टिकर

5/recent/ticker-posts

News18: यह सिलेक्टिव संवेदनाओं का दौर है...


 राकेश कुमार मालवीय

हम सोचते हैं किअमुक घटना अब तक की सबसे बुरी घटना है, पर उसके बाद उससे भी ज्यादा वीभत्स कहानी हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती है। घटनाएं अब केवल हिंसा के रूप में नहीं वह क्रूर और बर्बर हो चुकी है। यह क्रूरताएं भी ​अपने जघन्यतम स्वरूप में इतिहास बना रही हैं, और उससे भी दुख की बात यह है कि इन घटनाओं पर समाज अब सिले​क्टिव रूप से प्रतिक्रिया दे रहा है, दुख प्रकट कर रहा है। एक घटना के सवाल का जवाब दूसरी घटना को सामने रखकर दिया जा रहा है।

राज्यों में अलगअलग दलों की सरकारों के साथ लोगों का अपना जुड़ाव है,  उनको ध्यान में रखकर ही समाज मौन या मुखर हो रहा है, या इससे अलग प्रतिक्रियाओं को मोड़ने की सोचीसमझी कोशिश की जाती है, पर इन सबसे परे क्या हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि जो कुछ भी घट रहा है, वह एक देश में घट रहा है, वह देश जिसे हर भारतीय प्यार करता है,  क्या उस देश में हाथरस जैसी घटनाओं को स्वीकार किया जाना चाहिए, क्या हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि ऐसी घटनाओं से दुनिया में हमारी क्या छवि बनती होगी ? हमें कैसा समाज माना जाता होगा ?

हाथरस की घटना से हर कोई आहत है। एक दलित लड़की के साथ जिस तरह की कहानी निकलकर सामने आ रही है, वह वाकई मन को झकझोर देने वाली है। कोई भी व्यक्ति जो मानवीय संवेदनाओं में अपनी श्रदधा रखता है, इसे सुनकर चुप नहीं रह सकता है। निर्भया मामले के बाद किसी बेटी की अस्मिता के साथ घिनौने खिलवाड़ का यह क्रूरतम मामला है।

उम्मीद तो यह की जानी थी कि निर्भया के दोषियों को सजा के बाद ऐसी घटनाओं पर रोक लगती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ! एक और घटना सामने आकर खड़ी हो गई। घटना से ज्यादा वह बर्बर व्यवहार था, जो एक पीड़िता के मृत शरीर और उसके परिजनों के साथ हुआ। इससे मामला और संगीन हो गया।

आश्चर्य तो इस बात पर भी हुआ कि कैसे समाज का एक हिस्सा इस घटना पर उठ रहे सवालों को या तो राजस्थान की किसी घटना के साथ बता देता, या महाराष्ट्र की घटना के साथ। क्या किसी एक राज्य की घटना को दूसरे राज्य की घटना का हवाला देकर, गंभीरता को कम किया जा सकता है ? मामला केवल उत्तरप्रदेश का ही नहीं है, यह वही समाज है जो केरल में एक हथिनी की करंट से मौत के मामले पर संवेदनशील हो उठता है, पर उत्तरप्रदेश की पीड़िता उसे दिखाई नहीं देती ! क्या राजनैतिक चश्मों को चेहरों पर चढ़ाकर हमारी मानवीय संवेदनाएं खो जाती हैं ? क्या एक कांग्रेसी विचारधारा का व्यक्ति राजस्थान की वीभत्स घटना पर चुप रहेगा और उत्तरप्रदेश की घटना पर हमलावर हो जाएगा, या एक भाजपाई उनके दलों की सरकार वाले राज्यों में वैसा ही करेगा ?

ठीक है कार्यकर्ताओं की एक राजनैतिक मजबूरी हो सकती है, लेकिन इन दिनों में जब सोशल मीडिया माध्यमों पर आम भारतीय लोगों की प्रतिक्रियाएं भी इन्हीं चश्मों से निकलर आनी शुरू हो जाएं तो यह तय बात है कि एक पार्टी या एक राजनैतिक विचारधारा के रूप में तो हम सफल हो सकते हैं, लेकिन एक देश के रूप में हमारे हाथ में असफलता ही हाथ लगेगी, क्योंकि हम इन घटनाओं की जड़ों तक तो पहुंच ही नहीं पा रहे हैं। 

हाथरस के बाद ही ऐसी कई और घटनाएं सामने आ गईं। मध्यप्रदेश के पन्ना जिले से आज एक बालिका की जंगल में लाश बरामद हुई है। अर्धनग्न शरीर और गले पर टॉवेल से गला घोट दिए जाने से अंदाजा यही लगाया जा रहा है कि इस लड़की के साथ भी हैवा​नियत का वैसा ही खेल खेला गया होगा !

