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“बेटा, यह तुम्हारे प्रश्नपत्र में कैसा सवाल आया है ?”


- राकेश कुमार मालवीय
“आज समाज में जिस तरह की घटनाएं घट रही हैं उस वातावरण में हमें किसी व्यक्ति पर तुरंत विश्वास करना चाहिए या नहीं.“ अपने विचार द्वारा स्पष्ट कीजिए.
पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले अपने बेटे के हिंदी पर्चे को देखते हुए ऊपर लिखे इस सवाल पर मैं ठहर गया. मैंने उससे पूछा - 
“बेटा यह कैसा सवाल है ! इसका जवाब क्या लिखा ?
“ हमें अपने माता—पिता को छोड़कर किसी पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए,
क्योंकि कौन जाने किसके दिमाग में क्या चल रहा है.“ बेटे ने बताया. 
क्या सभी ने यही जवाब लिखा ? मैंने फिर पूछा- 
“शायद.“ उसने जवाब दिया.  
क्यों भला ?
जवाब मिला “क्योंकि मैडम ने ऐसा ही लिखवाया है.“
मैं सोच में पढ़ गया. क्या यह जवाब सही है ? क्या स्कूल में ऐसा पढ़ाया जाना उचित है ? बालमन के अंदर भर दी गई यह बात कैसा असर करेगी,  और क्या बच्चे पूरी उम्र एक ऐसे समाज में जीते रहेंगे जहां पर एक—दूसरे पर विश्वास करना मुश्किल हो जाएगा ! सभी की अपनी दुनिया होगी, और वहां पर इंसान नितांत अकेला खड़ा दिखाई देगा.
देखा जाए तो यह एकदम नया पाठ भी नहीं है. हमें भी बचपन में बताया जरूर गया कि अजनबी आदमी से होशियार रहो, रेल में कोई अजनबी या संदिग्ध व्यक्ति कुछ खाने को दे तो न खाओे, रेलगाड़ियों में, मेलों में इस तरह के इश्तहार भी कभी—कभार पढ़े ही. पर ऐसा पाठ तो कभी किसी ने नहीं पढ़ाया कि ‘अपने माता—पिता को छोड़कर कभी किसी पर विश्वास नहीं करो.‘
क्या हमारे बर्बर होते समाज ने अब हमें इस स्तर पर पहुंचा दिया है जहां भरोसे की बुनियाद सिरे से हिल गई है.
“क्या हो जाएगा यदि किसी पर भरोसा कर लेंगे.“ मैंने फिर बेटे से पूछा
“कुछ भी हो सकता है. .....कोई पकड़कर ले जाएगा..... हमारे बॉडी पार्ट निकाल लेगा..... मजदूरी करवा सकता है..... भीख मंगवा सकता है. कोई मार भी सकता है.“
मैं हैरान था. बात इतनी आसान भी तो नहीं है. जो कुछ टीवी चैनलों के जरिए, अखबारों के जरिए सनसनीखेज रूप से आता है, दिलचस्प अपराध कथाओं को ‘हनी’ में लपेटकर प्रस्तुत किया जाता है, वहां बच्चे को यह दुनिया भयंकर नजर आएगी तो सही. पर उसका उनके मनोविज्ञान पर क्या असर होगा ?  वह कैसे बच्चे बनेंगे ? उनमें बहादुरी कैसे आएगी ? एक समाज कैसे बनेगा ? क्या समाज के नाम पर केवल माता—पिता होंगे उसमें भरोसे लायक कोई तीसरा आदमी भी नहीं होगा, इसे मैं कैसे समझूं ?
यदि इसे ऐसे देखें और समझें कि एक बेहतर समाज होने का मानक एक दूसरे पर विश्वास बढ़ता जाना माना जायेगा या भरोसे का सिमटता जाना होगा ? भले ही जिसे हम भौतिक विकास  मान लें जिसमें दुनिया भर के ऐशो आराम की वस्तुएं शामिल हों और बच्चों के लिए नई नई तकनीक वाले खिलौने तो उनसे तो दुनिया लबालब भर ही गई है,  पर दूसरा पहलू जो हमें खाली दिखाई दे रहा है जो एक नए किस्म का आसन्न संकट है क्या क्या कम गंभीर नहीं है ?
