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भाग 14 - मूक आक्रामकता स्वास्थ्य सेवाएं

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इसी तरह की एक अन्य मूक आक्रामकता है हमारी स्वास्थ्य सेवाएं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि भारत में प्रतिवर्ष 4 प्रतिशत नागरिक सिर्फ स्वास्थ्य सेवाओं को पाने के लिए गरीबी रेखा के नीचे आ जाते हैं। प्रतिशत को संख्या में बदले तो यह 4 करोड़ से ज्यादा बैठती है। 

गांवों की करीब 40 प्रतिशत व शहरों की तकरीबन 30 प्रतिशत संपत्तियां उपचार करवाने के लिए बेचनी पड़ रही हैं। इसके बावजूद भारतीय कुलीन तंत्र पूरी आक्रामकता से स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के लिए प्रयासरत है। 

हमारे देश में मातृत्व मृत्यु दर एवं शिशु मृत्यु दर के आंकड़े दिल दहलाने वाले हैं। औसत आयु का बढ़ना एक सकारात्मक कदम है। इसके बावजूद भारत के सबसे कम आय वाले कालाहांडी से लेकर सर्वाधिक समृद्ध राज्य/शहर दिल्ली और मुंबई की एक साझा समस्या पहुंच से बाहर होता उपचार ही तो है। परंतु हम इसे विकास की एक प्रक्रिया मानते हैं जबकि वास्तव में यह समाज के समृद्ध वर्ग की आक्रामकता ही है। 

इसे कुछ अन्य उदाहरणों से भी समझने का प्रयास करते हैं। पिछले दो दशकों के दौरान देश के लिंगानुपात में जबरदस्त असंतुलन सामने आया है। इसे मामले में कन्याभ्रूण हत्या को सर्वाधिक जिम्मेदार ठहराया गया है। भ्रूण के लिंग की जानकारी भी आधुनिक चिकित्सा पद्धति से मालूम पड़ती है और गिराने का काम भी सामान्यतया कुशल चिकित्सको द्वारा ही अंजाम तक पहुंचाया जाता है। अंग प्रत्यारोपण में हो रही खरीद-फरोख्त भी कमोवेश गरीब व वंचितो के खिलाफ आक्रामकता ही है। किडनी बेचने/निकालने के अनेको मामले हमारे सामने आते हैं। 

हाल ही में सरोगेसी के माध्यम से मां बनना भी बड़े पैमाने पर सामने आया है। यह भी कहीं न कहीं महिला के शरीर पर आक्रमण ही तो है। हम यह कह सकते हैं कि जैसे-जैसे हम उपचार रहे हैं वैसे-वैसे मर्ज भी बढ़ता ही जा रहा है। हम इसे व्यवस्था की एक चूक मानकर इसकी अनदेखी कर रहे हैं। 

पिछले दिनोेें आक्सफेम ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि विश्व के मात्र एक प्रतिशत व्यक्तियों के पास बाकी 99 प्रतिशत की कुल संपत्ति के बराबर संपत्ति हो गई है बौर अगले दो वर्षाे में इनके 52 प्रतिशत तक पहुंच जाने की उम्मीद है। इस रिपोर्ट में यह उल्लेख भी है कि इन 14 प्रतिशत समृद्धतम व्यक्तियों में सर्वाधिक औषधि व चिकित्सा क्षेत्र में व्यवसाय करने वाले हैं। 

यहां पर ध्यान देना योग्य बात यह है कि दुनिया के समृद्धतम देशों मे से एक अमेरिका में भी तकरीबन 40 प्रतिशत लोग उपचार करवा पाने में असमर्थ होते जा रहे हैं। हमें विचार करना होगा कि अपने आर्थिक हितों की खातिर क्या हम किसी अन्य व्यक्ति को इलाज के अभाव में सड़क पर मरता छोड़ दें या औषधि निर्माता कंपनियां नई औषधि के विकास के लिए गरीब मुुल्कों के असहाय नागरिकों का इस्तेमाल अनैतिक/गैरकानूनी क्लिनिकल ट्रायल में गिनीपिग की तरह करने के लिए मुक्त हैं? स्वास्थ्य के क्षेत्र मेे बढ़ती आर्थिक आक्रामकता आज ऐसे नए सवाल खड़े कर रही हैं, जिसका समाधान हममें से प्रत्येक जानता है। 

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