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इस फिल्म का आखिरी एक मिनट न देखें

राकेश कुमार मालवीय फिल्में कम ही देख पाता हूं। जिनकी अच्छी समीक्षा सुनता हूं, उनको भी नहीं देख पाता। पंद्रह दिन पहले एक रेलगाड़ी में दिनभर की यात्रा करना था। दिन की यात्रा में भयंकर बोरियत होती है। इसलिए नेटफिलक्स डाउनलोड कर लिया था। कुछ दिन पहले ही नेटफिल्क्स डाउनलोड किया है। सोचा इसका भी अनुभव लिया जाए। अविनाश दास की शी के सात एपिसोड के अलावा फिर भी कुछ न देखा। पर कल रात सोचा कि कुछ देखा जाए। फिर सोचा क्या। अचानक सैराट फिल्म याद आई। इसकी काफी चर्चा सुनी थी। मराठी में थी। खोजा तो मिल गई। सचमुच यह एक बहुत अच्छी फिल्म है। पर मैं आपको सलाह दूंगा कि यदि आप रात को सोने से पहले यह फिल्म न देखें, क्योंकि इसका आखिरी के दो मिनट का हिस्सा आपकी नींद उड़ा देता है। मेरे साथ यही हुआ। क्या नफरत इस स्तर पर भी चली जाती है। अपने मां—बाप के खून में रंगे मासूम बच्चे के कदम जमीन पर नहीं दिल पर पड़ते हैं। फिल्म के किरदार अर्शी और परसया हर मुश्किल से जूझ जाते हैं, हर बुरे पल को हंसी—खुशी गुस्से और प्यार से झेल जाते हैं, लेकिन धोखा जब प्यार से और पीठ की तरफ से साजिश और चतुराई के साथ आता है, तो वह उसे झेल नहीं पाते। धोखे से सावधान रहना चाहिए। यदि आपने यह फिल्म नहीं देखी है तो एक पैरा में यह बता देता हूं। एक गांव में परसया एक मछुआरा के लड़का है। पर बहुत होशियार। 72 प्रतिशत नंबर लाता है और गांव में क्रिकेट प्रतियोगिता में जीत उसी के कारण होती है। वह लोकल हीरो है। पाटिल गांव का खास व्यक्ति है। धन—दौलत—रसूख। उसकी बेटी है अची। बुलेट से लेकर टेकटर तक चलाती है। कॉलेज की पहली कक्षा में दोनों में प्यार हो जाता है। पर यह पता चलते ही तलवारें खिंच जाती हैं। प्यार इतना गहरा है कि अपने दोस्तों के साथ वह भाग लेते हैं और फिर भागते चले जाते हैं। भागते—भागते ही अपना ​जीवन चलाने लगते हैं। शादी करते हैं। फिर एक बच्चा भी होता है। एक घर भी होता है। फिर अचानक जब लगने लगता है कि जीवन में सब कुछ ठीक हो गया है, उसी वक्त ठीक नहीं होता। उसके मायके के चार लोग आते हैं। घर में बैठते हैं। पानी पीते हैं। चाय पीते हैं। अर्शी अपने मायके के उपहारों को देखती है। सब कुछ ठी होने की खुशी में अर्शी और परसया गले मिलते हैं। और इसके ठीक अगले एक मिनट आपको दहला देते हैं। किचन में खून से लथपथ दोनों की लाशें पड़ी हैं। उपहारों के बीच जाने कहां नफरत के खंजर भी दबाए थो वे शांतिदूत। बच्चे के कपड़े, खिलौने, हाथ के कड़े, उन्हें पूरा ऐतबार था, घर में मासूम बच्चे के होने का, आखिर कौनसी वह नफरत रही होगी, जो मासूम के स्नेह में न पिघल सकी। कितनी—कितनी नफरत। रुपहले परदे की यह कहानी क्या इंसानी बिरादरी की कोई कहानी कहती है, क्या वास्तव में ऐसा कहीं हुआ होगा। सोचिए, जहां करुणा नहीं हो ऐसी दुनिया में जीकर भी क्या किया जाएगा। जहां प्रेम का अंजाम इतना वीभत्स हो, वहां दुनिया में प्रेम के लिए क्या कोई स्थान बचेगा। पता नहीं, निर्देशक ने इस फिल्म का आखिरी दृश्य इतना खौफ से भरा हुआ, इतना दर्दीला क्यों बनाया।

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