टिकर

5/recent/ticker-posts

EXPOSE: खतरनाक ‘सफाया’


होशंगाबाद (मध्यप्रदेश) से राकेश कुमार मालवीय होशंगाबाद जिले के गांवों में इन दिनों हर किसी की जुबान पर ‘सफाया’ शब्द है। यह शब्द एक दवाई के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इसका नाम पैराक्वाट डायक्लोराड - 24 एसएल नॉन सिलेक्टिव है। यह एक खतरनाक रासायनिक मिश्रण है, जो केवल दो घंटे बाद जिस भी पौधे पर डाला जाए उसकी पत्तियों को पीला कर देता है। अगले बारह से चौबीस में पूरा पेड़ सूख जाता है। 

जिले में मूंग की फसल को काटने के लिए इन दिनों इस रसायन का बेजा इस्तेमाल किया जा रहा है। पिछले साल अच्छे मानसून के चलते होशंगाबाद—हरदा जिले में पानी पहुंचाने वाले तवा बांध में जलस्तर फुल टैंक लेवल तक जा पहुंचा था। 58 मीटर ऊँचे और 1815 मीटर लंबे इस बांध की क्षमता 1993 मिलियन घन मीटर है। सरकारी रिपोर्ट में इसकी वार्षिक अनुमानित सिंचाई क्षमता 3,32,720 हेक्टेयर है। 

मोटे तौर पर इसका इस्तेमाल रवी सीजन में गेहूं की फसल के लिए ही किया जाता रहा है, लेकिन अच्छी बारिश वाले साल में गर्मी में भी दो बार मूंग की फसल के लिए पानी छोड़ा जाने लगा है। इस साल रवी फसल के लिए पानी दिए जाने के बाद भी मूंग की फसल के लिए पानी छोड़ा गया। गर्मी में मूंग की फसल केवल तवा बांध पर आश्रित हो ऐसा भी नहीं है। पिछले साल जब नहरों के सीमेंटीकरण के चलते मूंग फसल के लिए पानी नहीं दिया गया तब भी किसानों ने अपने सिंचाई के साधन से तकरीबन 90 हजार हेक्टेयर रकबे में मूंग की फसल उत्पादित की थी।

 गर्मी की मूंग तकरीबन दो माह की अवधि में पककर तैयार हो जाती है। यही कारण रहा कि अकेले होशंगाबाद जिले में इस साल बड़े पैमाने पर मूंग की फसल बोई गई। होशंगाबाद जिला कृषि विभाग में सहायक संचालक कृषि जेएम कास्दे ने बताया कि इस साल गर्मी में 1,82,262 हेक्टेयर रकबे में मूंग की फसल बोई गई है। विभाग का अनुमान है कि इस साल तकरीबन 27 लाख क्विंटल से ज्यादा उत्पादन होगा जो पिछले साल की तुलना में तकरीबन दोगुना है।

 कृषि विभाग के अनुसार इस साल प्रदेश में ग्रीष्मकालीन मूंग का रकबा चार लाख पचास हजार हेक्टेयर है। इसमें दो लाख साठ हजार हेक्टेयर अकेले नर्मदापुर संभाग के दो जिलों होशंगाबाद एवं हरदा जिले में है। यह कुल फसल बोवनी का तकरीबन पचास फीसदी है। इसके अलावा सीहोर जिले में तकरीबन 32 हजार हेक्टेयर जमीन पर मूंग बोई गई है। कितनी खतरनाक मूंग की खेती होशंगाबाद जिले में खेती—किसानी के मुददे पर काम करने वाली संस्था ग्राम सेवा समिति के राजेश सामले बताते हैं कि ‘मूंग का इस्तेमाल हम बीमारी की अवस्था में ज्यादा करते हैं, लेकिन आपको जानकार आश्चर्य होगा कि इसी फसल पर सर्वाधिक कीटनाशक का छिड़काव किया जाता है।

