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( डाउन टू अर्थ अंग्रेजी के लिए यह खबर लिखी गई थी। पर जगह की कमी के कारण इसका बड़ा हिस्सा संपादित हो गया। अब यह खबर हिंदी साइट पर आ गई है। जो खबर लिखी थी, उसे ज्यों का त्यों यहां डाल रहा हूं। )  





देश के 15 जिलों की जमीनी पड़ताल-5 : पहली लहर से अछूते जिलों में पहुुंचा कोरोना (downtoearth.org.in)

मप्र के कटनी जिले में कोविड 19 के अप्रेल के पहले सप्ताह में तेजी से बढने शुरू हुए और  10 अप्रैल को पॉजीटिविटी रेट 41 प्रतिशत के सर्वाधिक स्तर पर पहुंच गया। अप्रैल में कुल 18725 सैंपल में से 4609 रिपोर्ट पॉजीटिव आई। इस बार असर ग्रामीण इलाकों में भी ज्यादा था। मई के पहले सप्ताह तक जिले की 407 ग्राम पंचायतों में से 124 में कोविड पैर पसार चुका था। जिला पंचायत सीईओ जगदीशचंद्र गोमे के अनुसार मई के दूसरे सप्ताह तक 20 ग्राम पंचायतें ऐसी थीं जहां कि पांच से अधिक केस सामने आ चुके थे, 104 ग्राम पंचायतों में चार से कम केस मिले थे। जिले में मई के पहले सप्ताह तक कोविड से मृत्यु के केवल 64 मामले ही हेल्थ बुलेटिन में दर्ज किए गए। मीडिया रिपोर्टस के अनुसार वास्तविक मृत्यु के मामलों की संख्या कहीं ज्यादा है।

इसकी वजह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में टेस्ट को लेकर भय है और उनकी रिपोर्ट भी देर से आती है, जिले के सात सामुदायिक केन्द्रों में हर दिन सौ टेस्टों की व्यवस्था की गई थी, लेकिन हालात यह थी कि लोग इन केन्द्रों पर टेस्ट करवाने ही नहीं पहुंच रहे थे। विजयराघवगढ़ में 1 मई से 5 मई तक केवल 385 सैंपल लिए गए, वहीं ढीमरखेड़ा में 473 सैंपल कलेक्ट हुए। इसकी एक वजह सैंपल रिपोर्ट का लेट आना भी रहा। कटनी जिले से सैंपल जांच के लिए महाराष्ट्र और पुणे स्थित लैब में भेजे जाते रहे, जिनकी रिपोर्ट चार से पांच दिन में आई। मामले बढ़ने के बाद गांव में ही मोबाइल वैन भेज कर रैपिड एंटीजन किट से टेस्ट करने की रणनीति अपनाई, लेकिन मोबाइल वैन देखने के बाद लोग घरों में दुबक जाते है। इसके बाद किल कोरोना अभियान से आंगनबाड़ी और आशा कार्यर्ताओं  को घर घर जाकर बीमार लोगों का पता लगाने की जिम्मेदारी दी गयी.

जिले में पिछले साल 653 कंटेनमेंट जोन बनाए गए थे, इसके बाद कंटेनमेंट जोन बनाना बंद कर दिया गया। 18 सरकारी हॉस्टल और 31 मैरिज गार्डन में 1200 बिस्तरों का इंतजाम था, जो खत्म करदिया गया,  जब अप्रैल में केस बढने शुरू हुए तब जिला अस्पताल में केवल 20 बिस्तरों वाला कोविड केयर सेंटर ही रह गया था, ज्यादातर संक्रमितों का इलाज घर पर ही किया जा रहा था। खाली पड़े डाक्टरों और नर्सों के पदों को भी नहीं भरा गया, जिले में पीएम केयर फंड से मिले वेंटीलेटर्स चालू नहीं हो सके थे, चिकित्सकीय जांचों के लिए पर्याप्त मशीने नहीं थीं, आक्सीजन प्लांट भी अधूरा था।

