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भाग 16 - महिलाओं के विरुद्ध समाज में बढ़ती आक्रामकता


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इस लंबी होती फेहरिस्त को कहीं तो विराम देना ही होगा। इस आलेख के अंत में आक्रामकता या मिलिटेंसी के सबसे भयावह स्वरूपों में से एक, महिलाओं के विरुद्ध समाज में बढ़ती आक्रामकता पर ध्यान दिलाना चाहता हूँ। वैसे यह कारण अपने आप में अलग विमर्श की दरकार रखता है।

महात्मा गांधी ने एक बार कहा था, ''स्त्री को अपना मित्र या साथी मानने के बदले पुरुष ने अपने को उसका स्वामी माना है। पुराने जमाने का गुलाम नहीं जानता था कि उसे आजाद होना है या कि वह आजाद हो सकता है। औरतों की हालत भी आज कुछ ऐसी ही है। जब उस गुलाम को आजादी मिली तो कुछ समय तक उसे ऐसा मालूम हुआ, मानो उसका सहारा ही जाता रहा।'' इस कथन के करीब 75-80 वर्ष पश्चात भी स्थितियों में जितना बदलाव आना था वह नहीं आ पाया।

मध्यपूर्व एशिया का एक हिस्सा तो पुनः मध्ययुगीन बर्बरता की ओर लौटने लगा है। भारत जैसे देशों में बलात्कार व दहेज यातना एवं हत्या के मामले रो

प्रसिद्ध फ्रांसीसी विचाक सिमोन द बुआ ने ठीक ही कहा था कि ''स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है।'' वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह बात एकदम ठीक बैठती है। यदि हम अपने में से आधों के साथ हिंसक या अस्वाभाविक व्यवहार करते हैं तो विश्व में शांति की कल्पना कैसे की जा सकती है ? स्त्रियों पर अत्याचार करने वाले भले ही इसे घरेलू या समाज के भीतर की हिंसा मानते हुए स्वयं ही इसके निपटारे का दंभ भर रहे हो, लेकिन हम सब जानते हैं कि अनादिकाल से महिलाएं ही हिंसा व पुरुष एवं पुरुषवादी पितृसत्तात्मक हिंसा की आक्रामकता का शिकार होती रही हैं। इक्कीसवीं सदी में भी यह आक्रामकता जारी है।

इस आक्रामकता या मिलिटेंसी से निपटने के समाधान भी आक्रामकता के कारणों में ही छुपे हुए हैं। पिछली पांच शताब्दियों में यह परिवर्तन आया है कि दुनिया धीरे-धीरे लूटने वालो से चूसने वाले शोषकों में बदल गई। लूटने वाला तो अपना कार्य करके चला जाता था, लेकिन औपनिवेशिक काल के उदय ने चूसने वाले वर्ग को सम्मान देकर उसे प्रतिष्ठित कर दिया। क्रूरता के नए रास्ते ढूंढे जाने लगे।

अमेरिका मे 9/11 के हमले के पांच दिन बाद 16 सितंबर को न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा था, ''पाकिस्तान से यह मांग की गई है कि वह अफगानिस्तानी नागरिकों के लिए भेजे जा रहे खाने के सामान और दूसरी चीजों के ट्रकों के कारवाँ को फौरन बंद करे और ईधन की आपूर्ति में कटौती करे।'' क्या स्वनिर्मित संकट का जवाब इस तरह दिया जाना चाहिए ? इसके बाद कठिन सफर करके जो शरणार्थी पाकिस्तान की सीमा पर पहुंचे तो उन्होने बताया, ''उनके वतन में अमेरिकी हमलों के खतरे ने हताशा और खौफ का वातावरण बना दिया है और उनकी दरिद्रता को संभावित विनाश में बदल दिया है।'' इन दो वक्तव्यों में समस्या और समाधान दोनों ही छुपे हैं।

