‘किसान अपनी शक्तियों के बारे में अनजान है. जब मैं यह कहते हुए सुनता हूं कि किसान जो संसार को खिलाता है, कमजोर है, दरिद्र है और निराश है तो मैं उसके लिए दुखी हो जाता हूं. लेकिन जब मैं यह देखता हूं कि किसान स्वयं यह विश्वास करने लगा है कि वह निर्बल है तो मुझे अधिक दुख होता है.'
— सरदार वल्लभ भाई पटेल
लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल खुद को किसान पुत्र बताते थे. उनका आजादी के
लिए संघर्ष तो था ही, लेकिन उसके
समानांतर वे देश के किसानों की दशा से भी उतने ही चिंतित थे. वे किसानों को
पुकारते थे और अपने हकों की लड़ाई की लिए उठ खड़े होने का जज्बा भरते थे.
उत्तरप्रदेश में 1935 में हुए किसान
सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने जो भाषण दिया था, उसमें उनकी पूरी चिंता झलकती है कि वह देश में किसानों की
खुशहाली का क्या ख्वाब देखा करते थे. सरदार वल्लभ भाई देश की आजादी को तो अपने
जीते जी पूरा करवा गए, लेकिन किसानों के
लिए देखा गया वह सपना क्या अब भी पूरा हुआ है. क्या उनके जीवन में वह खुशहाली आ
पाई है.
आज भारत में किसान आंदोलन को तकरीबन एक साल हुआ जा रहा है. टुकड़ों—टुकड़ों
में देश के अन्य भागों में आंदोलन चलते रहे हैं पर देश की राजधानी दिल्ली में इस
आंदोलन ने तकरीबन सभी मौसम देख लिए हैं. देश में कृषि कानूनों के विरोध से उपजा यह
आंदोलन सरदार की उस विशालकाय प्रतिमा से सवाल करता है कि क्या देश में उसकी आवाज
को सुना जा रहा है. गुलाम भारत में सरदार कहते रहे कि ‘किसानों की आवाज अनसुनी है.’
पर क्या आजाद भारत में भी देश के किसानों की आवाज सुनी जा रही है, और यदि सुनी जा रही है तो बातचीत के रास्ते बंद
क्यों हैं ? इस संघर्ष का अंत क्या होगा ? आखिर कब तक अन्नदाता सड़कों पर बैठे
रहेंगे ?
सरकार पटेल ने कहा था कि
‘किसानों को
न्याय प्राप्त करने के प्रयोजन से अनुनय विनय करने की आदत से परहेज करना चाहिए,
उन्हें समझना चाहिए कि
न्याय कैसे प्राप्त किया जा सकता है, और उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए शक्ति प्राप्त
करनी चाहिए.’
आज जब देश के कई हिस्सों में कई वजहों से किसान सड़कों पर उतर आता है तब इस
बात को सोचना चाहिए कि हमें सरदार पटेल के सपनों को पूरा करने के लिए किसानों के
हित में क्या करना चाहिए. बीते सालों में देश ने देखा है कि बड़े पैमाने पर
किसानों ने आत्महत्या की है और उसकी बड़ी वजह कर्ज है. खेती की लगातार बढ़ती लागत
है और उसके एवज में मिला मूल्य है. खाद की कालाबाजारी है और नकली बीजों से किसान
परेशान है. डीजल की कीमतें किसान की कमर तोड़ दे रही हैं, कार चलाने वाला करोड़पति और रात—रात भर डीजल पंपों से खेत
में पैर धंसाने वाला किसान एक ही कीमत पर डीजल खरीद रहा है. ऐसे में भले ही किसान
दोगुनी आय होने की उम्मीद पाले बैठा हो, पर वास्तव में उसे ऐसा होता दिख नहीं रहा है !
‘मैं एक ऐसे जीवन
के साथ संतुष्ट रहने की बजाय जो दूसरों की दया कृपा पर निर्भर हो अपने अधिकारों के
लिए लड़ते हुए मरना पसंद करूंगा. किसानों को सरकार, सूदखोरों और जमींदारों की इस धारणा को मिटा
देना चाहिए कि वे किसान असहाय हैं.’
लेकिन सवाल है कि कैसे ?
