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BLOG : जी हां, यह हिंदुस्तान का ही एक मकान है...


मोबाइल फोन पर भेजी गई इन तस्वीरों को देखकर दिल पीड़ा से भर गया. लगा कि क्या हिंदुस्तान ऐसा भी है. 75 साल की यह बूढ़ी मां है कि भारत मां है? यदि वास्तव में इसे हम मां कहते हैं तो आखिर क्यों यह डरावनी सी तस्वीर अब भी मौजूद है. सोचिए कि अब जब सूरज आग निगलने को है तो इसका बिना कवेलू वाला घर इन्हें तपती लू से कैसे बचाएगा? गर्मी खत्म होते ही बारिश की बूंदें इस बूढ़ी मां के लिए क्या प्रकोप लाएंगी? सिर पर एक अदद छत होना कितना जरूरी है, यह इसे देखकर समझ आ रहा होगा.

हमारे हिंदुस्तान में तकरीबन 17 लाख ऐसे लोग हैं जिनके पास घर नहीं हैं. यह 2011 की जनगणना का आंकड़ा है. दिलचस्प यह है कि इन 17 लाख लोगों के अलावा भी पन्नियों या ऐसे कच्चे घरों में रहने वालों की एक बड़ी संख्या है जिन्हें यह जनगणना बेघर नहीं मानती. तस्वीर देखकर आप तय कर लीजिए कि इसे घर कहा जाएगा या नहीं कहा जाएगा. हम सोचते हैं कि केवल शहरों में ही बेघरबार लोग सड़कों पर सोते हैं, जिन्हें सड़कों या गलियारों में सोने से रोकने के लिए कीलें ठुकवा दी जाती हैं. 2022 तक का समय तो दे दीजिए. यह वह साल होगा जब हमारी सरकार सभी के लिए आवास की व्यवस्था कर देगी, पर क्या सचमुच?



 यह मध्यप्रदेश के पन्ना जिले का बृजपुर गांव है. इस इलाके में हीरा निकलता है. इसी पंचायत में आने वाले ग्राम धनौजा भटिया टोला निवासी सूतरानी की उम्र 75 साल की है. इनके पति नहीं हैं. मध्यप्रदेश में विधवा महिलाओं का नाम बदलकर ‘कल्याणी’ कर दिया गया है. यह मत पूछिए कि क्या नाम बदलने से हालात बदल जाते हैं? कल्याणी सूतारानी नौ माह से सामाजिक सुरक्षा पेंशन के लिए दर-दर भटक रही है. सामाजिक सुरक्षा पेंशन की तीन सौ रुपये की रकम का उनके लिए क्या महत्व होगा, यह आप उनके घर की हालत देखकर लगा लीजिए. हमारा खाया—पिया अघाया मध्य वर्ग ऐसी रकम और सस्ते अनाज को सरकारी खजाने का लुटना मानते हैं. इस पर जिस आसानी से वह सवाल उठा देते हैं, वैसे सवाल करोड़ों रुपयों की गड़बड़ पर नहीं उठाते. (हालांकि सूतरानी को राशनकार्ड होने के बावजूद भी सस्ता अनाज नहीं मिलता.) महज तीन सौ रुपये की इस रकम को ही सरकार ने 9 महीने से बंद कर रखा था. स्थानीय स्तर पर काम कर रहे कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस पर पहल की और इस बूढ़ी मां को पेंशन दिलाई. सूतरानी का एक चालीस साल का बेटा है, जिसका मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं है.

पेंशन तो मिल गई, पर क्या आवास मिल पाएगा. इन तस्वीरों को देखकर ही पता चलता है कि इस बूढ़े शरीर को एक अदद आवास की कितनी जरूरत है. शहरों में तो सुप्रीम कोर्ट की फटकारों के बाद कुछ रैन बसेरे बन भी जाते हैं, कुछ विकल्प खड़े भी हो जाते हैं, लेकिन गांव में स्कूल भवन के अलावा कोई ऐसी जगह भी नहीं होती जहां कि खुद को विपदा से बचाया जा सके. गांव से पलायन करके लोग शहरों की तरफ भाग रहे हैं. 2001 में शहरी इलाकों में 7.78 लाख बेघर लोग थे, यह संख्या दस साल बाद बढ़कर 9.38 लाख हो गई. ग्रामीण भारत में बेघर लोगों की संख्या में कमी आई और यह 11.6 लाख से कम होकर 8.34 लाख रह गई. पर अब भी सभी को आवास दिलाना दूर की कौड़ी है.
लोकसभा में दिए गए एक सवाल के जवाब में ग्रामीण विकास राज्यमंत्री रामकृपाल यादव ने जानकारी दी है कि प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत वर्ष 2014—15 में 25 लाख मकान बनाए जाने का लक्ष्य था इनमें से 16 लाख मकान बन पाए, इसके अगले साल 21 लाख मकान बनाए जाने का लक्ष्य था इसमें से 18 लाख मकान बनाए गए, साल 2016—17 में लक्ष्य को बढ़ाकर 43 लाख कर दिया गया, इसमें से 28 लाख मकान बनाए गए.

लक्ष्य को बढ़ाना अलग बात है, लेकिन इसके समानांतर व्यवस्था को सुधारा जाना अलग. देखने में आया कि इस लक्ष्यपूर्ति के लिए तरह—तरह के तरीके निकाले गए. केवल सामने की दीवार पर चूना पोतकर मकान को पूरा होना बता दिया गया, और रकम भी निकाल ली गई. बने—बनाए मकान पर प्रधानमंत्री आवास का ठप्पा लगा दिया गया. चुनौती इस बात की भी कि यदि इतने बड़े पैमाने पर मकान बनाए जा रहे हैं तो आखिर सूतरानी जैसी बूढ़ी मां, जिनको एक छोटी पर अच्छी छत की दरकार है, उनके हिस्से का आवास कहां गया.



Published on : Khabar NDTV 

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