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हत्या या शहादत...

 राकेश  कुमार मालवीय
 इसे आप बेतुका तर्क भी मान सकते हैं, लेकिन एक साल में आठ आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या इसके दिनों-दिन मजबूत होने का संकेत है। यह स्वाभाविक ही है कि गले-गले तक भ्रष्टाचार में डूबी व्यवस्थाओं की परतें उखाड़ने का काम बेहद जोखिम भरा है। 13 अक्टूबर 2005 से पहले इसके लिए कोई मजबूत हथियार भी हाथ में नहीं थे। लेकिन सूचना के अधिकार को कानूनी जामा पहन लेने के बाद व्यवस्था में पारदर्शिता  के मायने बदल गए हैं। यह तस्वीर और भी बदल जाएगी जब इस कानून का उपयोग एक बड़े समूह द्वारा अपने हकों के लिए जरूरी सूचनाएं पाने के लिए किया जाने लगेगा। और हां, यह अतिश्योक्ति  भी हो सकती है कि ऐसी शहादतें भी जरूर सामने आएंगी। अहमदाबाद में आरटीआई एक्टिविस्ट अमित जेठवा की हत्या के कारणों को देखें तो तस्वीर साफ समझ में आती है।

2005 में जब संवैधानिक रूप से लोगों को सूचनाएं जानने का हक जब मिला तब खुद सरकार को उम्मीद नहीं थी कि सूचना का अधिकार इस तरह प्रभावी होगा। लेकिन लोगों ने इस कानून की क्षमता पहचानी, जानकारियों की ताकत जानी और हर छोटे-बड़े ऑफिस से लेकर तमाम मुद्दों पर इसका जमकर उपयोग भी किया। पोल खुलने लगी। मीडिया के लिए भी यह बड़ी ताकत बना।

सूचना का अधिकार एक ऐसा कानून है जो जन की मांग पर आया। सन् 2005 में इस अधिनियम के पारित होने पर इसे एक क्रांतिकारी कानून कहकर उसका स्वागत किया गया। यू.पी.ए. सरकार के कार्यकाल में लाए गए इस कानून से सरकार ने खूब वाह-वाही बटोरी। खुद देश  के प्रधानमंत्री और गठबंधन की मुखिया सोनिया गांधी ने भी अपने भाषणों में इसके लिए अपनी पीठ थपथपाई। यह माना गया कि केन्द्र सरकार देश से भ्रष्टाचार मिटाने की ईमानदार पहल करना चाहती है। यह संदेश  भी गया कि शासन और प्रशाशन  में अब खुलापन और जवाबदेही के नए अध्याय की शुरूआत होगी। आम नागरिक को भी आजादी के बाद पहली बार अहसास हुआ कि संविधान की प्रस्तावना में अंकित उसकी सर्वोच्चता अब साकार होगी।
    
इस कानून के अंतर्गत यह व्यवस्था है कि जन सामान्य को दो तरह से सूचना प्राप्त होगी। एक तो सरकार के प्रत्येक विभाग को 17 बिंदुओं में सूचनाएं स्वघोषणा के आधार पर देनी होगी। दूसरा कोई भी नागरिक आवेदन देकर सूचनाएं ले सकता है। इस प्रावधान का उपयोग करते हुए नागरिकों ने अपना काम शुरू कर दिया। परन्तु सरकार ने अपना काम नहीं किया। कानून की धारा-4 में कहे गये 17 बिन्दुओं को प्रकाषित करने का काम सरकार से नहीं हुआ। सूचना के अधिकार के साढ़े चार साल बाद भी सरकार अपने दस्तावेजों को व्यवस्थित नहीं कर पाई जो कि उसे कानून लागू होने के 120 दिन के अंदर कर लेना था।

सूचना का अधिकार मिलने के बाद लोगों ने आवेदन लगाना शुरू  किया। परिणाम कुछ ही दिनों में दिखने लगे। पीडीएस में सुधार, अस्पताल में दवाएं मिलने लगीं, इंदिरा आवास योजना के मकानों की असलियत सामने आने लगी। लोगों के रूके हुए काम बनने लगे। इन घटनाओं से जन सामान्य में व्यवस्था के प्रति विश्वाष बढ़ने लगा। शासकीय दफ्तर में हाथ जोड़कर खड़े रहने वाले लोग अब आत्मविश्वास  से भरने लगे और परिणामस्वरूप पूछे जाने वाले सवालों के दायरे बढ़ने लगे। जब कानून का उपयोग भ्रष्टाचारअकुशलता  और सत्ता के मनमाने दुरूपयोग पर अंकुश लगाने पर होने लगा तब समय-समय पर सरकार कानून में संशोधन  करके सूचनाओं पर रोक लगाने की बात भी सामने आने लगी। तब चाहे वह फाइल नोटिंग्स का मामला हो या फिर धारा-8 जो कि सूचना पर रोक की बात कहता है -उसे विस्तार देने की हो। परन्तु जनता विश्वास, मीडिया, गैर सरकारी संस्थाओं, संगठनों और अभियानों ने इस कानून को समय- समय पर नेताओं और नौकरशाहों की बुरी नजर और मंशा  से बचाया है।

यह इस कानून की सफलता से उपजी खीज और भय ही था कि पुणे के आरटीआई एक्टिविस्ट सतीश शेट्टी, बैंगलोर के वेंकटेश को मार दिया गया। असम के अखिल गोगटे को जेल भेज दिया गया। राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले के खेमराज के खिलाफ कई फर्जी मुकदमे दर्ज किए गये। यह तो कुछ उदाहरण हैं अगर सूचनायें प्राप्त करने के दौरान होने वाले अपमान तथा उनके इस्तेमाल के वक्त होने वाले परेशनियों को सूचीबध्द किया जाये तो यह अनंत कथा है, बावजूद इसके भी कि जानने की कीमत जान हो सकती है, लोग हैं कि जान हथेली पर लेकर जानकारियों को सार्वजनिक करने के काम में जुटे हुए हैं। वास्तव में ये लोग ही हैं जो भारतीय लोकतंत्र में आशा  की किरण जगाते हैं जिससे कि भ्रष्टाचार नामक असुर का अंत किया जा सके।

सूचना के अधिकार के अंतर्गत बनाई गई व्यवस्था में यदि आवेदक को 30 दिनों में सूचना नहीं मिले तो वह प्रथम अपील पर जा सकता है और उसके बाद भी अगर सूचना न मिले तो वह सूचना आयोग का सहारा ले सकता है। सूचना आयोग इस कानून में सबसे महत्वपूर्ण कडी है, परन्तु इनकी डोर नेताओं के हाथ में है। आयुक्तों की कुर्सी आमतौर पर नौकरशहों को दी जाती है यही वजह है कि आज भी इस सशक्त  कानून के साढ़े चार साल बाद भी आयोग कठपुतली बनकर रह गया है। कभी सूचना दिलाने से साफ मना करके तो कभी मामलों को इतना लंबा खींचकर कि मांगने वाले का हौंसला ही पस्त हो जाए।
जरूरत इस बात की है कि इस कानून को मौजूदा स्वरूप में ही रखा जाए और सूचना नहीं देने अथवा देरी से देने पर आयोग सख्त रवैया अख्तियार करे।







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