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क्योंकि वे आदिवासी हैं

कोई एक दो नहीं, दस दिन में 19 मौतें रिकॉर्ड पर थीं। अगले दो दिनों में चार बच्चों की और मौतें। कुल मिलाकर 23 आदिवासी मरे थे। तीन महीने पहले 30 और लोग मारे गए थे। मौतों में थोड़ा फर्क जरूर था, लेकिन कॉमन बात थी सभी वक्त से पहले मरे। पहले वाले डायरिया से, दस्त से बीमारी से और दूसरे वाले नक्सलियों की गोली से। दोनों में बड़ा फर्क यह था कि एक में तो मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और रातोंरात पहुंचने वाले राहुल गांधी ने पहुंचकर मरहम लगाने की कोशिश की और दूसरे वाले मामले में किसी ने अफसोस जताना तक मुनासिब नहीं समझा।

मीडिया के पन्नो पर कहीं दुबली—कुचली सी यह खबर हमारे समाज की उस खाई से वाबस्ता कराती है जिसे भरने का सपना हमने 66 साल पहले देखा था। पर बस्तर के जंगलों में रहने वाले लोगों के लिए इन 66 सालों में क्या कुछ बदला। कुछ नहीं, इन 23 मौतें के बाद भी हमारे कर्ताधर्ताओं की चुप्पी बताती है कि वह बोलते वहीं हैं जहां मुद्दा बने, जहां वोटों की राजनीति चले। राजनीतिक चेतना और आदिवासियों के प्रति संवेदनशून्य होते जाने ने इन दो दशकों के सवालों को और भी हवा दी है। हम यहां बिलकुल राज्य या केन्द्र के दोषारोपण वाले झमेले में नहीं पड़ना चाहते बल्कि हकीकत तो यही है कि सत्ता किसी की हो जब भी हमने विश्लेषण भरी दृष्टि से देखा तो हाथ में केवल निराशा ही हाथ लगी है। यही कारण है कि ​जब नक्सल हमले में एक पार्टी का शीर्ष नेतृत्व गोलियों का शिकार होता है तब पूरा देश हिल जाता है और आदिवासियों की जान की कीमत को समझा ही नहीं जाता। 

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1 टिप्पणियाँ

Madan Mohan Saxena ने कहा…

बहुत उत्कृष्ट अभिव्यक्ति.हार्दिक बधाई और शुभकामनायें!
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |सादर मदन

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