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भाग आठ - इस्लामी आतंकवाद


प्रतीकात्मक तस्वीर
आंतरिक असहमति से उपजे इन आक्रामक एवं हिंसक आंदोलनों के बरस्क एक अन्य हिंसात्मक गतिविधि और विचार पिछले कुछ वर्ष से देश में जारी है जिसे हम आतंकवाद या ज्यादा आक्रामकता से कहें तो इस्लामी आतंकवाद है। सीमा पार से यह हिंसा पहले-पहल जम्मू कश्मीर में विदेशी आतंकवादियों के माध्यम से हमारे यहां प्रविष्ट हुई। यहां इसके लिए जमीन शायद पहले से ही तैयार थी।

वहीं दूसरी ओर सन् 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस एवं सन् 2002 के गोधरा से शुरु हुए गुजरात सांप्रदायिक दंगों ने इसे देश के भीतर तक पहुंचने का रास्ता दिखा दिया। बंबई बम धमाकों ने इसे एक ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया था, जिसकी वजह से भारत के दो मुख्य समुदायों में पहली बार अविश्वास की स्थिति बनी थी। परंतु समय रहते उसे संभाल लिया गया।

विश्व भर में फैले इस कथित धर्म आधारित आतंकवाद की नींव में भी कहीं न कहीं अमेरिका ही है और दूसरी ओर वल्र्ड टेªड सेंटर पर हुए हमले के रूप में किसी एक आतंकवादी घटना में सर्वाधिक अमेरिकी नागरिक ही मारे गए हैं। यदि हम भारत के परिप्रेक्ष्य में भी इस घटना को देखते हैं तो भी इसके विश्वव्यापीकरण के पीछे छुपे दर्शन एवं इतिहास को भी समझना पड़ेगा।

आज सारी दुनिया में इस्लामी आतंकवादी संगठनों को लेकर कोहराम मचा हुआ है। हमारी स्मृति जहां तक लौटती है वह हमें हमें अल-कायदा, लश्करे तैयबा तालिबान, जैश-ए-मोहम्मद, बोको हराम और आई एस आई एस जैसे नृशंस व क्रूर संगठनों, की याद दिलाती है। परंतु क्या यह अनायास ही हो गया, या इसके पीछे विकसित विश्व खासकर अमेरिका की गलतियां थी या स्वार्थ, हम जानते है पिता और बेटे बुश की नीतियों की वजह से कुवैत, इराक, अफगानिस्तान, इरान आदि में छिड़े युद्धों में लाखों निर्दोष नागरिक मारे जा चुके हैं और यह सिलसिला आज भी रुक-रुक कर मगर बदस्तूर जारी है।

यह अमेरिका की तेल पर कब्जे की दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा रही है। ज्ञातव्य है शीतयुद्ध के दिनों में अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए का इस्लाहमी अतिवादी समूहों से जुड़ाव हुआ। सन् 1970 के दशक में उसने सोवियत रूस के खिलाफ पहली बार मुस्लिम ब्रदरहुड का उपयोग किया। यह युक्ति उसके लिए बहुत कारगर सिद्ध हुई।

अफगानिस्तान में रूसी प्रभाव व हस्तक्षेप को समाप्त करने के ख्याल से अमेरिका ने वहीं के तालीबान को हथियारों की आपूर्ति की और दूसरी ओर से सऊदी अरब नागरिक ओसामा बिन लादेन को भी अफगानिस्तान भिजवाया। इसी क्रम में उसने पाकिस्तान की सरकार व अफगानिस्तान की सीमा से लगे इलाके के निवासियों को भी हथियार उपलब्ध करवाए और इस तरह का सशस्त्र संघर्ष प्रारंभ करवा दिया, जिसके तार किसी भी राष्ट्र की सरकार से सीधे जुड़े नजर नहीं आते थे। मगर वास्तविकता तो कुछ और ही थी। यह वास्तविकता 9/11 के बाद जब अफगानिस्तान पर अमेरिका ने सीधा हमला किया और ओसामा बिन लादेन को अपना सबसे बड़ा शत्रु घोषित करने बाद खुलकर सामने आ गई है।

पूर्व ब्रिटिश विदेश मंत्री राबिन कुक ने हाउस आफ कामंस में कहा था कि बिना किसी शक शुबह के यह कहा जा सकता है कि अलकायदा’’ पश्चिमी खुफिया एजेंसियों का उत्पाद है। इसे समझाते हुए कुक ने कहा था, अलकायदा का अरबी में शाब्दिक अर्थ है आंकड़ा’’। परंतु यह मूलतः हजारों इस्लामी कट्टरपंथियों के कम्प्युटर रिकार्ड का नाम है जिन्हें रूस व अफगानिस्तान को हराने के लिए सी आई ए ने प्रशिक्षित किया और सऊदी अरब ने धन प्रदान किया।

अनेक दस्तावेजों से यह बात सामने आई है कि आई एस आई एस के सभी वरिष्ठ सदस्य अमेरिका द्वारा इराक में संचालित युद्ध बंदी शिविरों की काउंसिलिंग से गुजर चुके हैं। अलकायदा की ही तरह अमेरिका ने आईएसआइएस को भी अप्रत्यक्ष रूप से तैयार करने का उद्देश्य है कि मध्य एशिया (मिडिल ईस्ट) को बांटकर उसके तेल भंडारों पर अप्रत्यक्ष प्रभुत्व, सीरिया की सरकार को गिराया जा सके और इरान पर दबाव बनाया जा सके। इस प्रक्रिया में उसने अपने यहां शैल तेल के उत्पादन में असाधारण वृद्धि कर दुनिया भर में तेल की कीमतें गिरा दीं। जिसका सर्वाधिक खामियाजा रूस, ईरान व वेनुजएला जैसे देशों को भुगतना पड़ रहा है जो कि घोषित तौर पर अमेरिका के साथ नहीं हैं।

भारत व चीन जैसे देश ऐसी गंभीर परिस्थिति में बीच-बचाव करने के बजाए अपने राष्ट्रहित के नाम पर चुप्पी साधे हुए हैं। लेकिन अमेरिका व मित्र देशों की यह अनैतिक आक्रामकता भविष्य में खतरनाक सिद्ध हो सकती है।

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