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आटा

मेरी दादी को एक बात पिछले कई दिनों से साल रही है कि मैं आटा खरीद कर खा रहा हूं। गांव में आने वाले तमाम रिष्तेदार और गांववालों से वह इस बात को बडे दर्द के साथ बांटती हैं। घर में कोई दौ सौ बोरा गेहूं हर साल पैदा किया जाता है, थोडा बहुत चना और धना भी बोया जाता है। इसके बावजूद मेरा पैकेटबंद आटा खरीदना पिछले कई महीनों से डांट खाने की बडी वजह बनता जा रहा है। कोई सौ किमी दूर बसे गांव से अनाज ढोकर लाना, पिसाना इस जददोजहद से बचने के लिए ही तो मैं और मुझ जैसे सैकडों लोग अब पैकेटबंद केवल आटा ही नहीं बाकी सारी चीजें भी तो खा रहे हैं। मेरी दादी और मुझमें एक पीढी का ही तो अंतर है, पर इन कुछ सालों में कितना कुछ बदल गया है यह साफ नजर आता है; भोपाल शहर बनिस्पत अन्य शहरों के अभी भी उतना फास्ट नहीं है बावजूद इसके मेरी दादी को वह सुहाता नहीं है। उन्हें यहां आकर बुरा इसलिए भी लगता है कि इस तथाकथित पाॅष कही जाने वाली काॅलोनी में उन्हें बातचीत करने वाला कोई नहीं मिलता। शायद तभी तो वह बाजू के खाली पडे प्लाॅट पर बकरी चराने आने वाली महिला से भी थोडी गप्प कर आती हैं। हम जैसे लोग तो एक अविष्वसनीयता के कारण ही सामाजिक रिष्तों से एक किस्म की दूरी खडी कर लेते हैं, इससे आस-पडोस और रोटी अचार के रिष्ते महानगरीय संस्कति में विकसित ही नहीं हो पाते। गांव में तो वह सुबह निकलती हैं और दोपहर तक खेत का एक चक्कर लगाकर आती हैं, उनके कुछ खास ठिकाने हैं जहां वह थोडी-थोडी देर बैठकर सत्तर साल के शरीर को थोडा आराम भी देती हैं। लौटते तक उनके पास गांव के समाचारों का विस्तत ब्यौरा होता है। मेरी दादी की अगली चिंता पानी को लेकर भी थी, घर में पर्याप्त पानी रहे इसके लिए उनकी अगली डिमांउ एक मटका खरीदने की थी; फ्रिज से निकला एकदम ठंउा पानी उन्हें कभी जमा नहीं। मुझे याद है मेरे अपने गांव के कुम्हारों द्वारा बनाए गए मटके दूर-दूर तक प्रसिदृध हुआ करते थे और इनकी एक समय में भारी डिमांड थी। एक दिन किसी प्रसंगवष बातचीत में ही उन्होंने बताया था कि पहले अपने गांव में ही पचासों गधे और घोडा-घोडी हुआ करते थे। आज एक भी नहीं हैं, न ही मटकों और मिटटी के बर्तनों की वो पूछ-परख रही। पूरे गांव का एक सिस्टम था, कुम्हार मटके किसानों के घर पहुंचाते थे किसान उन्हें अनाज, ऐसे ही नाई, धोबी, बढई पूरी एक व्यापक व्यवस्था थी, खेतों में ही तरह-तरह के अनाज और मसाले भी उगा लिए जाते थे, जो साल भर काम आते थे। पर अब तो गांवों में भी गेहूं के अलावा मसाले और अन्य खाद्यान्न की फसलें कम ही ली जा रही हैं।

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