला जा
चुका है। किसी नाटक का 140 बार मंचन आसान
नहीं होता। खुद राजेश जोशी ने बताया कि इस नाटक में वक्त के अनुसार परिवर्तन होते
चले गए, लेकिन नहीं बदले तो इस
नाटक के कुछ किरदार। मसलन तुक्कू मियां को ही लें। जब उन्होंने पहली बार इस नाटक
में यह किरदार निभाया था तब उनकी उम्र 39 साल की थी, कमाल है कि यदि
मुझे यह पता न चलता तो मैं कभी यह सोच भी नहीं पाता कि नाटक में अपने अभिनय से जान
फूंकने वाला शख्स जीवन के 74 वसंत देख चुका
है। क्या रंगकर्म इस तरह भी व्यक्ति को सक्रिय रखता है? ऐसे और भी कलाकार हैं, जो एक ही किरदार से अपनी शुरुआत से ही जुड़े हैं, शायद यही कारण रहा होगा कि लगता है नाटक का
निर्देशक तस्वीर से नहीं मंच के किसी कोने से ही कलाकारों का हौसला बढ़ा रहा है।
हम भले ही वैश्विक दुनिया
में आज जी रहे हों, लेकिन स्थानीयता
का रस हमेशा बरकरार रहेगा। यह नाटक फिर से इसी एक बात का स्थापित करता है। भाषा,
किरदार, कलाकारों की नाम, दैहिक गतिविधियों का प्रयोग और उपमाएं देख—सुनकर लगता है कि हमारे ही आसपास का
किस्सा तो चल रहा है। इस नाटक के जरिए भी हमारी यह रवायत देशदुनिया के किन कोनों
तक सहजता से पहुंची होगी। नाटक इस तरह भी भाषा, संस्कृति और देशजपने का दस्तावेज बन जाते हैं। इतने कि कई
बार तो वह नाटक में ही बचे रहते हैं, और उन्हें संरक्षित करने का कोई भान भी नहीं होता तब यह नाटक चुपके से यह
जरूरी काम भी कर जाते हैं।
दूसरा इस नाटक में किया
गया रंगों का अतिरिक्त प्रयोग बहुत ही आकर्षित करता है। मेरे देखे गए अब तक के
सारे नाटकों में यह पहला ऐसा नाटक है जो रंगों की एक कमाल दुनिया में जाता है,
जहां आंखों के सामने से तेजी से रंगों के बिंब
उभरते हैं, जिन्हें देखना अच्छा लगता
है। वक्त के साथ धीरे—धीरे नाटक गंभीर विषयों पर भी कटाक्ष करते हुए आता है,
लेकिन इसके बाद भी नाटक देखते रहने की उमंग बनी
रहती है। संभवत: यह सोचकर ही इसे रंगों से इतना गुथा गया होगा। इसके पीछे शायद
बंसी कौल का वह नजरिया रहा होगा जिसमें वह कहते थे कि लोगों को हंसाना भी मनुष्यता
का एक काम है। इसलिए रंगविदूषक एक गंभीर काम को हंसाते—हंसाते पूरा करता है।
प्रदेश के राजधानी जिसे
अफसरों और बाबुओं का शहर कहा जाता हो, वहां बैठकर नौकरशाही की परतें उघड़ते देखना अपने आसपास जैसा ही लगता है। इसमें
मानवीय मूल्यों के पतन और आम लोगों के विषयों को हाशिए पर जाने और लालफीताशाही के
चरित्र को भी सामने लाता है। जिस सहजता के साथ नाटक खुद में नाटकीयता को सामने
लाता है, वह इसे और दिलचस्प बना
देता है। तुक्कू मियां का तुक्कों के जरिए नवाब बनने का सफर बार बार सामाजिक
विडम्बनाओं और सत्ता की प्राथमिकताओं पर करारा प्रहार करता है। चाटुकारिता के नए
आयाम गढ़ते इस नाटक का संगीत पक्ष अंजना पुरी के संगीत निर्देशन में केवल फिलर की
तरह नहीं होता। संगीत रचना तो नाटक के अंत में इतनी दिलचस्प हो जाती है कि वह खुद
को संवादों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण बना देती है।
हालांकि नवाब का किरदार
अपनी भाव—भंगिताओं में थोड़ा अतिरंजित दिखाई देता है, लेकिन जब अंधेर नगरी में चौपट राजा हो सकता है, तो इस नाटक में नवाब ऐस क्यों नहीं?
राकेश कुमार मालवीय
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