Photo : Gagan Nayar (AFP) |
राकेश कुमार मालवीय
देश में कोविड केस ढाई करोड़ तक पहुंचने वाले हैं, ढाई लाख से ज्यादा घोषित मौतें हो चुकी हैं, महामारी अभी थमी नहीं है, फिर भी ताज्जुब है कि हम एक देश होकर नहीं लड़ रहे हैं ! महामारी को हराने से ज्यादा अपनी—अपनी
राजनीतिक आस्थाएं हावी हैं। नागरिकों को बचाने से ज्यादा नेताओं की छविओं को
बरकरार रखे जाने की चिंता है और इसीलिए अपने—अपने तर्क गढ़े जाते हैं, इल्जाम एक दूसरे पर उछलते रहते हैं। किसी सवाल के जवाब में एक दूसरा सवाल
उछालकर पहले सवाल को दबाने की भरपूर कोशिश चल रही है। नागरिक केन्द्र और राज्यों
की सीमाओं में बंधकर परिस्थितियों को देख—सुन और अभिव्यक्त कर रहे हैं, और इस बीच यह बात लगभग भूल जाते हैं कि यह एक देश की कहानी है, और इस वक्त पूरी दुनिया इस देश की उन तस्वीरों को देख रही है जो हमारे लिए
बेहद शर्मनाक हैं। हमारी ‘विश्वगुरू’ की छवि से बिलकुल जुदा हैं।
हमने बड़े संकटों के समय हमेशा पूरे देश को एक होकर लड़ते देखा है। खासकर जब
कोई विदेशी ताकत भारत माता की तरफ आंख उठाकर भी देखती है तो पूरा देश भरपूर ताकत
से उस पर हमला करता है। हर किसी भारतीय में अभूतपूर्व देशप्रेम भावना के दर्शन
होते हैं। कोई प्राकृतिक आपदा आती है तब भी हम उससे हुए नुकसान की भरपाई में जी
जान से जुट जाते हैं, जख्मों को भरने की कोशिश करते हैं। यह भी ख्याल
नहीं आता कि अमुक इलाके में किसकी सरकार है ? वह करगिल का युद्ध हो या भूकंप की विभीषिकाएं। पर बीते दस
बीस सालों में परिस्थितियां बदली हुई दिखाई दे रही हैं। महामारी के संकट में यह
भावना न जाने कहां खो गई है, जबकि यह तो वैश्विक संकट है! और कोविड की दूसरी
लहर तो भारत में कहर बनकर टूट रही है।
हालात यह हैं कि रिकार्ड केस के अनुपात में हमारी स्वास्थ्य व्यवस्थाएं सबका
इलाज कर पाने में नाकाम साबित हो रही हैं। हम निश्चिंत थे, दूसरी लहर का अंदाजा
लगाने में विफल साबित हुए। हालांकि महामारीविदों ने बताया था कि किसी भी महामारी
में दूसरी—तीसरी लहर तो आती ही हैं,
इसके बावजूद हम हर स्तर
पर तैयारियों में कमजोर पड़े हैं,
लेकिन क्या हम इसी बात को
लेकर इल्जामों की फुटबॉल खेलते रहें या एक नागरिक के रूप में अपनी भूमिकाओं को
निभाने की कोशिश करें। देश को बचाने की आवाजें कहां हैं, वह देश बचा रही हैं या अपनी—अपनी पार्टियों को बचाने में लगी हैं ! अब जबकि
अभिव्यक्ति के तमाम अवसर हर व्यक्ति के हाथ में हैं, वह आवाजें इतने खांचों
में बंटकर क्यों आ रही हैं ?
