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कोरकू भाषा को बचाने—अपनाने का एक जतन

मध्यप्रदेश के खालवा ब्लॉक में स्पंदन समाज सेवा समिति की एक पहल, 500 शब्दों वाला शब्दकोष बनाया

राकेश कुमार मालवीय

सीमा प्रकाश दो दशक पहले जब कोरकू आदिवासियों के बीच पहुंचे तो सबसे बड़ी समस्या थी उन्हें समझना और समझाना। कुपोषण जैसे शब्द उनकी समझ नहीं आते थे। इस बात को गहराई से सोचा तो समझ आया कि स्थानीय भाषा के बिना शायद वह इस काम को समझ नहीं सकते हैं। बस यहीं से शुरु हुआ भाषा और संस्कृति को जानने का सफर और इस सफर में बन गया एक शब्दकोष। यह अपने आप में एक अनूठा काम है। 

मध्यप्रदेश के खालवा ब्लॉक की आबादी दो लाख बीस हजार है। इनमें 85 प्रतिशत जनसंख्या कोरकू आदिवासियों की है। यह वह जनजाति है जिनकी संख्या बहुत कम बची है। कोरकू मध्यभारत के महाराष्ट्र एवं मध्यप्रदेश में बोली जाने वाली भाषा है। इसको बोलने वाले मुख्यत: पूर्वी निमाड़, बैतूल, नर्मदापुरम् के कुछ हिस्सों, महराष्ट्र के अमरावती, अकोला और वर्धा में पाए जाते हैं।

सीमा प्रकाश ने डाउन टू अर्थ को बताया कि हमें यह समझ आया कि यदि समस्या है तो इस पर कुछ तो बातचीत भी होगी। कुछ तो समझ होगी। बस हमने वहीं से हमारा ध्यान भाषा के महत्व पर गया। थोड़ी खोजबीन के बाद हमें समझ आया कि कुपोषण को यहां पर शिटि बोला जाता है। जब यह सिरा मिला तो यह समझ बनी कि यदि इनके बीच काम करना है तो हमें समुदाय की भाषा, संस्कृति पर भी उतनी ही बराबरी से काम करना होगा। बस तभी से यह काम शुरू हुआ।

सीमा प्रकाश ने स्पंदन समाज सेवा समिति के जरिए अपने काम को आगे बढ़ाया। स्पंदन समाज समिति 2012 में पंजीकृत हुई। मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में आदिवासियों के साथ स्वास्थ्य, शिक्षा, वनाधिकार, आजीविका के विषयों पर तकरीबन सौ गांवों में काम कर रही है। संस्था ने भाषा और संस्कृति पर भी काम शुरू किया। सीमा प्रकाश कहते हैं कि कोरकू की अपनी कोई लिखित मेनस्क्रिप्ट नहीं है। वह या तो देवनागरी में लिखी जाती है या अंग्रेजी में। यह वह भाषा है जिसे पीपुल्स लैंग्वेजिस्टिक सर्वे आफ इंडिया ने भारत की उन 196 भाषाओं में शामिल किया है, जोकि खत्म होने वाली हैं।

कोरकू आस्ट्रो एशियाटिक मूल की भाषा है और यह झारखंड की मुंडारी से काफी कुछ मिलती जुलती है। इसे नार्थ मुंडा भाषा की श्रेणी में माना जाता है। कोरकू भाषा पर यह संकट देखते हुए  हमें लगा कि इनके दस्तावेजीकरण पर काम किया जाना चाहिए। हमने ऐसे शब्दों को खोजा। कोरकू खुद को मिट्टी से उपजा मानते हैं इसलिए उनके नाम आसपास की वस्तुओं से लिए गए हैं जैसे देवड़ा यानी धान के पीछे, जाबू यानी जामुन के पेड़ के पीछे, कास्डे यानी नदी का किनारा।


 

पर केवल एक डिक्शनरी ही बनाना काफी नहीं था। इसके लिए संस्था ने एक अलग रणनीति अपनाई। संस्था के कार्यकर्ता गांवों में ऐसे लोगों के साथ बैठते जिनकी उम्र सत्तर अस्सी के आसपास थी। वह रात में चर्चाएं करते, उनके गीत गाते, किस्से कहानियां सुनते। जो शब्द आते जाते उन्हें सुनते और नोट करते जाते। ऐसे तरकीबन पांच सौ शब्द इकट्ठे हुए। इनमें कोरकू गीत भी थे और कहानियां भीं। इस काम को करने के लिए संस्था ने उन स्थानीय कार्यकर्ताओं को जोड़ा जो कोरकूओं के बीच ही रहते थे। सुगंधी विश्वकर्मा उनमें से एक है। सुगंधी कहती हैं कि हम बचपन से ही उन लोगों के बीच रहते थे, सुनते थे, पर जब यह काम करना हमारे लिए एक नया अनुभव था।

अगली पीढ़ी में यह कैसे जा पाएं इसके लिए हमने खालवा ब्लॉक की 100 आंगनवाड़ियों में पोस्टर्स, पेंटिंग आदि के माध्यम से उन्हें प्रारंभिक शिक्षा में शामिल किया। अपनी मातृभाषा में शिक्षण का अधिकार संविधान भी देता है। हमने इसी बात को लेकर कोरकू भाषा के जरिए उसे ब्लॉक के पाठ्यक्रम में शामिल करवाने की एडवोकेसी भी की। संस्था को इस काम के लिए स्थानीय समुदाय का बहुत सहयोग मिला। इस काम के लिए वित्तीय सहयोग में नेशनल ज्योग्राफिक का भी बड़ा योगदान रहा।

 जिला शिक्षण प्रशिक्षण ने इसके मानते हुए स्वीकार भी किया और एक पायलट भी शुरू करवाया, पर यह कोशिश ज्यादा परवान न चढ़ सकी। अलबत्ता इस मुहिम के परिणाम यह रहे हैं कि राज्य स्तर पर भी कोरकू भाषा को लेकर काफी काम होना शुरू हुआ है। आदिवासी लोक कला अकादमी ने कोरकू भाषा पर काम करना शुरू किया।  




स्थानीय समुदाय में भी इसके अच्छे परिणाम मिले। इसी समुदाय की सुनीता कास्डे ने बताया कि बच्चों ने जब कोरकू में ही पढ़ना शुरू किया तो यह उनके लिए एक रोमांचक अनुभव था। हमने महसूस किया कि इससे उनके सीखने में सहजता हुई।

कोरकू शब्द और उनकी हिंदी

अबा— दादा

माय— मां

डैई— बड़ा भाई

सनीबोकजई— छोटी बहन

धोनेज लंका— बहुत दूर

गोमेज ओड— पूर्व दिशा

ओटे— पृथ्वी

उनड़ा— गर्मी का मौसम

म्यॉ — एक

अफई — तीन



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