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Covid19: कोविड के अंधेरे में रोशनी देती नंदनी की पाठशाला




राकेश कुमार मालवीय 

इनपुट और तस्वीरें : छत्रसाल पटेल, आनंद गोंड

धनोजा एक आदिवासी टोला है। 34 परिवारों में 31 आदिवासी समुदाय से आते है। यहां एक प्रायमरी स्कूल है। पहली से पांचवी तक के 25 बच्चे यहां की प्राथमिक शाला में दर्ज हैं। लॉकडाउन के बाद से ही गांव देश के दूसरे गांवों की तरह उन तमाम संकटों से जूझ रहा है। शिक्षा का संकट भी उनमें से एक है। पर यहां कक्षा आठवीं में पढ़ने वाली एक लड़की ने जो पहल की, वैसे उदाहरण अब हर गांवखेड़ों से निकलने चाहिए।

कहानी कुछ यूं है कि लॉकडाउन के बाद मार्च से ही स्कूल बंद हैं। गांवों में तो हालात और भी खराब हैं क्योंकि बच्चे आनलाइन माध्यम से भी पढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं। शहरी बच्चों के पास भले ही इंटरनेट पैक भी हो, और मोबाइल या लैपटॉप भी, जिसके माध्यम से वह पढ़ाई की रस्मअदायगी कर रहे हों, लेकिन गांवों में जहां दो वक्त की रोटी का संकट अब और गंभीरता से खड़ा हो, वहां डिजिटल माध्यम से पढ़नेपढ़ाने की पहल एक शिगूफा भर है।

दूसरे गांव के स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली चौदह साल की नंदनी ने जब देखा कि तीन माह से भी अधिक समय से गांव के बच्चे शिक्षा से दूर हैं। बच्चे दिनभर गली में घूमते और खेलते रहते हैं। टोले का कोई भी बच्चा पढ़ाई नहीं कर रहा है तो नंदिनी ने टोले के बच्चों को पढ़ाने की इच्छा व्यक्त की। नंदनी के पिता सुरेश गोंड को यह विचार अच्छा लगा। सुरेश ने सोचा यह अच्छा कार्य है जिससे बच्चों की पढ़ाई हो सकेगी।

आज के अखबार में एक और ऐसी खबर छपी है जिसमें मध्यप्रदेश के नीमच जिले में शिक्षकों ने आनलाइन शिक्षा से वंचित होने पर अपने गांव के दसदस बच्चों के समूह को पढ़ाना शुरू कर दिया है। यह एक अच्छी पहल है। इन शिक्षकों ने महसूस किया होगा कि ग्रामीण भारत में डिजिटल माध्यम से शिक्षा अभी दूर की कौड़ी है। 

धार जिले के पत्रकार साथी प्रेमविजय पाटिल ने एक खबर छापी है जिसमें उन्होंने बताया है कि जिले में  प्रवासी मजदूरों के साथ लौटे तकरीबन 23 हजार बच्चों को शिक्षा का अधिकार दिलाया जाना एक चुनौती है। अकेले मध्यप्रदेश में 13 लाख प्रवासी मातापिता घर वापस लौटे हैं, इनके साथ उनके बच्चे भी हैं। अन्य राज्यों में भी स्थिति कमोबेश इससे अलग नहीं होगी। लॉकडाउन के कारण दुनियाभर में 150 करोड़ बच्चों ने स्कूल जाना छोड़ दिया है। इनमें से 70 करोड़ बच्चे भारत, बांग्लादेश जैसे विकासशील देशों में हैं। यह भी बहुत साफ है कि कोरोना की वजह से पढ़ाई का सबसे ज्यादा असर पहले से ही वंचित गरीब बच्चों और खासकर लड़कियों पर पड़ रहा है।

डिजिटल भारत में आनलाइन पढ़ाई का हाल

भारत में स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या करीब 33 करोड़ है। इनमें से सिर्फ 10.3% के पास ही ऑनलाइन पढ़ने की व्यवस्था है। कोविड19 की ये परिस्थितियां हमें डिजिटल इंडिया के बारे में सोचने पर मजबूर कर देती हैं। खासकर ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में तकनीक, और नॉलेज का एक बहुत बड़ा गैप है, ​जो देश को दो भागों में विभाजित कर देता है, लेकिन उन इलाकों में भी जहां पर तकनीक और नॉलेज पर्याप्त रूप से उपलब्ध हैं, वहां भी पूरी तरह से डिजिटल हो जाने में बड़ी समस्याएं सामने आ रही हैं। वहां उनकी ग्राहयता का संकट है। ऐसे बच्चों को डिजिटल माध्यम से कक्षाओं का संचालन एक रस्मअदायगी की तरह हो रहा है। हालात यह हैं कि बच्चे अपनी तरफ से कोई सवाल पूछने में सक्षम नहीं हैं, वहीं कितना समझ में आ रहा है या नहीं आ रहा है उसका कोई भी पैमाना तय नहीं हो पा रहा। ऐसे में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ नहीं होने से जो हो पा रहा है उससे ही संतुष्टि है।

इन बच्चों की शिक्षा के बारे में अभी कुछ कह पाना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि कोविड19 की समस्या के बारे में हम अब भी कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में स्थानीय समुदाय के शिक्षा और उनके सरोकारों से जुड़ी ऐसी छोटीछोटी कोशिशें ही संकट की इस घड़ी में अत्यंत महत्वपूर्ण साबित होंगी। यह केवल सरकार के बूते भी नहीं हो सकता, जबकि कोविड के बाद के भारत के नवनिर्माण को समाज भी अपनी जिम्मेदारी मानते हुए, उसमें अपनी क्षमताओं के मुताबिक भूमिका निभाए।



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