यह वही राज्य है जहां देश में सबसे पहले बलात्कार के मामले में फांसी का प्रावधान किया गया है। पर उसका कोई प्रभाव नजर नहीं आता, आए दिन ऐसी खबरें अखबारों में छपती ही रहती हैं।

मध्यप्रदेश के ही एक अखबार में नरसिंहपुर जिले से एक दूसरी दलित लड़की के साथ गैंगरेप होने ​के ​बाद ​पुलिस द्वारा रिपोर्ट नहीं लिखे जाने की खबर आज छपी है। ​यहां पुलिस ने रिपोर्ट लिखने की जगह पीड़िता के परिजनों को ही लॉकअप में डाल दिया। 

तो मामला केवल कानून बदलकर कठोर सजा का प्रावधान कर दिए जाने से ही हल नहीं होता, जो कानून देश में पहले से हैं, उनको ठीक से अमल करवाने, पीड़ितों के साथ मानवीय व्यवहार किए जाने और पुलिस और प्रशासन पर मानवीय अधिकारों के संरक्षित रखे जाने का भरोसा भी बनाए रखना उतना ही जरूरी है। इसके बिना यह लड़ाई हमें अधूरी ही दिखाई देती है।

दूसरी ओर देखें तो सूचना माध्यमों के अटाटूट विकास और तेजी ने हमारे मन पर इन खबरों के असर को भी कम कर दिया है, जितनी जल्दी यह हमारी आंखों के सामने से होकर गुजर जाती हैं, उतनी ही जल्दी हमारे मन से भी बिना किसी असर के। उस पर कोई गंभीर विमर्श हमें नजर नहीं आता। हो सकता है सप्ताह भर बाद हमें हाथरस को भी हम बिना कोई सबक लिए बिसरा दें। वह हमें किसी ऐसी ही घटना दोबारा हो जाने के बाद ही याद आए, क्योंकि सभ्य, सुशिक्षित और बेहतर समाज बनाए की शिक्षा तो हमें हासिल ही नहीं हो रही है। उल्टे इंटरनेट की दुनिया ने ऐसे रास्तों को खोल दिया है, जहां पर भटकने की अपार संभावनाएं मौजूद हैं, और उन पर किसी का नियंत्रण नहीं है।

मोबाइल फोन पर ताले लगे हुए हुए हैं, कौन क्या देख, सुन, कह रहा है, वह अब समाज तो दूर अपने परिवार की मॉनीटरिंग से भी गायब है। ऐसे में खतरा केवल किसी दलित लड़की को ही नहीं है, यह खतरा किसी भी वक्त किसी की देहरी पर भी दस्तक दे सकता है, क्योंकि हमने अपने देश के खतरों को निहित राजनैतिक नजरिए से देखना, उस पर प्रतिक्रिया देना शुरू कर दिया है।

समाज की ऐसी भटकन के दौर में एक बेहतर समाज बनाने के लिए हमें एक सामाजिक आंदोलन की जरुरत है। इन आंदोलनों में महिलाओं, बच्चों, दलितों, पिछड़ों के उन सवालों पर एक गैर राजनैतिक विमर्श की जरुरत है, लेकिन मुखर होती राजनीति ने इतना स्थान भी रिक्त नहीं छोड़ा है, सरकारें सोचती हैं कि ऐसे विमर्श उनकी खिलाफत हैं, उन विमर्शों को दबाए जाने की पूरी कोशिशें होती हैं, ऐसे में कोई भी समाज बेहतरी के मुकाम पर नहीं पहुंच सकता।

यदि वास्तव में हम अपने देश की प्रतिष्ठा को दुनिया में बने रहने देना चाहते हैं, बढ़ाना चाहते हैं तो हमें समाज में घर करते हिंसक व्यवहार और बर्बर समाज के लिए गहन विमर्श की जरुरत है।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