आक्रामकता को एक गुण मामले की हठधर्मी के चलते हमारी सभ्यता का सामने यह संकट खड़ा हुआ है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन् 2015 की अन्तर्राष्ट्रीय मिट्टी वर्ष घोषित किया है। हम जानते है कि मिट्टी की ऊपरी सतह की एक इंच तैयार होने में तकरीबन एक हजार वर्ष लगते हैं और हमने पिछले 80 वर्षो मे इसे कमोवेश बंजर बना डाला है। ठीक वैसा ही हम अपने सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक क्षेत्र में कर रहे हैं। अत्यधिक प्रतिस्पर्धा के चलते हम उसकी उर्वरता समाप्त करते जा रहे हैं। पहले यह प्रतिस्पर्धा राष्ट्रों के बीच होती थी। अब गुजरात व मध्यप्रदेश जैसे राज्यों के बरास्ता/स्मार्ट शहरों की स्थापना की होड़ में बढ़ती ही जाएगी। वैसे इसकी शुरुआत हम आदर्श ग्राम योजना के रूप में कर भी चुके हैं।

जहां तक आक्रामकता के समाधान का प्रश्न है, यह सीधे-सीधे हमारी विकास की अवधारणा से जुड़ा है। पिछली शताब्दी में लोकतंत्र से जो उम्मीदें की गई थीं दुर्भाग्यवश वह पूरी नहीं हो पाई। शासक वर्ग की हठधर्मिता भी समाधान की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। नया लोकतांत्रिक तंत्र भी अहिंसात्मक प्रतिरोध का सम्मान नहीं करता। नर्मदा बचाओ आंदोलन पिछले तीन दशकों से नर्मदा घाटी में बन रहे बांधों में बटती जा रही अनियमताओं को लेकर गांधीवादी तरीके से संधारित है। परंतु सरकारें मनमानी पर उतारु हैं और न्यायालयीन निर्णयों की मनचाही व्याख्याएं कर रही हैं। यदि असहमति के बावजूद चर्चा जारी रखी जाए तो आज नहीं तो कल समाधान निकल सकता है। ठीक यही स्थिति 14 वर्षो से अनशन कर रही इरोम शर्मिला के संबंध में भी कही जा सकती है। सुनवाई न होना ही अंततः आक्रामकता को जन्म देता है।

वैसे इस समस्या के समाधान का रास्ता दो महाद्वीपों अमेरिका एवं एशिया के हमारे दो मूल निवासियों ने सुझाया है। इन दोनों ने अपने अपने राष्ट्र/राज्य प्रमुखों को पत्र लिखा था। अमेरिका के रेड इंडियन समुदाय के प्रमुख सिएथल ने एक पत्र तत्कालीन अमेरिकी प्रमुख को सन् 1852 में लिखा था। इसके करीब 142 वर्ष पश्चात सन् 1994 में पश्चिमी मध्यप्रदेश के मूल निवासी (जनजाति) समुदाय के प्रमुख बाबा महरिया ने एक चिट्ठी (जिसे नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने लिपिबद्ध किया था।) मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को लिखी थी।

ये दोनों पत्र मानव विकास के अनूठे दस्तावेज हैं। ये सिर्फ पत्र नहीं बल्कि वह दर्शन है जिससे कि हम अब भी अपनी इस खूबसूरत सृष्टि को अपनी अगली पीढ़ी को सौपने में सहायक होंगे। आप भी समय निकालकर इनका अध्ययन करें और समाधान की राह में कदम बढ़ाए।

ज बढ़ रहे हैं। महिलाओं की खरीद फरोख्त व वेश्यावृति के मामले कम होने का नाम ही नहीं ले रहे। वहीं फिल्मों और विज्ञापनों में स्त्री देह का उधेड़ना उसकी आत्मा व आत्मविश्वास पर चोट करने जैसा है।


समाप्त

आभार : चिन्मय मिश्र, जिन्होंने अपने इस लंबे दस्तावेज को पटियेबाजी पर प्रकाशित करने की सहर्ष अनुमति दी। 

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