राकेश कुमार मालवीय
पाकिस्तान हुकूमत ने पेशावर में स्टार कलाकार दिलीप कुमार और राज कपूर साहब के
उजाड़ घरों को संवारने कदम बढ़ाने की खबर के बाद खंडवा से मांग उठ रही है कि हर
दिल अजीज कलाकार किशोर कुमार के घर को भी मुकम्मल तवज्जो दी जाए। खंडवावालों की
तमन्ना जायज है। जब पाकिस्तानी सरकार फिल्मी सितारों के घरों को खासमखास मानते हुए
पहल कर सकती है तो क्या हम अपनी ही जमीन पर उतने ही बड़े एक कलाकार की विरासत नहीं
बचा सकते। मध्यप्रदेश के खंडवा में बाम्बे बाजार स्थित गौरीकुंज उर्फ गांगुली हाउस
की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है, जिसमें किशोर दा
पैदा हुए, पले—बढ़े, एक कलाकार बने। क्या एमपी की सबसे अजब, सबसे गजब सरकार इस राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय
महत्व के स्थान को यथोचित सम्मान देगी ?
खंडवा को तीन दादाओं के लिए खासतौर पर जाना जाता है। इनमें एक हैं धूनीवाले
दादा। धार्मिक—अध्यात्मिक नजरिए से धूनीवाले दादा का धाम आस्था का बहुत बड़ा
केन्द्र है। दूसरे दादा हैं पंडित माखनलाल चतुर्वेदी। बाबई में जन्मे राष्ट्रकवि
दादा का मन भी खंडवे में ज्यादा लगा। इसे उनकी कर्मस्थली कहते हैं। और तीसरे दादा
हैं हमारे आभास गांगुली जो किशोर दा के नाम से आज भी गांव—शहर—गली—गली
टीवी—रेडियो—मोबाइल पर देखे—सुने जाते हैं।
किशोर दा के पिता कुंजीलाल गंगोपाध्याय गांगुली पश्चिम बंगाल से इस शहर में आए,
या यूं कहें उन्हें बुलाया गया वकालत के लिए।
वकालत खूब जमी, यहीं उन्होंने
बॉम्बे बाजार में घर बनाया। कुंजीलाल और गौरा देवी के घर में जन्म लिया किशोर दा
ने। खंडवा शहर की गलियों में वह घूमे, बड़े हुए। उनके दूध—जलेबी खाने के किस्से अब भी उन्हीं दुकानों पर ताजे
हैं।
खंडवा शहर से किशोर दा का प्यार बॉलीवुड जाकर भी खत्म नहीं हुआ। अपनी मृत्यु
के कुछ समय पूर्व ही उन्होंने यह लिख दिया था कि मेरी मौत चाहे जहां भी हो,
पर शरीर तो खंडवा ही ले जाया जाए, अंतिम यात्रा बैलगाड़ी पर निकले और अंतिम
संस्कार वहीं हो जहां उनके माता—पिता का किया गया था। वैसे तो मुंबई से उब चुके
किशोर खंडवा में ही अंतिम वक्त बिताना चाहते थे, लेकिन इससे पहले ही मौत ने अचानक उन्हें चूम लिया, और फिर वैसा ही किया गया जैसा कि वह चाहते थे।
खंडवा ने अपने आभास गांगुली को भरे दिलों से विदाई दी । इंदौर रोड उनकी यादों का
किशोर स्मारक भी बनाया गया, यहां जन्मदिन और
पुण्यतिथि पर साल में दो बार कार्यक्रम भी होते हैं, लेकिन, लेकिन, लेकिन उनका घर अब भी उपेक्षा का शिकार है।
किशोर दा की मृत्यु को तकरीबन 34 साल हो गए। इन 34 सालों में उनके
घर को स्मारक में तब्दील नहीं कर सके। ऐसा नहीं है कि किशोर दा के साथ ही ऐसा
उपेक्षा भरा बर्ताव रहा हो। खंडवा में माखनलाल चतुर्वेदी के घर का भी ऐसा ही हाल
है, बाबई में जहां वे जन्मे
वहां उनके परिजन रहते हैं, लेकिन उस घर की
भी घोर उपेक्षा है, तकरीबन सौ बरस से
भी ज्यादा के हुए जा रहे इस मकान की हालत अब ऐसी नहीं है कि उसके अंदर भी जाया जा
सके। प्रवेश तो खैर सुरक्षा के नजरिए से बंद है ही। एक दो बार स्थानीय प्रशासन ने