संकट तो बेहद गंभीर है ही. इस साल जब दुनिया अंतरराष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते के तीस साल पूरे कर रही है, जिस समझौते में बच्चों के लिए एक बेहतर दुनिया बनाने का वायदा किया था, भारत उसे कितना पूरा कर सका, इस एक बच्चे की मानसिकता से ही हम समझ सकते हैं जहां यह रटवाया जा रहा है कि किसी पर भी भरोसा मत करना, इस दुनिया को जब भी मौका मिलेगा वह उसके साथ कुछ ऐसा गलत व्यवहार करेगी जो उसके बिलकुल भी अनुकूल नहीं होगा, बच्चे को पकड़ लिया जाएगा, अंग निकाल लिए जाएंगे, उसे मंडियों में बेच दिया जाएगा, भीख मंगवा ली जाएगी, उसका बाल विवाह कर दिया जाएगा, उससे मजदूरी करवाई जाएगी, उसका रैप कर दिया जाएगा.
आइये देखते हैं देश में बच्चों के प्रति अपराधों ने कितना विकास किया है, इसे हम आंकड़े देखकर ही समझ सकते हैं. सूचना क्रांति के बाद इतना विकास शायद ही किसी दूसरे सेक्टर ने किया हो. एनसीआरबी के पंद्रह सालों के आंकड़ों का विश्लेषण यह बताता है कि देश ने 2001 से लेकर 2016 तक के अपने सफर में बाल अपराधों में 889 प्रतिशत की वृद्धि की है.
आप बताईये, और किस-किस मानक ने इतना उछाल हासिल किया ? संख्या में देखें तो देश में वर्ष 2001 में बच्चों के प्रति अपराध के 10814 मामले ही एक साल में दर्ज थे. जो वर्ष 2016 में बढ़कर 106958 हो गए.
अब आप समझ गए होंगे कि इन दिनों बच्चे किसी पर भरोसा नहीं करने का रट्टा क्यों लगा रहे हैं ? हो सकता है कि 2016 के बाद इसमें और भी ज्यादा उछाल आया हो, वह तो तब ही पता चलेगा जब एनसीआरबी के नए आंकड़े आएंगे.
जोड़ा जाये तो सोलह साल में देश में तकरीबन छह लाख बच्चों का किसी न किसी तरह शिकार किया गया. इस दौरान बच्चों के प्रति अपराध के कुल 595089 मामले दर्ज किये गए. इनमें से सबसे ज्यादा मामले मध्यप्रदेश (95324), उत्तरप्रदेश (88103), महाराष्ट्र (74306), दिल्ली (59347) छत्तीसगढ़ (31055) में दर्ज किये गए. और लाखों अपराध दर्ज ही नहीं हैं जिन्हें समाज में अपराध माना ही नहीं जा रहा जैसे कि बाल मजदूरी या बाल विवाह. राज्य या धर्म कोई भी हो, चाहे वहां कोई भी भाषा बोली जाती हो, बच्चों को किसी ने भी नहीं छोड़ा.
इस अवधि में बच्चों के साथ बलात्कार और गंभीर यौन अपराधों के मामलों में 1705 प्रतिशत की, अपहरण के मामलों में 1823 प्रतिशत की वृद्धि, बताईये भला बच्चों के किस तरह का समाज हमने बना डाला.
ऐसे में यदि बच्चे किसी पर भी भरोसा नहीं करने का जवाब दें, तो हम उसे खारिज करें भी तो कैसे ?  हम शायद इस लायक नहीं. माफ करना बच्चों, हम तुम्हें एक बेहतर दुनिया देने में असफल साबित हो रहे हैं.

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