ग्रामीण इलाकों में सामुदायिक स्वास्थ्य में विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं होने से मुश्किलों का सामना करना पड़ा। ग्रामीण क्षेत्रों के डॉक्टरों की डयूटी शहरों में लगा दी गई। बहोरीबंद स्वास्थ्य केन्द्र के तीन डॉक्टरों की कटनी में डयूटी लगाए जाने को लेकर स्थानीय भाजपा विधायक प्रणव पांडेय ने सीएमएचओ को पांच मई को पत्र भी लिखा, और मांग की कि इन डॉक्टरों को ग्रामीण क्षेत्रों में वापस भेजा जाए, लेकिन बीस मई तक भी इस पर कोई निर्णय नहीं हुआ।

केाविड की दूसरी लहर के बाद आनन फानन में 23 कोविड रिस्पांस टीम का गठन किया गया, इनमें पांच टीम शहरी क्षेत्रों के लिए और बाकी ग्रामीण इलाकों के लिए थी।

फिलहाल जिले में केवल 963 बिस्तरों और केवल 07 वेंटीलेटर का इंतजाम है, जिला अस्पताल में इलाज के लिए केवल 21 डॉक्टर और 80 नर्स हैं। विशेषज्ञ डॉक्टरों के 25 पद, मेडिकल आफिसर के दो पद और ट्रामा विशेषज्ञों के 13 पद खाली हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के स्वास्थ्य केन्द्रों की कमान नर्सों के हवाले है। ऐसे में स्वास्थ्य केन्द्र केवल रेफरल सेंटर बन गए हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र घुनौर में स्टाफ नर्स की हृदयघात से मौत के बाद यहां कोई भी कर्मी तैनात नहीं है, इससे मई के महीने में इस पर ताला लगा हुआ है। कमोबेश ऐसी ही समस्याएं हर जगह हैं।

जिला महामारीविद (Epidimiologist) डॉ राशि गुप्ता में बताया कि एक समय इसे नियंत्रित करना मुश्किल लग रहा था, लेकिन साझी कोशिशों से स्थिति नियंत्रण में आई है. स्वास्थ्य सुविधाएं जरुरत के हिसाब से कम थीं, लेकिन यह जुटाई गईं, ८३ डाक्टर और नर्सों की नियुक्तियां करके संकट को कम किया गया, आईसीयू और आक्सीजन बेड की संख्या बड़ाई गयी. ब्लाक लेवल पर संकट प्रबंधन समितियों ने काम किया, इसी का फल है कि अब केवल ७३ पंचायत ही रेड जोन में बची हैं, लेकिन यह समझना होगा कि आंकडें कम हुए हैं, वायरस अब भी मौजूद है, यदि लापरवाही रही तो तीसरी लहर से भी इनकार नहीं किया जा सकता है.

कोविड की लहर में शहरी क्षेत्रों में काम धंधे रुके, आसपास के ग्रामीण इलाकों के रोज शहर आने वाले मजदूरों का काम ठप्प हो गया । अनाज उत्पादन करने वाले किसानों की फसल निकल चुकी थी


, लेकिन सब्जी और दूध उत्पादक किसानों को भारी नुकसान हुआ। बिजौरी गांव में रहने वाले सब्जी उत्पादक किसान राजेश कुशवाहा को अपनी फसल औने—पौने दामों में बेचना पड़ा। पुलिस के डर से अनेक किसान शहरों में अपनी सब्जी लेकर नहीं जा पाए। दूधवाले भी अपना पूरा दूध नहीं बाँट पाए।

मनरेगा ने जरूर ग्रामीण क्षेत्रों में राहत का काम किया। मानव अधिकार समिति के निर्भय सिंह ने बताया कि उनकी संस्था ने जहां कोविड जागरुकता को लेकर काम किया, वहीं जमुनिया ग्राम पंचायत में अप्रैल महीने में मनरेगा का काम खुलवाने में भूमिका निभाई। इससे गांव में तकरीबन 100 मजदूरों को 15 से 20 दिन का काम मिला। हालांकि कोरोना वाले साल में जिले के 1.38 लाख पंजीकृत जॉबकार्डधारी परिवारों में से केवल 5737 को ही पूरे सौ दिन का काम मिल पाया है। पिछले साल जिले में 78 लाख 51 हजार मानव दिवस का रोजगार सृजित किया गया था। निर्भय सिंह का मानना है कि आने वाले वक्त में मनरेगा जिले के लिए बहुत महत्वपूर्ण साबित होगी, क्योंकि शहर की परिस्थितियां बहुत जल्दी सामान्य नहीं होने वाली।

