एक—एक संवाद और अभिनय में डूबे रंगनायक पूरी शिद्दत से इसे सामने लेकर आते हैं। खासकर अश्वत्थामा ने अपने अभिनय से इस नाटक को पूरी उंचाई तक पहुंचाया। इसके लिए बालेन्दु भाई और उनकी पूरी टीम और उनकी मेहनत को सलाम करना बनता है।
नाटक देखते हुए यह भी लगा यदि रवीन्द्र भवन के सभागार की जगह यह भारत भवन के अंतरंग जैसे सभागार में खेला जाता तो इसकी पृष्ठभूमि और मंचसज्जा में कई और आयाम गढ़े जा सकते थे। कलाकारों को और खेलने का मौका भी मिल पाता।
नाटक के सेट पर काम किए जाने की और गुंजाइश बनती है, वस्त्रविन्यास में और प्रयोग किए जा सकते हैं, लेकिन यह तय करना तो निर्देशक का अधिकार है। इस नाटक के संगीतकार ने
बेहतरीन संगीत रचना की, लेकिन नाटकों में
रिकार्डेड संगीत मुझे कभी अच्छा नहीं लगता, यह मेरी व्यक्तिगत पसंद भी हो सकती है। मंच के बीचों बीच
सिंहासन के नीचे धुआं निकालने के लिए कोई छुपा हुआ प्रबंध होता तो ज्यादा स्वभाविक
लगता, उम्मीद है कि आने वाली
प्रस्तुतियों में निर्देशक इस बारे में भी गौर करेंगे।
एक बेहतरीन प्रस्तुति के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें।
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