राकेश कुमार मालवीय
खबरों की दुनिया में ऐसी हेडलाइन आपकी आंखों के सामने अक्सर आती रहती हैं। लाखों का पैकेज छोड़कर गांव आया, खेती की और आज करोड़ों रुपए कमा रहा है। कई मीडिया प्लेटफार्म तो ऐसी खबरों का एक सेक्शन ही बन गया है। इनमें सफलता की रंगबिरंगी कहानियां हैं। नए प्रयोग हैं, नए आइडिया हैं, नई—नई सफलताएं हैं। इन कहानियों को पढ़कर लगता है कि खेती वास्तव में कितना अच्छा काम है, पौधों को बड़ा होते देखना, कुदरत के समीप रहना, बीजों में दानों को आते देखना आदि।
पर दूसरी ओर ऐसी भी कहानियां अक्सर सामने आती हैं जिनमें लगातार मौसम की मार है, घाटा है, सही दाम का नहीं मिलना है, भारी—भारी कर्ज है, खेती से अलगाव है, निराशा है। यह कौनसे किसान होते हैं जो इन परेशानियों में इतने अधिक डूब जाते हैं कि कहीं उनका शरीर किसी पेड़ में रस्सी से लटका हुआ पाया जाता है, तो कहीं जहर खाकर जान दे देने की खबर सुनाई पड़ती है। आखिर क्या वजह है कि एक ही धरती पर, एक ही समाज में, एक ही खेत में एक किसान सफल हो जाता है और दूसरा लगातार घाटा खाते—खाते अपनी जान दे देता है। एक के हाथ में सुनिश्चित सफलता क्यों और दूसरे के हाथ में हमेशा निराशा क्यों।
यह सही है कि बीते बीस—पच्चीस सालों ने खेती की तकनीक और तौर—तरीकों में आमूलचूल बदलाव किया है। गौ आधारित खेती अब या तो बहुत दूर—दराज वाले इलाकों में बची है या वह परंपरागत खेती बचाने वाले प्रयोगधर्मी
किसानों के खेतों में ही दिखाई देती है। ट्रेक्टर और नए—नए कृषि उपकरणों ने कृषि में मानवीय शरीर से किए जाने वाले कामों को कम कर
दिया है। सिंचाई की भी नई तकनीकें विकसित हुई हैं, जिनमें पानी का अधिकाधिक
उपयोग किया जा रहा है, लेकिन इसके साथ लागत इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि
सामान्य किसान के लाभ का पूरा गणित ही गड़बड़ा गया है। वह खाद—बीज के लिए दूसरों पर निर्भर है, महंगा डीजल भारी पड़ता है, दूसरों के द्वारा तय किए गए दाम पर वह अपनी उपज बेचता है, और दाम मिलने से पहले ही कर्ज की रकम कट जाती है। इसलिए उसके बहीखाते में
उत्पादन का आंकड़ा तो बढ़ा मिलता है, लेकिन लाभ के कॉलम में वह
पहले वाली ही स्थिति पर खुद को पाता है। उसकी खेती का वह पुराना ताना—बाना तो टूट ही चुका होता है,
जो खेती को व्यवसाय नहीं, एक जीवन पदृधति मानता है, जो खेती को आजीविका मानता है।
सरकारों ने भी खेती को व्यवसाय की तरह अपनाए जाने में कोई कोर—कसर नहीं छोड़ी है। हरित क्रांति के बाद नगद फसलों का रकबा जबर्दस्त बढ़ा है। पर इन नगद फसलों के बावजूद भी किसान आत्महत्या की खबरें थमी नहीं हैं। इन्हीं पिछले बीस—पच्चीस सालों के अंदर भारत में तीन लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। किसान की औसत आय आज भी छह हजार रुपए सालाना पर बनी हुई है। आखिर यह आंकड़े वैसे क्यों नहीं हो पाए, जैसे कि कोई सफल व्यक्ति के करने पर होते हैं। वह आखिर ऐसा कौनसा जादुई चिराग लेकर आता है, जिससे सबकुछ अच्छा ही होते चला जाता है।
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