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हर हाथ में अब कैमरा, हर कोई फोटोग्राफर, लेकिन....

बीते चालीस—पचास सालों में सब कुछ कितनी तेजी से बदला! और इधर के बीस सालों में तो जैसी दुनिया इधर की उधर ही हो गई लगती है। अब फोटोग्राफी को ही लें। ‘फोटोग्राफी’ कहां तो इतना महंगा शौक हुआ करता था कि यह बड़ी हिम्मत का काम हुआ करता था और तकनीकी विकास ने कहां अब इसे इतना सुलभ, आसान और सस्ता बना दिया है कि हर आदमी फोटोग्राफर बना घूम रहा है ! पर फोटो—फोटो—फोटो और फोटो के इस दौर में उन उसूलों को भी याद रखना चाहिए जो इस नायाब उद्यम से जुड़ी हुई है।

अपने बचपन में जाएं तो याद आता है कि फोटोग्राफी तकरीबन हमारी पहुंच से बाहर थी। पहले तो कैमरे ही इतने महंगे हुआ करते थे और इसकी गिनती अनिवार्य आवश्यकताओं में भी नहीं थी। किसी तरह कैमरा खरीदने लायक रकम जोड़ भी ली जाए तो फिर फोटोग्राफी करने का खर्च उठाना भी कहाँ  आसान था ? जिन लोगों ने रील वाले कैमरे चलाए या देखें है वह इस बात को समझ सकते हैं कि एक क्लिक करने का मतलब क्या होता है ! एक रील यानी महज 36 फ्रेम। एक एक क्लिक करने में बीसियों बार सोचना पड़ता था। क्लिक करने से पहले ‘रेडी’ ‘स्माइल’ जैसे शब्दों से अलर्ट करना पड़ता था। जिस रील में 36 से ज्यादा फ्रेम आ जाते थे वह तो बोनस ही हो जाती थी। रील भर जाने के बाद उसे धुलवाना और लंबे इंतजार के बाद हर तस्वीर को देखने का रोमांच। सच कहें तो उस इंतजार का अपना मजा था। डिजिटल कैमरों की आमद ने इस इंतजार के रोमांच को हर लिया। इधर फोटो क्लिक नहीं हुई और उधर नतीजा सामने।

तकनीक हमेशा आगे बढ़ती है, विधाएं खुद को अपडेट करती हैं, इसलिए जिस वक्त में जो है उसका भरपूर आनंद लेना, उसे जीना ही उचित रास्ता है। फिर फोटोग्राफी तो ऐसी कला है जो आपकी यादों का दस्तावेज बन जाती है। उनके सहारे आपका गुजरा हुआ वक्त फिर लौट आता है। इसलिए महंगी होने के बाद भी यह विधा तब भी उतनी ही प्रासंगिक रही और अब तकनीक ने इसे इतना आसान बना दिया है जिससे हर व्यक्ति एक फोटोग्राफर भी बन गया है। हालांकि इस विधा के फनकार इसे असली फोटोग्राफी के रूप में स्वीकार करने में स्वाभाविक रूप से संकोच ही करते हैं, लेकिन इसके बावजूद इस सच्चाई से कैसे इंकार किया जा सकता है।

अच्छी बात है कि कला का विस्तार हो रहा है, लेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि इसमें फोटोग्राफी के उसूलों को ध्यान में नहीं रखा जाता है। सबसे बड़ी बात तो निजता की है। वैसे भी हमारे देश में एक नागरिक की निजता को अब भी उतना महत्व नहीं दिया गया है, जितना कि होना चाहिए। जरा कुछ हुआ नहीं और मोबाइल कैमरे फोटोग्राफी या वीडियोग्राफी में व्यस्त हो जाते हैं। कई बार तो यह भी होता है​ कि जहां पर मदद के लिए हाथ आगे आने चाहिए वहां पर फोटोग्राफी के लिए हाथ नजर आते हैं। कोई व्यक्ति चाहकर भी अपनी निजता को कायम नहीं रख सकता, क्योंकि अब मोबाइल कैमरों के फोटो और सोशल मीडिया के जरिए वह पल में वायरल हो जाता है। फोटो के लिए अनुमति या सहमति की बात तो दूर ही है।

दूसरा फोटोग्राफी पर कोई अनुशासन नहीं है। अ​नलिमिटेड स्पेस है और खर्च न्यूनतम। और तिस पर सेल्फी लेने और खुद को को ही फ्रेम में रखने का ऐसा भयानक रवैया कि आदमी ने उसके आसपास को जीने का जैसे आनंद ही खो दिया हो। किसी सुंदर जगह जाएंगे तो वहां आपको सैकड़ों लोग उस छटा को निहारने की जगह खुद से ही बाहर नहीं आ पाएंगे। यदि आप कोई अच्छा नाटक—गीत—संगीत या कार्यक्रम देखने जाएंगे तो आपकी आंखों के आगे बीसियों हाथ वीडियो बनाते नजर आएंगे। अपने सोशल मीडिया अपडेट की ज्यादा चिंता होती है। और उस आनंद के दिखावे के लिए तमाम जगहों पर बजाय दूसरों का ख्याल रखे ​इतनी फोटो—वीडियो ठेल दिए जाते हैं कि फोन की मेमोरी बारंबार दम तोड़ देती है। ऐसे में हमें सोचना चाहिए कि क्या हम फोटोग्राफी जैसी कला का सदुपयोग कर रहे हैं या दुरुपयोग। हमने जो फोटो क्लिक किए हैं उनमें से वाकई कितने फोटो हैं जिन्हें हम अच्छा कह सकते हैं ? इस फोटोग्राफी दिवस पर इस बारे में जरूर सोचिएगा। फोटोग्राफी करें, लेकिन उस वक्त दूसरों का भी ख्याल करें कि आपकी गतिविधि दूसरों के लिए कोई परेशानी तो नहीं बन रही है ? और इस बात का भी ख्याल करना ही चाहिए कि इस विधा के मार्फ़त सैकड़ों हजारों घरों का चूल्हा भी जलता है।

राकेश कुमार मालवीय

 

 

 

 

 

 

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