भाई लोकेन्द्र सिंह कोट की दो मर्मस्पर्शी कविताएं
बेचारे रिश्ते
रिश्ते पेड़ होते हैं
जहाँ पलते हैं
ढ़ेरों आपसी संबंधों के घोंसले।
पेड़ की हर शाख,
पत्ते की अपनी
स्वायत्तता होती है
और तभी पेड़ बढ़ कर
गहरी ठंडी छाया,
ऑक्सीजन सब कुछ देते हैं,
खुद फलते-फूलते हैं और
परोपकार करते हैं।
लेकिन इसके लिए
इन्हें समय-समय पर
पानी, उर्वरा देना होता है,
तभी फलते-फूलते हैं
पेड़ और रिश्ते।
समस्या यह है कि
दिन-प्रतिदिन हम काट रहे हैं
पेड़ और उन्हें 'बोन्साई'
बनाने पर तुले हुए हैं।
हमने पेड़ों को महज
माध्यम समझ लिया है।
बेचारे पेड़.......
बेचारे रिश्ते......।
आवाजें
कुछ दिनों से
मुझे सुनाई दे रही हैं
दूसरों के मन की बातें
जो दूसरे लोगों को
सुनाई नहीं देती हैं
और तो और कई बार
खुद उस व्यक्ति को
नहीं सुनाई देती हैं।
जमीर के आस-पास रहती
ये आवाजें बराबर
'ईको' बनाकर मेरे कानों
तक पहँच जाती हैं।
जो भी मिलता है
अपना, पराया
कोई भी.........
सब की आवाजें सुन चुका हूँ।
यह आवाजें सुनकर
एक-एक कर
मेरा सारा विश्वास
खत्म हो रहे हैं।
मुझे निर्जीव वस्तुएँ
भाने लगी हैं।
लोकेंद्रजी सृजनशील पत्रकार, कथाकार और कविताकार भी हैं. समाज की उथल पुथल को अपनी कविताओं में पिरोकर उन्होंने हमें एक चिटठा भेजा है, वैसे हम ही कई दिनों से जिद पड़े थे भैया अपनी कवितायेँ भेजो. आज भेजी तो चुनकर दो कवितायेँ आपके सामने पेश कर दीं. आशा है पसंद आएँगी. राकेश
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