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भाग छह- भारत में वामपंथ

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भारत में वामपंथी आंदोलन एवं चरम वामपंथी अतिवादी आंदोलन के इतिहास पर नजर दौड़ाते हैं। भारत में कम्युनिस्ट या वामपंथी आंदोलन सन् 1920 में उभरा था। समय के साथ इसकी अनेक धाराएं प्रवाहित होती गई। हालांकि इन सभी धाराओं का उद्देश्य एक वर्ग विहीन समाज की स्थापना करना था, लेकिन इसे प्राप्त करने के तरीकों को लेकर इनमें मतेक्य नहीं था। मुख्यतौर पर इनको दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है।

पहली है भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) एवं माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) ये दोनों चुनाव में भागीदारी में विश्वास रखती हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने तो सन् 1951 में हुए पहले आम चुनाव में ही भागीदारी कर ली थी। वहीं इस दल के कुछ अतिवादी तत्वों ने सन् 1964 में अलग होकर माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कर लिया था।

माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ गए कुछ अन्य अतिवादियों को व्यवस्था परिवर्तन का यह तरीका पसंद नहीं था। परंतु जब माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने भी चुनावी लोकतंत्र के प्रति अपनी आस्था व्यक्त कर दी या इसे अपनाने की सहमति दे दी तो इसका एक अत्यंत अतिवादी समूह जो कि माओ की नीतियों के साथ अधिक सहमति रखता था, इससे अलग हो गया।

इस समूह ने इस प्रणाली के प्रति असहमति जताते हुए भूमिगत सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता चुनने का निश्चय किया। इस प्रक्रिया में अप्रेल 1969 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी-लेनिनवादी) का गठन हुआ और चारु मजूमदार इसके अध्यक्ष बने।

सीपीएम (एमएल) ने मतदान की प्रक्रिया का पूर्ण विरोध किया और हिसंक क्रांति की वकालत करते हुए इसे राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति का एकमात्र जरिया या रास्ता बताया। इसी के साथ पश्चिम बंगाल के छोटे से कस्बे नक्सलबारी से जमींदारों के खिलाफ व भूमिहीनों के अधिकारों को मूर्त रूप से देने के लिए जिस विचार को लेकर सशस्त्र संघर्ष प्रारंभ हुआ, वह नक्सलवाद कहलाया।

इस सशस्त्र आंदोलन के दो नायक रहे, चारु मजूमदार और कनु सान्याल। कुछ समय पश्चात इन दोनों में भी वैचारिक मतभेद हुए। चारु मजूमदार की मृत्यु जेल में अस्थमा के दौरे से हुई और कनु सान्याल ने सन् 2013 में आत्महत्या कर ली थी। नक्सलबारी से निकले आंदोलन का केन्द्र घने जंगल और सुदूर स्थित ग्रामीण क्षेत्र थे, जहां पर जमींदारी अपने विकृततम रूप में मौजूद थी। (इसके अलावा उन इलाकों के सरकारी संस्थानों खासकर पुलिस की मौजूदगी भी न्यूनतम थी।)

सामान्य तौर पर माना जाता है कि दीर्घकालिक रणनीति यह होती है कि पहले पहल ग्रामीण इलाकों में अपनी पकड़ मजबूत की जाती है और फिर धीरे-धीरे शहरी क्षेत्रों की ओर बढ़ा जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार इस प्रक्रिया में दशकों लग जाते हैं। परंतु चारु मजूमदार अत्यन्त जल्दी में थे और उन्होंने नक्सलवाद के शुरुआत के तीन वर्ष के भीतर ही उन्होने पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकता को अपना निशाना बना दिया। जाहिर सी बात है इसे उखड़ना ही था।

गौरतलब है उस दौरान पश्चिम बंगाल में यह एकमात्र चरम वामपंथी समूह अस्तित्व में नहीं था। अक्टूबर 1969 में माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का एक धड़ा इससे अलग होकर माओवादी कम्युनिस्ट केंद्र (डंवपेज ब्वउउनदपेज ब्मदजतम)(डब्ब्) कहलाया। इसकी गतिविधियां मुख्यतः पश्चिम बंगाल एवं अविभाजित बिहार के वन एवं पहाड़ी क्षेत्रोें तक सीमित थीं। बाद में यह विस्तारित होकर भारत का माओवादी कम्युनिस्ट केंद्र (एम सी सी आई) हो गया।

