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भाग 13 - हरि‍त क्रांति‍ की पीड़ा

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आक्रामकता या मिलिटेंसी को लेकर उपरोक्त कुछ सीधे व साफ-साफ नजर आने वाले प्रतीकों पर हमने अभी तक चर्चा की है। ये दिखते भले ही साफ व सपाट हों लेकिन वास्तव में इनकी संरचना अत्यंत जटिल है। आजादी के बाद विकास की जिस अवधारणा को हमने अपना मानक बनाया उसकी एक सीधी परिणिति हम माओवादी हिंसक प्रतिकार में देख चुके हैं। परंतु इसी विकास के नए मानकों के रूप में हरित क्रांति हमारे सामने आई। क्रांति ने अपने चरित्र के हिसाब से इसको आक्रामकता ही प्रदान की। 

हमारे यहां हमेशा कृषि को उत्तम कहा गया है और बाकी सभी व्यवसायों को इससे कमतर माना गया। काफी हद तक यह बात ठीक भी है क्योंकि कृषि संभवतः एकमात्र ऐसा उद्यम है जो कि सीधे उत्पादन से जुड़ा है बाकी के सभी कहीं न कहीं पुर्नउत्पादन की प्रक्रिया में है। महान कथाकार प्रेमचंद ने सन् 1932 में अपने एक लेख में लिखा था, ’’भारत के अस्सी फीसदी आदमी खेती करते हैं। कई फीसदी वह हैं जो अपनी जीविका के लिए किसानों के मोहताज हैं, जैसे गांव के बढई, लुहार आदि। 

राष्ट्र के हाथ में जो कुछ विभूति है, वह इन्हीं किसानों और मजदूरों की मेहनत का सदका है। हमारे विद्यालय, हमारी पुलिस और फौज, हमारी अदालतें और कचहरियां, सब उन्हीं की कमाई के बल पर चलती हैं। लेकिन वही जो राष्ट्र के अन्न व वस्त्रदाता हैं, भरपेट अन्न को तरसते हैं, जाड़े पाले में ठिठुरते हैं और मक्खियों की तरह मरते हैं।’’ 

आज 80 साल बाद परिवर्तन सिर्फ इतना आया कि कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या मे 15 प्रतिशत तक की कमी आई और पहले जहां किसान अपनी मौत मरते थे, उसके बजाए वे आत्महत्याएं कर रहे हैं। सन् 1995 से अब तक करीब तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। गौर करिएगा कि भारत के इतिहास में कभी भी किसान द्वारा आत्महत्या किए जाने का संदर्भ नहीं मिलता जबकि अनेक भयावह अकाल के वृतांत हमारे सामने आते हैं।

इन आत्महत्याओं या किसानों की हताशा एकाएक चरम पर नहीं पहुंची। पहली हरित क्रांति ने जिस प्रकार की कृृषि का मॉडल हमारे सामने रखा था, उसके परिणामस्वरूप सबसे पहले पंजाब से छोटे किसानों का पलायन प्रारंभ हुआ और इन पलायनकर्ताओं द्वारा देश भर में खोले गए ’’शेरे पंजाब ढाबा’’ इस पलायन का जीवंत प्रमाण हैं। 

औद्योगिक खेती में पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान विकसित हुए रसायनों का प्रयोग कीटनाशकों व रासायनिक खादों में हुआ। इसी की साथ संकर बीज भी प्रचलन में आए तो अत्यधिक प्राकृृतिक संसाधनों की मांग करते थे। इस प्रकार की खेती की आक्रामकता का स्वाद हम भोपाल गैस त्रासदी के रूप में चख चुके हैं। इसी के समानांतर इस नई कृषि ने अपने आक्रामक स्वरूप को प्रदर्शन करते हुए भारत के किसानों से उसकी स्वायत्तता छीन ली और वह बीज, खाद, पानी बिजली, सभी के लिए आक्षित हो गया। 

संकर बीजों के बाद हाईब्रीड और अब उसे जीनांतरित यानि जी एम बीजों की ओर धकेला जा रहा है। यह आक्रमकता यदि आर्थिक ही होती तो उससे निपटने के उपाय किए जा सकते थे। परंतु खतरनाक बात यह है कि इस प्रकार की खेती से मिट्टी की उर्वरता नष्ट होती गई। आज पंजाब में मिट्टी की उर्वरता महज 0.90 प्रतिशत रह गई है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि यदि आप मिट्टी में खाद नहीं डालेंगे तो वहां अब उनसे एक दाना भी उपजाया नहीं जा सकता। 

शर्मनाक यह है अब भी हम यह माडल पूरे देश में दोहराने की बात कर रहे हैं। हमारे प्रचार माध्यमों ने हमे यह विश्वास दिला दिया हैै कि इसका अब कोई विकल्प नहीं है। वही दूसरी ओर हमें सोचना होगा कि यदि मिट्टी की उर्वरता इसी रफ्तार से घटती रही तो हम आगामी 50 वर्षो में अपने 150 करोड़ लोगोें को क्या और कैसे कुछ खिला पाएंगे। मगर अर्थव्यवस्था में 5-6 प्रतिशत की वृद्धि दर के लालच ने हमें अंधा बना कर रख दिया है। याद रखिए खाद्यान्न आत्मनिर्भरता के बावजूद हमारे 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। 40 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं एनिमिक हैं और 25 करोड़ से अधिक नागरिक भूखे सोते हैं।

by : Chinmay Mishra 

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