 इसके पौधे पर सर्वाधिक रूप से इल्लियां और कीटपतंगे हमला करते हैं। इससे बचने के लिए इस फसल पर तीन से चार बार कोरोजिन नामक कीटनाशक का प्रयोग किया जाता है। जवाहर कृषि विज्ञान केन्द्र पवारखेड़ा जुड़े कृषि वैज्ञानिकों ने बताया कि इस दवा का असर एक बार डाले जाने पर 90 दिन तक रहता है। फलियों में दाने भर जाने पर जब इस फसल को काटने की बारी आती है, तो इसपर पैराक्वाट डायक्लोराइड दवा का इस्तेमाल किया जाता है, राजेश सामले बताते हैं कि ज्यादातर नींदानाशक आते हैं वह एक सिलेक्टिव खरपतवार के लिए होते हैं, लेकिन इस दवा को यहां बोलचाल की भाषा में सफाया कहते हैं, क्योंकि इसके सामने जो भी आता है, उसे यह साफ कर देता है। यह एक नॉन सिलेक्टिव खरपतवारनाशक दवा है।‘ 

 होशंगाबाद जिले के हिरनखेड़ा गांव के किसान राम गौर बताते हैं कि उन्होंने अपनी फसल में पांच बार दवा का स्प्रे किया है। ऐसा इसलिए करना पड़ता है क्योंकि फसल पर इल्लियां बार—बार हमला करती हैं। यही हालत और भी किसानों के हैं। किसान सुरेश नागरे बताते हैं कि ‘मूंग की फसल में पौधों में बार—बार फूल आते रहते हैं, एक बार फलियां पक जाने पर यह जरूरी हो जाता है कि उसके पौधे को दवा का इस्तेमाल कर सुखा दिया जाए। मानसून की कवायद और खरीफ फसल के लिए खेत तैयार करने की जल्दबाजी में इतना समय नहीं होता कि मूंग का प्राकृतिक तरीके से सूखने का इंतजार किया जाए।

 कृषि में बढ़ते मशीनीकरण ने भी समस्या को भयावह बना दिया है हारवेस्टर से काटने के लिए फसल का सूखा होना जरूरी है। इसलिए किसान मजबूरी में यह जानते हुए भी कि यह दवा बेहद खतरनाक है, इसका इस्तेमाल करते हैं।‘ थुआ गांव के किसान नीलेश बांके बताते हैं कि इस साल जब निसर्ग तूफान के चलते मौसम बिगड़ा और मानसून के भी तय समय पर आने की खबर आई तो इस दवा की खपत और भी ज्यादा बढ़ गई है। इस साल कोविड19 के चलते फसल काटने के लिए श्रमिक नहीं मिलने से यह दवा एक मजबूरी बन गई है। वह बताते हैं कि इस दवा को इस तरह से बनाया गया है कि इसके इस्तेमाल के बाद यह जमीन में जाकर न्यूट्रीलाइज्ड हो जाती है। इसलिए इससे किसी तरह का खतरा नहीं है। 

 तीन लाख लीटर की खपत खुले बाजार में यह दवा आजकल गांव—खेड़ों की दुकानों तक में आसानी से बिक रही है। किसानों से बातचीत में पता चला है कि तकरीबन दो एकड़ फसल में एक लीटर दवा का छिड़काव किया जाता है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि अकेले पैराक्वाट डायक्लोराइड की होशंगाबाद जिले में तीन लाख लीटर की खपत अकेले इसी मौसम में हुई है। 

कृषि विभाग से जुड़े सूत्रों ने बताया कि दवा की बिक्री का कोई डेटा उनके पास उपलब्ध नहीं है। कई देशों में प्रतिबंधित दवा का बेजा इस्तेमाल बढ़ा रहा संकट रिटायर्ड प्रोफेसर व कृषि मामलों पर लिखने वाले कश्मीर सिंह उप्पल बताते हैं कि मूंग की फसल के लिए यह बहुत खतरनाक स्थिति है। पैराक्वाट डायक्लोराइड एस एल एक बहुत ही खतरनाक दवा है, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इसे क्लास टू खतरनाक जहर की श्रेणी में रखा है। इसका आज तक एंटीडोज नहीं बनाया जा सका है। 