इस घर को तोड़ने की कार्रवाई भी शुरू की, लेकिन हर बार खंडवा के किशोर प्रेमी सामने आकर खड़े हो गए। पर सवाल यह है कि
इस ऐतिहासिक घर को इस हाल में पहुंचने ही क्यों दिया गया ? इसी शहर में किशोर दा
ने खुद एक सभागृह अपने मां और पिता की याद में बनवाया था गौरीकुंज सभागृह, मकसद था, युवा प्रतिभाओं, कलाकारों को मंच देना, पर वह भी
उपेक्षित है। शासकीय संगीत कॉलेज बना, तो लोगों ने उसे किशोर के नाम पर करने की मांग की, पर यह अब तक अधूरी है।
उपेक्षा केवल किशोर दा की विरासत से हो ऐसा नहीं है, अब तक के सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की
जन्मस्थली जमानी का भी ऐसा ही हाल है। मप्र के ही होशंगाबाद जिले में स्थित इस
गांव में चबूतरे पर पत्थर के सिवाय कुछ नहीं है, वह पत्थर भी कुछ गैर सरकारी प्रयासों के बदौलत। गांव में एक
पुस्तकालय तक नहीं हैं, जहां बच्चे अपने
बुजुर्ग की व्यंग्य रचनाएं ही पढ़ लें। सतपुड़ा के घने जंगल, उंघते अनमने जंगलों वाले भवानीप्रसाद मिश्र के
गांव टिगरिया में भी ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां बैठकर उनको याद कर सकें। जिस
अध्यात्मिक गुरु आचार्य रजनीश ओशो का दुनियाभर में डंका बजा उनकी जन्मस्थली
कुचवाड़ा भी ऐसी ही उपेक्षा का शिकार है। क्या यह वह नाम नहीं हैं, जिनकी वजह से इस एमपी को जाना जाना चाहिए,
और जो अभी हाल ही के सालों में हुए हैं,
लेकिन सरकार इनकी भरपूर उपेक्षा करते आई है।
एक पेंच ऐसे घरों पर मालिकाना हक का हो सकता है ! ऐसी संपत्तियों पर निश्चित
रूप से उनके परिवार का पहला होगा ही, इस पर वाद—विवाद हो सकते हैं, लेकिन संवाद के
जरिए उन्हें सुलझाया भी जा सकता है, कहा जा सकता है यह निजी नहीं साझी विरासत है, इसलिए क्योंकि जब कोई व्यक्ति अपनी लोकप्रियता को आकाश के
स्तर तक छू लेता है, तब वह केवल
परिवार का ही तो नहीं रहता, वह समाज, देश का हो जाता है। ऐसा संरक्षण करने में यदि
अधिग्रहण का सहारा भी लेना पड़े तो सरकार को करना ही चाहिए, लेकिन सहमति से किया गया काम तो सर्वश्रेष्ठ होता ही है।
उसके लिए अपनी विरासत के प्रति एक संवेदना का कोना मन में होना चाहिए।
महसूस कीजिए उन कुछ जगहों को जहां कि हम जा पाते हैं, और उन ऐतिहासिक पलों को वर्तमान में खुद महसूस कर पाते हैं,
ऐसा किसी भी आभासीय माध्यम में संभव नहीं होता।
गांधी के सेवाग्राम आश्रम में भी एक पल को इतिहास अपने में वापस लौटता है, गांधी की उस विरासत को ठीक उसी रूप में अपनी
सीधी आंखों से देखना वास्तव में एक सुखद अनुभूति होता है। ऐसी अनुभूति हम उन सभी
इतिहास पुरुषों के साथ क्यों न करें। किशोर कुमार
उनमें एक हैं, रजनीश उनमें एक
हैं, माखनलाल उनमें एक हैं।
जब पाकिस्तान की सरकार हिंदुस्तानी कलाकारों की विरासतों के लिए संजीदा हो
सकती है तो हम अपने कलाकारों की सरजमीं के लिए हिम्मत क्यों नहीं जुटा सकते ? आईये
शुरू करते हैं, किशोर कुमार के
गांगुली हाउस को संजोकर दुनिया को बताते हैं कि हमें वास्तव में अपने लोगों को
सम्मान देना आता है।
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