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राकेश कुमार मालवीय
यह एक चौंकाने वाली खबर थी. सरकारी जांच दल जब एक बंगाली डॉक्टर
के दवाखाने पर कार्रवाई के लिए पहुंचा तो गांव उसके पक्ष में खड़ा हो गया. जांच दल
को अंदर जाने से रोक दिया गया. गांववाले क्लिनिक घेरकर खड़े हो गए. ऐसा कम ही होता
है जब किसी डॉक्टर के पक्ष में गांववाले खड़े हो जाएं. डॉक्टर वो भी ‘बंगाली’ जिन्हें
मध्यप्रदेश और देश के दूसरे हिस्सों में नीम—हकीम या झोलाछाप माना जाता है.
उनकी डिग्री संदिग्ध होती है, वह किसी दूरदराज के गांव
में अपना धंधा जमाते हैं। पुलिस बुलाई गई और फिर पुलिस की मौजूदगी में दवाखाने के अंदर
जाया गया. दवाखाने के अंदर तकरीबन पांच लाख रूपए की दवाईयां पाई गईं. यानी एक पूरा
मेडिकल स्टोर डॉक्टर के घर में था, जिसमें छोटे—मोटे आपरेशन करने वाले औजार तक
शामिल थे. यह और भी हैरान करने वाला था. अमूमन इतनी ज्यादा दवाईयां क्लिनिक में नहीं
पाई जाती हैं. इससे पता चलता है कि डॉक्टर के पास बहुत ज्यादा संख्या में मरीज आते
रहे होंगे.
जिंदगी से खिलवाड़ या जिंदगी का जुगाड़
यह गांव एक ऐसी भौगोलिक परिस्थिति में मौजूद है जहां कि शहर
की सड़क आकर खत्म होती है और जंगल के लिए पगडंडी शुरू होती है. यह जंगल और शहर के ठीक
बीच में बसा होता है. सरकारी सुविधाएं और सेवाएं यहां टुकड़ों में पहुंच पाती हैं.
इसके बावजूद सब चलता रहता है. लोग चुनौतियों के बीच जीते रहते हैं. यहां जिंदगी और
मौत फटाफट क्रिकेट की तरह होती है, जहां खेलते रहना ही नियति है, परिणाम चाहे जो हो.
बिल्डिंग बनाने से क्या होगा
ऐसे गांव में किसी बंगाली डॉक्टर का आना और जम जाना, केवल जम जाना नहीं, बल्कि गांव वालों का विश्वास हासिल कर लेना क्या कोई
आश्चर्य होना चाहिए. यह मजबूरी भी हो सकती है और जरूरत भी. लोगों को पता होता है कि
इलाज न मिला तो भी मरना तो है ही, इससे अच्छा है थोड़ा—बहुत जैसा भी मिले इलाज मिल जाए,
दवा मिल जाए. ऐसे इलाकों तक सरकारी स्वास्थ्य सेवा की इमारतें पहुंच भी जाएं तो क्या, उनमें इलाज के लिए इंसान तो होना ही चाहिए. इंसान हो भी तो जरूरी सामान भी होना
चाहिए.
क्या कहती है ग्रामीण भारत की स्वास्थ्य सेवाएं
सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में ग्रामीण भारत की सांख्यिकी
जो कहती है, वह बहुत चिंताजनक है. ग्रामीण भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य
सेवाओं की सबसे छोटी इकाई प्राथमिक उप स्वास्थ्य केन्द्र है, इसके बाद प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों के जरिए टीकाकरण से लेकर स्वास्थ्य संबंधी हर योजना को पहुंचाने
का सिस्टम बनाया गया है. इन केन्द्रों में डॉक्टर, स्वास्थ्य कार्यकर्ता, एएनएन की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हो जाती है. लेकिन हालात यह हैं कि देश में इन
सभी स्वीकृत पदों में से 1,01,923 पद खाली पड़े हुए हैं. तकरीबन 8 हजार डॉक्टरों के
स्वीकृत पदों पर नियुक्ति नहीं हुई है. 1494 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र ऐसे हैं जहां
कोई भी डॉक्टर नियुक्त नहीं है, 14 हजार के करीब स्वास्थ्य केन्द्र एक डॉक्टर के भरोसे
हैं. 25743 स्वास्थ्य केन्द्रों में से केवल 7230 पर लेडी डॉक्टर नियुक्त हैं, जबकि महिला स्वास्थ्य के नजरिए से महिला डॉक्टरों की मौजूदगी बहुत महत्वपूर्ण होती
है.