इस दवा का इस्तेमाल खासकर मैदानी इलाकों में घास और खरपतवार खत्म करने के लिए किया जाता है। कई अफ्रीकन, एशियन, यूरोपीय यूनियन, स्विटजरलैंड जैसे कई देश में प्रतिबंध लगा रखा है, और यूएस में इसे इस्तेमाल करने के लिए विशेष अनुमति लेनी पड़ती है। भारत में केवल अकेले केरल में इसका प्रयोग मना है। इतनी खतरनाक दवा का सामान्य तरीके से एक खाने वाली फसल पर इस्तेमाल करना सेहत के लिए सही नहीं है। वह बताते हैं कि इस दवा को सीधे तौर पर पौधे की पत्तियों और फलियों पर डाला जाता है, अब सोचिए कि जिसे फल की अंतिम अवस्था में डाला जाता हो, उसे खाने से मानव शरीर पर कितना घातक असर पड़ेगा। 

 उन्नत कृषि के लिए पदमश्री पुरस्कृत कृषक बाबूलाल दाहिया कहते हैं कि उन्होंने अपने पूरे जीवन में इस तरह की कृृषि नहीं देखी जिसमें दवा का इस्तेमाल करके पौधों को मारा जाता है। यह हरित क्रांति का एक दुष्परिणाम है कि नींदानाशक—कीटनाशक से आगे बढ़कर हम खेती में पौधानाशक तक आ पहुंचे हैं। इसका कारण है कि आधुनिक खेती ने मित्र कीटों को पूरी तरह से खत्म कर दिया है। लालच की खेती ने मानव स्वास्थ्य को एक बड़े खतरे में धकेल दिया है। 

 होशंगाबाद जिले के युवा कृषक आशुतोष लिटोरिया बताते हैं कि इस दवा का इस्तेमाल नहरों के आसपास उगी खरपतवार को साफ करने में भी किया जाता है, क्योंकि यह शार्ट कट तरीका है, लेकिन इससे नहर किनारे की हर वनस्पति का सफाया हो गया, इसके कारण नहरों में मिटटी कटाव तेज हो गया। केवल दस दवाओं के लिए दी गई है मान्यता भारत में नींदानाशक का इस्तेमाल 1937 में पहली बार पंजाब में सोडियम आर्सिनेट के रूप में किया गया था। 1952 में आईसीएआर ने कई तरह के नींदानाशकों को विभिन्न राज्यों में प्रयोग करने के लिए मान्य किया, लेकिन भारत में परंपरागत पदधतियो और खरपतवार साफ करने के लिए श्रमिकों के प्रयोग के चलते इसे किसानों ने बहुत ज्यादा मान्यता नहीं दी थी। 

1960 में एक दवा 2—4डी को आयात किया गया, लेकिन हरित क्रांति के बाद से इस तरह के नींदानाशकों का प्रयोग बहुत ज्यादा तेजी से बढ़ा। वर्तमान में भारत में साठ से ज्यादा नींदानाशकों के सात सौ फाम्र्र्र पंजीकृत हैं। इनमें एक पैराक्वाट शामिल है। भारत में सेंट्रल इंसेक्टीसाइड बोर्ड एंड रजिस्ट्रेशन कमिटी (सीआईबीआरसी) ने पैराक्वाट रसायन को केवल दस फसलों के लिए मान्य किया है। इनमें चाय, काफी, आलू, कपास, रबर, धान, गेहूं, मक्का, अंगूर और सेव शामिल हैं। इसमें मूंग का नाम शामिल नहीं है। सीआईबीआरसी ने इस दवा के इस्तेमाल के लिए कुछ मापदंड निर्धारित किए हैं, लेकिन मूंग की फसल के लिए कोई मापदंड संस्था की वेबसाइट पर दर्ज नहीं है। इस दवा को बेचने वाली कई कंपनियों की वेबसाइट पर इसका अंश मुख्य फसल पर नहीं पड़ने की सलाह दी गई है। 

