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भाग दस - कश्मीर घाटी-आतंकवादियों का प्रवेश द्वार


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आज हम कश्मीर घाटी को भारत में आतंकवाद व आतंकवादियों का प्रवेश द्वार मान रहे हैं। वहां के बदलते या बनते-बिगड़ते हालातों पर अब तो जैसे किसी का कोई बस नहीं रहा। हाल ही संपन्न विधानसभा चुनावों में हुई विशाल भागीदारी के बावजूद कि इस समस्या का कोई हल निकलता नजर नहीं आ रहा है।

पिछली सरकार ने सुप्रसिद्ध पत्रकार दिलीप पडगांवकर की अध्यक्षता में कश्मीर समस्या का समाधान ढूंढने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था। इस समिति ने कई मायनों में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थापनाएं की हैं, लेकिन हम सबका दुर्भाग्य है कि उनके इस सारगर्भित कार्य पर सार्वजनिक विमर्श ही नहीं हुआ। और यह समस्या आज सुलझने के बजाए और उलझती जा रही है।

चुनाव हो जाने व नतीजे सामने आ जाने बाद भी हफ्तों तक नई सरकार का गठन न होना साफ दर्शा रहा है कि हमारे देश में राजनीतिक परिपक्वता की कभी भाजपा व कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों में भी साफ दिखाई पड़ रही है। इस 19 जनवरी (2015) को घाटी से 4 लाख कश्मीरी पंडितों की बेदखली की 25 वीं साल पूरे हो गए हैं।

देश के उत्तरपूर्व एवं अन्य कई भागों में भी लंबे समय से असंतोष शांत नहीं हो पा रहा है। हम सबकी भी समस्या यह है कि जानकारी के अभाव में हम एक पक्ष के साथ और दूसरे के विरुद्ध हो जाते हैं। जम्मू कश्मीर को लेकर तो यह और भी एकतरफा है।

वास्तविकता यह है इस अलगाव की नींव आजादी के एक माह पूर्व जुलाई 1947 में ही डलना प्रारंभ हो गई थी। इस घटना एवं सन् 1947 में जम्मू में मुस्लिम आबादी के साथ हुए व्यवहार को केन्द्र में रखकर स्वामीनाथन अंकलेसरिया अय्यर का एक लेख 18 जनवरी 2015 को टाइम्स आफ इंडिया में छपा है। आवश्यकता इस बात की है कि इस लेख पर गौर किया जाए और जिन ग्रंथों के आधार पर उन्होंने महत्वपूर्ण विवेचना की है उसका अध्ययन कर समाधान की दिशा में नए सिरे से प्रयास किये जाएं।

विचारणीय है विदेशी धरती से प्रायोजित होने वाला आतंकवाद आखिर हमारे देश में किस प्रकार अपने पैर जमा लेता है। इससे निपटने के लिए हम अपने देश की फौजों को अपनी सीमाओं पर हमेशा बैरकों से बाहर रखने को मजबूर और अपने ही देश के नागरिकों पर सशस्त्र बल (विशेषाधिकार) अधिनियम जैसे दमनकारी कानून लागू करने को क्यों विवश हो जाते हैं।  जबकि वास्तविकता यह है कि समाधान सीमा या सीमापार से नहीं निकल सकता उसका हल तो देश की आंतरिक परिस्थिति और राजनीति में ही छुपा है।

हमारी समस्या है बगल में छोरा और शहर में ढिंढोरा। हम मानते है कि जड़ वहीं होती हैं जहां पर कि हमें पेड़ खड़ा दिखता है। कोई सीधा या एक उत्तर इसका समाधान नहीं निकाल सकता। यह कई जटिलताओं का घालमेल है और यह जटिलताएं स्थानीय से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय तक हो सकती हैं।

अभी हम आक्रामकताओं या मिलिटेंसी के कुछ और प्रतीकों पर विचार करते हैं। आजादी के कुछ समय पहले से भारत में सांप्रदायिकता का नया दौर प्रारंभ हुआ। कांग्रेस का एक वर्ग जो भारत की आजादी के लिए संघर्षरत था, वह आजादी के बाद अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर काफी चिंतित था। वहीं दूसरी ओर एक और वर्ग इस बात को लेकर लालायित था कि आजादी के बाद के भारत के स्वरूप का निर्धारण बहुसंख्यकों में प्रचलित धर्म के आधार पर हो।

इन्हीं विवादों के चलते भारत में आजादी के पूर्व ही दो राष्ट्रों का सिद्धांत प्रचलन में आया और इसके लिए प्रयत्न भी शुरु कर दिए गए। (इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता वर्तमान समस्या के विश्लेषण के लिए जरुरी नहीं है।) गौरतलब है सन् 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम हमने मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में लड़ा था और इसमें हिंदू, मुस्लिम दोनों ही कौमों के खास व आम दोनों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेकर गंगा जमुनी तहजीब की एक मिसाल कायम कर दी थी। इसके बाद से अंग्रेजों ने बाँटो और राज करो को बहुत चतुराई से अपनाया और 90 बरस के भीतर भारत दो मुल्कों और अब तीन मुल्कों में बंट गया। भारत पाकिस्तान बटवारे के पहले और उसके तुरंत बाद हुए दंगे हमें साफ बताते हैं कि सांप्रदायिकता आखिर हमें किस पतन तक ले जाती है।

by Chinmay Mishra 
to be continued. 

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