क्या समाज की चेतना में हैं ऐसे विषय
केवल मानव संसाधन के नजरिए से ही नहीं, ढांचागत निर्माण से संबंधी जरूरतों को पूरा करना भी उतना ही जरूरी है. हम चांद
पर पहुंचने के मीटर—मीटर पर नजर बनाए हुए हैं,
लेकिन क्या लोगों की
जिंदगी बचाने के प्रति भी उतनी ही संवेदना हमारे भीतर है या नहीं. क्या ग्रामीण भारत
के लोगों की ऐसी संघर्ष भरी जिंदगी भी हमको एक संवेदनशील नागरिक के बतौर उतनी ही बैचेन
करती है. यदि कर रही होती तो शायद देश के विमर्श में यह सवाल भी कभी न कभी आए ही होते, ऐसे मुद्दों पर भी चिंता जताई जाती, पर यह हमारे समाज की चेतना में
वैसा विषय नहीं है और यदि लोगों में चेतना का वह स्तर नहीं है तो नीतियों की प्राथमिकता
में भी व आए तो कैसे आए. देखिए कि स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार किस मंद गति से हुआ
है.
अब भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की है कमी
आठवी पंचवर्षीय योजना के अंत तक इस देश में तकरीबन 22149 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र थे, जो बीस साल बाद 25630 हुए. इतने लंबे समय में जबकि हमने कई राजनैतिक नेतृत्व में दुनिया में अपना डंका
बजवाया तब भी हम महज 3500 नए स्वास्थ्य केन्द्र खोल पाए. देश में सामुदायिक स्वास्थ्य
केन्द्र 2633 से बढ़कर 5624 हुए. पर यदि भारत की जनगणना 2011 के अनुपात में देखा जाए तो प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में तकरीबन 22 प्रतिशत और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में तकरीबन 30
प्रतिशत की कमी है. करब
33 हजार उपस्वास्थ्य केन्द्र की इस वक्त देश को जरूरत है. इन सभी तरह के केन्द्रों
के लिए 38000 भवन बनाए जाने की आवश्यकता है.यह ग्रामीण बीमार भारत की वह जरूरत है जो
देश से पूरा होने की आशा लगाए बैठी है. जो जरूरत की है उसके भी अपने पेंच हैं. वह व्यवस्था
खुद कई तरह की बीमारियों का शिकार है, जिसमें समय पर डॉक्टरों का न
पहुंचना, दवाईयों का न होना, अपने घरों में प्रैक्टिस करना सहित कई पहलू शामिल हैं.
इन परिस्थितियों में लाचार ग्रामीण भारत यदि बंगाली डॉक्टरों के पक्ष में खड़ा हो जाए तो कैसा आश्चर्य. अब समाज को बहुत गंभीरता से इस बात को सोचना चाहिए कि ग्रामीण भारत कैसे एक झोलाछाप स्वास्थ्य तंत्र पर भरोसा करने लगा है. इस झोलाछाप तंत्र पर शासन की कार्रवाई यदि वास्तव में उसके पीछे भ्रष्ट तंत्र या अपनी जेब गरम करने से प्रेरित नहीं है तो प्रशंसनीय है, लेकिन इसके समानांतर रूप से सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को भी तो मजबूत करने की जरूरत होगी, लेकिन उस तरफ ध्यान कम ही जाता है
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