जिस तरह से इसका सीधा छिड़काव मूंग सुखाने के लिए किया जाता है, वैसा इस्तेमाल दूसरी फसलों पर इस इलाके में नहीं किया जाता है। देश में इसके इस्तेमाल की रिपोर्ट कुछ और कहानी बयां करती हैं। 2015 में पेस्टीसाइड एक्शन नेटवर्क आफ इंडिया (पैन) ने इस दवा के इस्तेमाल पर छह राज्यों में एक अध्ययन किया है। इसके मुताबिक इस दवा का इस्तेमाल तकरीबन 25 तरह की फसलों पर किया जा रहा है। दवा का भरपल्ले उपयोग देश इंडियन इंसेक्टीसाइट एक्ट 1968 का भी खुला उल्लंघन कर रही है। पैन की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सबसे खतरनाक रसायनों में शुमार इस दवा के लिए किसान पूर्ण सुरक्षा साधनों का इस्तेमाल नहीं करते हैं। इसके साथ ही इस दवा की खपत तेजी से बढ़ती पाई गई है। 2007—08 में जहां इस दवा की खपत 137 मीट्रिक टन थी वहीं छह सालों में यह 249 मीट्रिक टन तक जा पहुंची है। 

 सुरक्षा मानकों की अनदेखी इस रिपोर्ट के मुताबिक इस दवा को डालने के लिए पीपीई किट का इस्तेमाल होना चाहिए, लेकिन इसको लेकर किसानों में जागरुकता की भारी कमी है। होशंगाबाद जिले में मूंग की फसल पर इस दवा के इस्तेमाल पर पीपीई किट पहनने की सामान्य प्रैक्टिस नहीं है। यहां पर किसान अपने मुंह पर गमछा और पैरों में चप्पलों की जगह जूते बांधकर इस दवा का छिड़काव पेट्रोल से चलने वाले बैकपंपों से करते हैं, इससे उनका स्वास्थ्य भी एक तरह के खतरे में पड़ता है। 

 कंडीशन आफ पैराक्वाट यूज इन इंडिया रिपोर्ट के लेखक दिलीप कुमार एडी ने बताया कि इस दवा का अब तक कोई एंडीडोज नहीं होने से इसका इलाज अब भी एक समस्या बना हुआ है। इससे लीवर का प्राब्लम, आंखों में जलन, सिरदर्द, सांस लेने में तकलीफ, बैचनी, जैसी समस्याएं होने लगती हैं। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस दवा का इस्तेमाल करने वाले 34 प्रतिशत लोगों ने कहा कि इसके इस्तेमाल के बाद उन्हें कई तरह की शारीरिक दिक्कतों का सामना करना पड़ा है। इनमें से 25 प्रतिशत लोगों को इस बात पर पूरा भरोसा था कि पैराक्वाट के कारण ही उन्हें समस्या हुई है, जबकि 15 प्रतिशत ने आशंका जताई और तीस प्रतिशत ने यह माना कि शायद वह असुरक्षित तरीके से छिड़काव के चलते इस समस्या को झेल रहे हैं। .


..लेकिन इसी इलाके में बिना दवा के मूंग की सफल खेती भी मानसिंह गुर्जर भी इसी इलाके में मूंग की खेती करते हैं। फर्क इतना है कि वह इसमें कोई रासायनिक कीटनाशक या नींदानाशक का इस्तेमाल नहीं करते। इसके बावजूद उनके उत्पादन और अन्य किसानों के उत्पादन में महज एक से डेढ़ क्विंटल का ही फर्क है। होशंगाबाद जिले की बनखेड़ी तहसील के ग्राम गरधा के निवासी हैं। वह पिछले 11 साल से प्राकृतिक खेती कर रहे हैं। सोलह एकड़ के किसान हैं। अपने खेत में केवल प्राकृतिक जीवामृत और उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं। खेत की नरवाई में आग नहीं लगाते। इससे इनकी रासायनिक उत्पादों की लागत कम होती है, खेत में मित्र कीट बने रहते हैं और इल्लियों का हमला भी नहीं होता है। इस बार भी उन्होंने 9 एकड़ में मूंग की फसल लगाई है, जिसमें उन्हें अच्छे उत्पादन की उम्मीद है। मानसिंह गुर्जर की खेती बताती है कि यदि चाहें तो बिना रसायन के भी उत्पादन किया जा सकता है।




एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