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भोपाल में 'अंधा युग'

धर्मवीर भारती की कालजयी कृति 'अंधा युग' का किसी नाट्य समूह द्वारा अरसे बाद उठाया जाना और अपनी पहली ही प्रस्तुति को दर्शकों का हाउस फुल प्यार मिलना इस मोबाइल युग में शुभ संकेत है। कल जब हम रवीन्द्र भवन के सभागार में 5 बजकर 20 मिनट पर पहुंचे तो सभागार के बाहर टिकट के लिए लगी लाइन भोपाल के समृद्ध रंगमंच का एक बार फिर प्रदर्शन कर रही थी। 

बात नाटक में भी, लेखक धर्मवीर भारती में, भोपाल के दर्शकों में या फिर नाट्य समूह में पर कुछ तो थी जो कल की शाम में कुछ गंभीर रंग भरने वाली थी। हुआ भी ऐसा ही। नाटक निर्धारित समय से 15 मिनट देरी से शुरू हुआ, लेकिन ज्यों—ज्यों यह आगे बढ़ता गया, त्यों—त्यों हमारे जेहन में अब भी उन सवालों को कुरेदता गया, जो कई दशक पहले लेखक के मन में कुलबुलाए होंगे। 


महाभारत की पृष्ठभूमि पर रचा गया यह नाटक विभिन्न पात्रों के अंत:पुर की वेदना को सामने लाते हैं
, युद्ध आखिर इंसानियत को क्या देता है, इतिहास के ऐसे सबकों के जरिए भी आज समाज युद्ध के विरुद्ध खड़े होने के पाठ को पूरी तरह नहीं समझ पाया है। 

एक—एक संवाद और अभिनय में डूबे रंगनायक पूरी शिद्दत से इसे सामने लेकर आते हैं। खासकर अश्वत्थामा ने अपने अभिनय से इस नाटक को पूरी उंचाई तक पहुंचाया। इसके लिए बालेन्दु भाई और उनकी पूरी टीम और उनकी मेहनत को सलाम करना बनता है।



नाटक देखते हुए यह भी लगा यदि रवीन्द्र भवन के सभागार की जगह यह भारत भवन के अंतरंग जैसे सभागार में खेला जाता तो इसकी पृष्ठभूमि और मंचसज्जा में कई और आयाम गढ़े जा सकते थे। कलाकारों को और खेलने का मौका भी मिल पाता। 

नाटक के सेट पर काम किए जाने की और गुंजाइश बनती है, वस्त्रविन्यास में और प्रयोग किए जा सकते हैं, लेकिन यह तय करना तो निर्देशक का अधिकार है। इस नाटक के संगीतकार ने बेहतरीन संगीत रचना की, लेकिन नाटकों में रिकार्डेड संगीत मुझे कभी अच्छा नहीं लगता, यह मेरी व्यक्तिगत पसंद भी हो सकती है। मंच के बीचों बीच सिंहासन के नीचे धुआं निकालने के लिए कोई छुपा हुआ प्रबंध होता तो ज्यादा स्वभाविक लगता, उम्मीद है कि आने वाली प्रस्तुतियों में निर्देशक इस बारे में भी गौर करेंगे।

एक बेहतरीन प्रस्तुति के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें।

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