“स्वास्थ्य सबसे अच्छा वरदान है।“
- गौतम बुद्ध
तकरीबन अठारह फुट की उंचाई वाले बुद्ध की कही इस
बात को साधने में स्वास्थकर्मियों का अतुलनीय योगदान है पर चिकित्सा पद्धतियों
में इन दिनों आपस में घमासान छिड़ा है। खासकर आयुर्वेद और एलौपैथी पदधति को लेकर
जो सीधा विवाद सामने आ खड़ा हुआ है और जिस तरह से उसे और अधिक हवा दी जा रही है, वह इस महामारी के दौर में बिलकुल भी उचित नहीं लगता है। यह वक्त ऐसी किसी भी
बहस के लिए मुफीद नहीं है।
दुनिया में एक महामारी आतंक मचा रही है, भारत में इसने अपना रौद्र
रूप दिखा ही दिया है। देश की प्राथमिकता फिलहाल महामारी की रोकथाम करके उसे जड़ से
खत्म होने की होनी चाहिए, ताकि लोग खुली हवा में सांसें ले पाएं, इसके लिए चाहे जो भी पदधति अपनानी पड़ें, चाहे जो काम करने पड़ें, चाहे जिसको साथ में लेना पड़े,
करना ही चाहिए, समझना चाहिए कि खिलाफ हम बीमारी के हैं, एक दूसरे के नहीं।
मौजूदा दशा में हमें जिससे भी आराम लगे चाहे वह होम्योपैथी हो, यूनानी हो, आयुर्वेद हो या एलोपैथी हो, हम सभी को अपनाने के लिए तैयार हैं। असल सवाल यह भी है कि हमें लाखों पीड़ित
लोगों के साथ कितनी सिम्पैथी है,
और उन्हें ठीक करने के
लिए सभी अपने ज्ञान और कौशल का उपयोग किस तरह कर रहे हैं ?
पिछले दिनों सालों पुरानी एक फिल्म देखी ‘राजा और रंक’। इस फिल्म में राजकुमार
के बीमार होने पर उसके आसपास तमाम पैथी के लोग इलाज करते फिल्माए गए। कोई काढ़ा
पिला रहा था, तो कोई किसी जड़ी—बूटी की धुनी देता रहा है। जब
हमारे आसपास का कोई व्यक्ति गंभीर रूप से बीमार होता है तो उसे जो भी समझ आता है, वह तमाम उपाय किए जाते हैं। उस वक्त वह न तो उसके दर्शन में जाता है और न सिद्धान्त
में। भारतीय समाज में तो यहां तक देखा
जाता है कि अच्छे—अच्छे पढ़े लिखे लोग भी स्वास्थ्य ठीक करने के लिए फोन पर
मंत्र—तंत्र तक के उपाय करवाने में संकोच नहीं करते, जाने कौन सा तरीका कारगर हो
जाए और इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि हमारे यहां स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा अब
तक भी हमारी जनसंख्या के अनुपात में व्यवस्थित नहीं हो पाया है।
हमने कोरोनाकाल में यह भलीभांति देख ही लिया है कि स्वास्थ्य सुविधाओं, डॉक्टरों की वास्तविक जरुरत के हिसाब से कितनी कमी है। जो सुविधाएं हैं भी तो उन्हें शहर केन्द्रित ही बनाकर रख दिया है, ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों में इलाज के लिए आज भी झोलाछाप डॉक्टरों पर निर्भर हैं। कोरोना काल में कई ऐसे मामले सुनने को आए कि गांव में नाड़ी देखकर यह बताने वाला भी नहीं था कि व्यक्ति जिंदा है या मर गया ! ऐसे में वह व्यक्ति जो ग्रामीण क्षेत्रों में बंगाली से लेकर अन्य कई नाम से प्रचलित है, लोगों का जाने किन—किन पैथियों से इलाज करता है !
हम भले ही लोगों की अवैज्ञानिक सोच, तौर—तरीकों और इलाज की
पदधतियों पर तमाम लानतें भेजते हों,
पर सच यह है कि हमने
वैज्ञानिक तौर—तरीकों को भी वहां तक पहुंचाने के लिए कुछ किया है। गांवों में सांप
काट खाने पर सबसे पहले वही व्यक्ति याद आता है जो तंत्र—मंत्र से जहर का प्रभाव
कम कर देता है। सांप का जहर दूर करने वाले इंजेक्शन गांव क्या तहसील स्तर पर भी
नहीं मिल पाते। जिला स्तर के अस्पताल तक आते—आते कितने ही लोगों की जान चली जाती
है। वो वक्त कब आएगा जब हम गांवों में ही बेहतर इलाज की उम्मीद करेंगे। ग्रामीण
क्षेत्रों के स्वास्थ्य ढांचों,
उपस्वास्थ्य केन्द्रों, स्वास्थ्य केन्द्रों की खाली इमारतों में चिकित्साकर्मी कब पहुंचेगे और कब
इलाज होगा ?
सच बात तो यह है कि इन दूरस्थ इलाकों में आज तक कोई सी पैथी नहीं पहुंची है, आपस में लड़ने की बजाय हमें चाहिए कि कोरोना के ही बहाने अपनी इस बदहाल
व्यवस्था का एक चेहरा हम देख लें। अपने—अपने को श्रेष्ठ बताने की जगह हम यह विचार
करें कि स्वास्थ्य के मामले में जो भारत के शहर और दूरस्थ गांवों—गांवों की जो
गहरी खाई अब भी है उसे कैसे पाटें ?
क्या किसी के पक्ष या विपक्ष में कोई भी बयानबाजी करते हुए यह सोचा जा सकता है
कि उसने अपने पीछे क्या किया है। यह किसी से छिपा हुआ नहीं है कि कोरोनाकाल से
पहले हमारी स्वास्थ्य व्यवस्थाएं कितनी लाचार रही हैं, और इसी वजह से भारत में सर्वाधिक प्रभाव होने की आशंकाएं भी जताई गई थीं, इन्हीं परिस्थितियों के बीच देश के डॉक्टरों, नर्सों, स्वास्थ्यकर्मियों ने खुद को अस्पतालों के उन वार्डों में धकेल दिया, जिनमें आदमी की जान लेने पर उतारू एक वायरस हर पल मौजूद है। युद्ध में उतरे
सैनिकों के अलावा कौन ऐसा कर पाता है ? जब ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में
डॉक्टर कम पड़ गए तो दूसरी तमाम पैथियों के डॉक्टरों को सेवा में लगाया गया। इसलिए
अब जबकि देश में दूसरी लहर थोड़ी कम होती दिखाई दे रही है, सर्वश्रेष्ठ हो जाने का विमर्श बेमानी है। तीसरी लहर भी हमसे कुछ दूर खड़ी है
और ऐसे में देश को खुद को एक ऐसे समाज में तब्दील करना होगा, जहां पर कम से कम नुकसान हो।
राकेश कुमार मालवीय
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