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लाखों का पैकेज छोड़कर खेती करने वाला क्यों सफल ?

 

राकेश कुमार मालवीय

 


खबरों की दुनिया में ऐसी हेडलाइन आपकी आंखों के सामने अक्सर आती रहती हैं। लाखों का पैकेज छोड़कर गांव आया, खेती की और आज करोड़ों रुपए कमा रहा है। कई मीडिया प्लेटफार्म तो ऐसी खबरों का एक सेक्शन ही बन गया है। इनमें सफलता की रंगबिरंगी कहानियां हैं। नए  प्रयोग हैं, नए आइडिया हैं, नईनई सफलताएं हैं। इन कहानियों को पढ़कर लगता है कि खेती वास्तव में कितना अच्छा काम है, पौधों को बड़ा होते देखना, कुदरत के समीप रहना, बीजों में दानों को आते देखना आदि।

 पर दूसरी ओर ऐसी भी कहानियां अक्सर सामने आती हैं जिनमें लगातार मौसम की मार है, घाटा है, सही दाम का नहीं मिलना है, भारीभारी कर्ज है, खेती से अलगाव है, निराशा है। यह कौनसे किसान होते हैं जो इन परेशानियों में इतने अधिक डूब जाते हैं कि कहीं उनका शरीर किसी पेड़ में रस्सी से लटका हुआ पाया जाता है, तो कहीं जहर खाकर जान दे देने की खबर सुनाई पड़ती है। आखिर क्या वजह है कि एक ही धरती पर, एक ही समाज में, एक ही खेत में एक किसान सफल हो जाता है और दूसरा लगातार घाटा खातेखाते अपनी जान दे देता है। एक के हाथ में सुनिश्चित सफलता क्यों और दूसरे के हाथ में हमेशा निराशा क्यों।

 कोई 24 साल पहले अर्थशास्त्र की कक्षा में शिक्षक हमें पढ़ाते थे कि भारतीय खेती मानसून का जुआं है। वह कहते थे कि पांच साल में दो साल अतिवृष्टि, दो साल अल्पवृष्टि और एक साल ही सामान्य बारिश हुआ करती है। दूसरी बात वह यह कहते थे कि भारत में किसान कर्ज में पैदा होता है, कर्ज में जीता है, कर्ज में मर जाता है और अपनी आने वाली पीढ़ी को भी कर्जदार छोड़ जाता है।

 उस वक्त हमें यह बात ज्यादा समझ में नहीं आती थी, लेकिन यह जरूर समझ आता था कि खेती एक कठिन काम है और इसमें हर दिन चुनौती ही चुनौती है। खेत तैयार कर बीज डालने से लेकर मंडी तक पहुंचाकर बेच देने में हर चरण में चुनौती है। यहां तक कि रुपए घर लाते समय कई बार उसके साथ लूटमार भी हो जाया करती थी।

यह सही है कि बीते बीसपच्चीस सालों ने खेती की तकनीक और तौरतरीकों में आमूलचूल बदलाव किया है। गौ आधारित खेती अब या तो बहुत दूरदराज वाले इलाकों में बची है या वह परंपरागत खेती बचाने वाले प्रयोगधर्मी किसानों के खेतों में ही दिखाई देती है। ट्रेक्टर और नएनए कृषि उपकरणों ने कृषि में मानवीय शरीर से किए जाने वाले कामों को कम कर दिया है। सिंचाई की भी नई तकनीकें विकसित हुई हैं, जिनमें पानी का अधिकाधिक उपयोग किया जा रहा है, लेकिन इसके साथ लागत इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि

सामान्य किसान के लाभ का पूरा गणित ही गड़बड़ा गया है। वह खादबीज के लिए दूसरों पर निर्भर है, महंगा डीजल भारी पड़ता है, दूसरों के द्वारा तय किए गए दाम पर वह अपनी उपज बेचता है, और दाम​ मिलने से पहले ही कर्ज की रकम कट जाती है। इसलिए उसके बहीखाते में उत्पादन का आंकड़ा तो बढ़ा मिलता है, लेकिन लाभ के कॉलम में वह पहले वाली ही स्थिति पर खुद को पाता है। उसकी खेती का वह पुराना तानाबाना तो टूट ही चुका होता है, जो खेती को व्यवसाय नहीं, एक जीवन पदृधति मानता है, जो खेती को आजीविका मानता है।

सरकारों ने भी खेती को व्यवसाय की तरह अपनाए जाने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी है। हरित क्रांति के बाद नगद फसलों का रकबा जबर्दस्त बढ़ा है। पर इन नगद फसलों के बावजूद भी किसान आत्महत्या की खबरें थमी नहीं हैं। इन्हीं पिछले बीसपच्चीस सालों के अंदर भारत में तीन लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। किसान की औसत आय आज भी छह हजार रुपए सालाना पर बनी हुई है। आखिर यह आंकड़े वैसे क्यों नहीं हो पाए, जैसे कि कोई सफल व्यक्ति के करने पर होते हैं। वह आखिर ऐसा कौनसा जादुई चिराग लेकर आता है, जिससे सबकुछ अच्छा ही होते चला जाता है।

 इनमें पहला मामला करता है पूंजी का, उस किसान के पास इतनी पर्याप्त पूंजी होती है जिससे वह अपने खेतों में अपनी जरुरत का काम बिना किसी दबाव के कर पाता है। उसके पास जोखिम लेने की ताकत होती है। वह खेती के हर काम में नए प्रयोग को लागू कर सकता है। वह ज्ञान को जमीन पर उतारता है। उसके पास एक नेटवर्क होता है और दुनिया में ऐसे बेहतरीन कामों के प्रति एक्सपोजर भी। इनका पूरा फायदा वह अपने काम में लेता है। वह अपनी उपज का मोलभाव करने की क्षमता रखता है, क्योंकि उसके पास भंडारण की व्यवस्था है, कर्ज नहीं होने से उसपर वैसा दबाव भी नहीं होता। वह सरकारी योजनाओं का लाभ लेना भी जानता है।

 ऐसा नहीं है कि एक सामान्य किसान ऐसा नहीं कर पाता है। उसकी महत्वाकांक्षाएं भी बढी हो सकती हैं, ज्ञान और कौशल भी, लेकिन पूंजी के अभाव में उसके सपने धरे के धरे रह जाते हैं। वह कृषि के उस जाल से खुद को बाहर ही नहीं निकाल पाता है, जिसमें बहुत कुछ करने के बाद भी थोड़ा सा लाभ होता है।

 

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