यह संगठन सन् 2004 तक स्वतंत्र रूप से सक्रिय रहा और इसके बाद पीपुल वार ग्रुप में समाहित हो गया। उस दौर में पश्चिम बंगाल के अलावा इसका असर आंध्रप्रदेश में भी देखा गया था। तात्पर्य यह है कि यह मूलतः इन दोनों राज्यों तक ही सीमित रहा। इससे निपटने के तरीकों को लेकर लगातार असंतोष बना रहा। परंतु केंद्र एवं राज्य सरकारों के ठोस प्रयासोें से नक्सलवादी हिंसा के प्रथम दौर का अंत हो गया।

आगामी बीस वर्षाें तक यह चरम वामपंथी आंदोलन अपने अंतविरोधों एवं अंतरकलह में उलझा रहा। इसके पुनः उभार को एक तरह से नक्सलवाद का दूसरा दौर कह सकते हैं और पहले दौर से इसकी अलग पहचान करने के लिए ही शायद इसे माओवाद या माओवादी हिंसा की संज्ञा दी गई।

इस माओवादी हिंसा का उद्गम दो नक्सलवादी गुटों आंध्रप्रदेश के पीपुल वार (पी डब्लूजी) एवं बिहार के माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एम सी सी) में ढूंढा जा सकता है। पश्चिम बंगाल में नक्सलवाड़ी आंदोलन चमक कम होने के समानांतर सीपीआई (एम एल) के विरोधी समूह द्वारा आंध्रप्रदोश के श्रीकाकुलम एवं उत्तरी तेलंगाना के जिलों में नक्सलबाड़ी आंदोलन ने सन् 1971 मे अपनी पैठ बनाई।

सन् 1976 में सी पी आई (एमएल) की आंध्रप्रदेश की समिति मेें दो फाड़ हो गई और कोंडापल्ली सीथारमैया ने सन् 1980 में पीपुल वार ग्रुप (पी डब्लूजी) का गठन किया। इसी के साथ उन्होंने सन् 1980 से 85 के मध्य सशस्त्र संघर्ष जारी रखने के लिहाज से हथियार बंद टुकड़ियों (दलम) का गठन किया। यह धीरे - धीरे दूसरे प्रदेशों में भी फैल गए।

अनेक उतार चढ़ाव के बाद सन् 2004 में कई अतिवादी संगठन एक हुए और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर आफ इंडिया (एमसीसीआई) का गठन हो गया। सरकारी आंकड़ोेंं के अनुसार आज यह माओवादी आंदोलन की उपस्थिति देश के 21 राज्यों के 190 जिलोें में है। साथ ही 25000 से ज्यादा व्यक्ति इस हिंसक आंदोलन से जुड़े हैं।
यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक क्षेत्र में चरम वामपंथी हिंसा के पनपने के स्थानीय कारण मौजूद हैं। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि माओवादी हिंसा को पैठ जमाने के जिन कारणों या स्थितियों ने मदद पहुंचाई वे भी तो कमोवेश एक सी ही थीं और यदि संविधान के अनुरूप शासन किया जाता तो शायद हिंसा की कोई गुजाइश ही नहीं होती।

गौरतलब है भारतीय संविधान ने उदार लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली को स्वीकारा जिसमें कि प्रत्येक नागरिक के पास व्यक्तिगत अधिकार थे। परंतु समय के साथ यह बात उभरकर आई कि इन अधिकारों का उपयोग करने के लिए अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण में हमारी व्यवस्था असफल रही। वहीं दूसरी ओर विकास का जो आक्रामक एवं एकतरफा मॉडल अपनाया गया वह उन क्षेत्रों के कतई अनुकूल नहीं था जहां पर कि हम आज माओवादी हिंसा को पनपते देख रहे हैं।


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