आखिर इस बढ़ती लागत और खाद बीज का संघर्ष किसान करके खुद को सहाय बनाए भी तो कैसे
? हाल ही में नेशनल सैंपल
सर्वे में बताया गया है कि 2018-19 में एक कृषक परिवार खेती और अन्य कामों से 10,218 रुपए महीना कमा रहा है, जबकि 2012-13 में यह 6,426 रुपये प्रतिमाह हुआ करता था, यानी आप खुद ही अनुमान लगा लीजिए कि किसानों की आय इतनी कम
क्यों है और सरकारी नौकरी करने वाले अंतिम पंक्ति के कर्मचारी से पूछ लीजिए कि
उसका वेतन कितना है ?
वास्तव में 1935 की जिस हालत का
जिक्र सरदार पटेल अपने भाषण में कर रहे हैं, क्या अब के हालात उससे बदल गए हैं. उत्पादन के आंकड़ों में
भले ही किसानों ने खुद को साबित करके एक आत्मनिर्भर भारत बना दिया हो, जिसे अब अनाज आयात करने की जरुरत नहीं पड़ती हो,
लेकिन इस भारी उत्पादन के बाद भी कर्जा चुकाने
की चिंता और पूंजी के अभाव में उसकी फसल अब भी वह अपनी मर्जी और अपने दामों पर
नहीं बेच सकता है. उसे अब भी उस न्यूनतम समर्थन मूल्य का लिखित आश्वासान चाहिए और
इसके लिए वह साल भर से जिद पर अड़ा है.
लौह पुरुष ने कहा था
कि...
‘जब तक किसान
स्वाभिमान वाले नहीं होंगे तब तक उनका कोई भला नहीं होगा, दुर्भाग्यवश किसानों के अंदर यह भावना घर कर गई
है कि अन्य लोग उनकी तुलना में अधिक भाग्यशाली हैं और वे अभागे और कमजोर हैं. इसलिए
मैं एक किसान के रूप में, आपके भाई के रूप में और आपके एक सच्चे सेवक के रूप में आपको यह सलाह देता हूं
कि अपने संगठन को सक्रिय और जीवंत बनाएं.’
आज यदि भारत का किसान देश
के कई हिस्सों में सरदार पटेल की बात को आत्मसात करते हुए संगठित हो रहा है तो इस
देश को चाहिए कि उनकी आवाज को अनसुना न करे. बात सही या गलत हो सकती है, लेकिन संवाद के रास्तों को खोलकर रखा जाना
चाहिए.
और किसानों को भी चाहिए कि वह वास्तव में किसानों की भलाई के लिए ही संघर्ष
करें. यह बात तय है कि किसानों और किसानी के भले से ही देश का भला होने वाला है,
क्योंकि इस वक्त ने यह भी बता दिया है कि केवल
किसान ही उत्पादक है, बाकी तो उपभोक्ता
हैं. किसान ही है जो कोविड और लॉकडाउन जैसी परिस्थितियों में भी काम रोकता नहीं है,
रिकार्ड उत्पादन करके दिखाता है. किसानों को
अपनी शक्तियों को समझते हुए राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान देना चाहिए. किसी भी
आंदोलन के पीछे राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं का निर्माण नहीं होना चाहिए, ऐसी महत्वाकांक्षाएं दीर्घकालीन रूप से
आंदोलनों को ही नुकसान पहुंचाती हैं.
पटेल ने कहा था
कि ‘किसानों के अंदर
कोई जातिगत अथवा धार्मिक भेदभाव नहीं हो सकता. किसान जो हल चलाते हैं, चाहें वे छोटे जमींदार किसान अथवा कृषि मजदूर
हों, मूल रूप से किसान
हैं, चाहें उनका संबंध
किसी भी जाति अथवा धर्म से हो. प्रकृति जाति अथवा धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं
करती, और न ही आप
उन्हें कभी एक सी आर्थिक मुश्किल में पाएंगे. हम सब अपने अपने धर्म का पालन करते
हुए जाति और धर्म के भेद को भूल जाएंगे. अपने साम्प्रदायिक विवादों को सुलझाएंगे
और देश की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक प्रगति में अपना योगदान दे पाएंगे.’
क्या हम सरदार पटेल के
सपनों को वास्तव में पूरा करने की ताकत और एकजुटता दिखाएंगे ?
राकेश कुमार मालवीय
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