ये बताईये कि कोरोना कहां नहीं है ? कोरोना दिल्ली में भी है, महाराष्ट्र में भी है, पंजाब में भी है, एमपी में है, यूपी में है, तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल में
भी है। राज्य में अलग—अलग दलों के नेतृत्व वाली सरकारें हैं, लेकिन केन्द्र में तो एक ही पार्टी है न ! देश तो एक ही है न ! और यदि कोई एक
पार्टी ड्राइविंग सीट पर है तो दूसरी पार्टिंया भी तो उसी जीप पर सवार होती हैं, लोकतांत्रिक व्यवस्था में वह भी किसी अच्छे या बुरे के लिए उतनी ही जिम्मेदार
होती हैं, कम सीटें आने से, या हार जाने से क्या वह
जिम्मेदारी से बाहर हो जाती हैं ? कतई नहीं। उनका भी उतना ही महत्वपूर्ण रोल होता
है। लेकिन पक्ष की भी जिम्मेदारी है कि वह सभी को साथ लेकर चले, और सही रास्ता दिखने वालों का स्वागत भी करे !
होना तो यह भी चाहिए था कि इस मुसीबत से लड़ने के लिए सारे राजनीतिक दल एक
होते, एक छत के नीचे बैठकर तय करते, सर्वदलीय बैठकों के
माध्यम से पूरे देश को एक संदेश दिया जाता कि हम भले ही एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी
हैं, लेकिन इस मुसीबत का सामना हम एक होकर करेंगे, पर ऐसा हो नहीं पाया, बल्कि ऐसे सुझावों को भी साफ मन से नहीं सुना
गया।
इस साल सभी राज्यों ने तालाबंदी को बहुत ही अच्छे तरीके से लागू किया है, हमें
याद आता है पिछले साल सड़कों पर हजारों लोगों की अनचाही भीड़ थी, विपक्ष की ओर से
पिछले साल भी ऐसा एक सुझाव आया था कि तालाबंदी को ऐसे ही लागू किया जाना था जैसे
कि अब हो रही है, अर्थव्यवस्था की सुनामी को लेकर भी विपक्ष आगाह करते रहा, और देश
एक अभूतपूर्व संकट से गुजरा, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पत्र लिखकर अपनी ओर
से कुछ सुझाव दिए, पर उन्हें अपेक्षित
सम्मान नहीं मिला, यह कुछ बातें विपक्ष को ऐसी पहल करने से निश्चित ही रोकती
होंगी, लेकिन जीवन मरण के सवालों पर ऐसे कठिन वक्त में सभी को अपनी निहित
अपेक्षाओं को एक तरफ रखना ही होगा। वास्तविकताओं को हम जब तक अपने—अपने कारणों से
अनदेखा करते रहेंगे तब तक हमारे विकास का यह गुब्बारा यूं ही फूलता रहेगा और एक
दिन सुईं की नोंक से पिचक जाएगा।
सोचना होगा कि केवल शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व ही नहीं हम 130 करोड़ नागरिक इस मुल्क के लिए क्या कर सकते हैं। स्वयंसेवी संस्थाएं और आन्दोलन क्या योगदान दे सकते हैं ?
यदि हम केवल कोविड प्रोटोकाल का पालन कर लें, अपने—अपने परिवार बचा लें, अपना अड़ोस—पड़ोस बचा लें, अपना गांव ही बचा लें, तो क्या किसी महामारी की हिम्मत है कि वह हमें यूं अस्त—व्यस्त कर पाए ! कोई
महान काम तो नहीं करना है ! और ऐसा भी नहीं है कि हम इसे कर पाने में अक्षम हैं। या
हमारे पास कोई सपोर्टिंग सिस्टम नहीं है। अथवा महामारी इतनी विकट है कि उसे थामा
ही नहीं जा सके, जरा यह देखिए कि हमने इस
महामारी को फलने—फूलने में कितना योगदान दिया है। उम्मीद रखिए, यह समाज इतना कठोर नहीं है कि वह संकट के समय में मदद नहीं कर पाए, या गरीबों को भूखा मरते देखता रहे। यह सब संभव है, लेकिन तब जबकि हम एक देश के रूप में युदध की तरह लड़ेंगे।
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