मेरे घर के पास की भोलानगर बस्ती में दिवाली के पहले की बर्बादी आई। विकास करते रायपुर में इनके लिए जगह नहीं है, सुंदर शहर के लिए इनका बेदखल होना बेहद जरूरी है। सफाई वाली बाई, रोटी वाली बाई, रिक्शा वाला भाई ऐसे कई लोग जो हमारी जिंदगी से उतना ही वास्ता रखते हैं जितना कि हम उनसे, फिर भी शहर तीसरी दुनिया के लोगों को अपने में पनाह देने की इजाजत नहीं देता। हमारी नीतियां इन्हें इंसान नहीं एलियन मानती है और उसी तरह इन्हें शहर से दूर ले जाकर पटक देती है। जो इंसान हैं उनके लिए नियम कायदे बदल जाते हैं। जब भी इस रास्ते से निकलता हूं लगता है दिवाली नहीं सुनामी आई। लोग इनमें से बची—खुची ईंट—लकड़ियां बीन रहे हैं, शायद नए आशियाने में कुछ काम आ सके।
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