केवल कटनी ही नहीं राज्य के अन्य जिलों में भी हालात ठीक नहीं हैं. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) भोपाल के निदेशक सरमन सिंह का, जो एक वरिष्ठ महामारीविद भी हैं का कहना है कि ग्रामीण इलाकों में महामारी बुरी तरह से फैल चुकी है। यह बेहद मुश्किल भरा है, लेकिन वास्तव में सच्चाई यही है कि ​हमने स्वास्थ्य सुविधाओं को शहर केन्द्रित ही रहा है, ग्रामीण इलाकों में आधारभूत स्वास्थ्य सुविधाओं और मानव संसाधनों के अभाव में महामारी का प्रबंधन बेहद मुश्किल साबित हो रहा है। इस बात को स्वीकार करने में कोई कोई संकोच नहीं है कि कोविड और उससे हुई मौतों की असल संख्या और भी ज्यादा हो सकती है।

श्री सिंह का कहना है कि मध्यप्रदेश में भी देश के अन्य राज्यों की तरह दूसरी लहर को ठीक से समझने में हर स्तर पर गलतियां हुई हैं, समुदाय में कोविड प्रोटोकॉल को पालन करने को लेकर जागरुकता की कमी ने स्थिति को और मुश्किल बना दिया है, दुखद है कि अब भी ग्रामीण क्षेत्रों में इसके प्रति पर्याप्त चेतना नहीं आई है।

प्रदेश में कोविड जांच के लिए आरटीपीसीआर टेस्ट की जगह रैपिड एंटीजन टेस्ट किट के जरिए टेस्टिंग बढ़ाने पर आपकी राय है कि निश्चित तौर पर इस रणनीति पर सवाल उठाए जा सकते हैं, लेकिन मौजूदा परिस्थिति में यही सबसे उचित विकल्प है। आरटीपीसीआर टेस्टिंग के ​लिए जिस तरह का तंत्र होना चाहिए, वह अभी मौजूद नहीं है।

श्री सिंह का कहना है कि जिस तरह की परिस्थितियां बन रही हैं, उसमें अगले कुछ महीनों में तीसरी लहर आने की संभावना बहुत ज्यादा है, और इसकी रोकथाम का एक उपाय ज्यादा तेजी से वैक्सीनेशन करना भी है, लेकिन वैक्सीन की उपलब्धता का भी संकट है। ऐसे में सिर्फ एक मजबूत उपाय कोविड के छोटे—छोटे प्रोटोकॉल यानी मास्क लगाना, शारीरिक दूरी और सोशल गैदरिंग नहीं करना है, लेकिन उसके लिए हर नागरिक को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।

उनका यह भी कहना है​ कि दीर्घकालीन रूप से हमें यह भी देखना होगा कि महामारी के सबक लेकर हम अपनी स्वास्थ्य ​व्यवस्थाओं को कितना मजबूत बनाते हैं, उन पर कितना खर्च बढ़ाते हैं, चिकित्सकीय अनुसंधान और शोध के क्षेत्र पर कितना निवेश करते हैं, फिलहाल तो हमारा ​प्रदर्शन चिंतनीय है। इसके साथ ही मेडिकल सेक्टर के लिए एक अलग कैडर बनाने की भी जरुरत है, क्योंकि चिकित्सा पर ब्यूरोक्रेसी हावी हो जाती है और वह इसे अलग दिशा में ले जाने की कोशिश करती है, इससे मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं। इसके लिए इंडियन मेडिकल सर्विसेस पर भी जल्द ही विचार किया जाना चाहिए। 


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