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‘बाल सगाई’ भी किसी त्रासदी से कम नहीं


राकेश कुमार मालवीय

विश्व महिला दिवस पर मैं आपको एक शब्द से परि​चित कराना चाहता हूं, इस शब्द को मैंने किसी डिक्शनरी में नहीं पढ़ा था, न ही पहले कभी गूगल पर ही खोजा ! हो सकता है आप भी इससे परिचित न हों। कुछ दिन पहले जब मैंने बच्चों के मुंह से ही यह शब्द सुना तो थोडी देर के लिए मेरा माथा भी झन्ना गया था। इसलिए क्योंकि हम छुटपन में विवाह कर देने के रिवाज को ‘बाल-विवाह’ जैसे बड़े शब्द से ही परिभाषित कर आए हैं। मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले के एक छोटे से गांव रलायता भोजा में बातचीत के दौरान बच्चे और बच्चों में भी खासकर लड़कियां बार—बार ‘बाल-सगाई’ की समस्या को रेखांकित करने की कोशिश कर रही थीं, उनकी बातों से ही मैं यह समझ पाया कि यह भी उतनी ही गंभीर समस्या है, जितना कि बाल विवाह। यह इस कुप्रथा की ऐसी कड़ी है जिस पर न कोई सजा का प्रावधान है, न इस पर कोई अभियान ही चलाया जाता है, न इस पर कोई खबर छपती है।
मैं उस बच्ची का नाम यहां पर नहीं खोलूंगा। उसने हमें मिडिल स्कूल की एक भरी हुई कक्षा में लड़कों और शिक्षकों की मौजूदगी में बताया कि उसकी कई सहेलियों की बाल सगाई हो गई है, उसकी बात में गुस्सा भी थी, निराशा भी और चिंता भी। उसकी अन्य सहपाठियों ने भी उसकी हां में हां कहकर कुछ और भी बातें जोड़ीं।  ऐसे मुद्दों पर बच्चे खुलकर राय नहीं रखते। उनका नजरिया भी नहीं होता, क्योंकि बच्चों की राय को समाज में कोई तवज्जो मिलती भी नहीं। पर इन बच्चों के साथ लगातार सहजता के साथ एक स्वस्थ वातावरण में संवाद का लगातार सिलसिला चलाया जाए तो वह मुखरता के साथ अपनी अभिव्यक्ति को सामने लाते हैं। उनकी एक दृष्टि होती है, एक समझ होती है। 
रलायता भोजा गांव की यह लड़कियां बाल विवाह की हमारी समझ पर भारी पड़ रही थीं। हम उन घटनाओं का अनुमान भी नहीं लगा पाते, जो लोग उससे होकर गुजरते हैं, वही इसे बेहतर समझ सकते हैं। बाल सगाई की यह चिंता शायद उन लड़कियों को इसलिए भी तो मन ही मन डराती होगी, अभी उनकी सहेली है, कल को वह भी हो सकती हैं। बाल सगाई के बाद उनकी पढ़ाई भी छूट जाती है, और घर से निकलना भी मुश्किल।
पर क्यों होता है ऐसा ? कोई बहुत पिछड़ा गांव भी तो नहीं। उज्जैन से लगा हुआ ही तो है। स्कूल है, सड़क है, खेती—किसानी है, पढ़ाई—लिखाई है, फिर यह बाल सगाई क्यों है ? क्योंकि टीवी पर सुनते हैं न लड़कियों के साथ रेप हो जाता है ! इससे मां—बाप डर जाते हैं। कहीं उनकी बेटियों के साथ यह न हो जाए। वह कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगी। उफ़। इतनी सी उमर और यह बेटियां क्या बातें कर रही हैं ? कहां देख—सुन लिया यह सब—कुछ। कहीं और नहीं, हमारे आसपास की ही घटनाएं हैं। इन लड़कियों के पास कहानियों की कमी नहीं हैं। घर से निकलने से लेकर—खाना बनाने, पानी लाने इसके साथ साथ पढ़ाई करने का जज्बा भी। स्कूल में भी शौचालयों में पानी नहीं होने से उनका इस्तेमाल नहीं कर पाना, और दिन भर अपनी एक प्राकृतिक क्रिया को रोके रखने की मजबूरी।
यही बच्चियां तो इस देश की आधी आबादी कहलाती हैं। यही महिलाएं बनती हैं, और यहीं से हमारा समाज वह शुरूआत कर देता है, जिसके आगे महिला दिवस मनाने जैसा कुछ बचता नहीं है। कम उम्र में सगाई, पढ़ाई का छूट जाना, बाल विवाह का होना, कम उम्र में मां बन जाना, घर परिवार संभालना और इसी संभालने में एक दिन मर जाना।
सोचिए ऐसी कितनी कहानियां होती होंगी। सगाई होने से लेकर बचपन में ही ब्याह देने भर के बीच में क्या—क्या घटता होगा। 2011 की जनगणना के मुताबिक उस वक्त देश में ऐसे 1 करोड़ 22 लाख बच्चे थे, जिनकी तय उम्र से पहले शादी हो चुकी थी, यानी बाल विवाह। इनमें से 5157863 लड़कियां थीं और 6949318 लड़के थे। देखना होगा कि 2021 में जब नयी जनगणना होगी, तब यह कितना कम ज्यादा होगा। बहुत फर्क इसलिए भी नहीं पड़ने वाला क्योंकि इसे रोकने का वायदा तो किसी भी राजनैतिक दल ने प्राथमिकता के साथ कभी किया ही नहीं।
इस बार जब आप मतदान करेंगे तो कृपया यह भी ध्यान रखिएगा कि किसी राजनैतिक दल ने बच्चों की बातों को प्रमुखता से रखा है। कौन है जो बच्चों की दुनिया को बेहतर बनाने की बात कह रहा है, क्योंकि जब भी हम एक नजर उस तरफ करते हैं, तमाम विकास के बाद वह दुनिया हमें बदरंग ही नजर आती है।

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