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भाग 11 - भारत में सांप्रदायिकता के अत्यन्त आक्रामक स्वरूप

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आजादी के बाद 6 माह में ही महात्मा गांधी ने सांप्रदायिकता के खिलाफ आवाज उठाने की कीमत अपनी जान देकर दी। कुछ समय तक शांति बने रहने के पश्चात सन् 1960 के दशक की शुरुआत से ही भारत में सांप्रदायिक हिंसा के नए दौर की शुरुआत हो गई थी। शुरुआत के दो दशक तक यह उतनी तीव्र नहीं थी, लेकिन समय बीतते न बीतते यह पुनः परवान चढ़ी। 

सन् 1984 के सिख विरोधी दंगो ने नृशंसता के दहलाने वाले स्वरूप को हमारे सामने ला दिया। जैसा हम सभी जानते हैं कि बाबरी मस्जिद, राममंदिर विवाद के चलते और अंततः बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुए दंगों ने भारत में सांप्रदायिकता के अत्यन्त आक्रामक स्वरूप को हमारे सामने ला दिया। 

सन् 2002 में गोधरा ट्रेन अग्निकांड के बाद गुजरात व देश के अन्य हिस्सों में हुए सांप्रदायिक दंगों ने भारत में सांप्रदायिकता और आतंकवाद के बीच की बारीक रेखा को भी मिटा दिया। सांप्रदायिकता अब धीरे-धीरे राजनीति का हिस्सा बनती जा रही है। इतना ही नहीं अब यह दो धर्मों के बीच सीमित न रहकर बहुआयामी स्वरूप ग्रहण करती जा रही है। इसी के साथ इसमें अब नस्लीय भेदभाव भी पैठ बनाता जा रहा है। 

पिछले लोकसभा चुनावों के बाद से कतिपय सांप्रदायिक तत्वों को यह गलतफहमी सी हो गई है कि उनके विचारों पर जनता की मोहर लग गई है। संभवतः इसी वजह से पिछले कुछ महीनों में इसका अत्यन्त आक्रामक रुख हमारे सामने आया है। वैसे इसकी भूमिका तो मुजफ्फरनगर के दंगों के साथ ही ही बनाया प्रारंभ हो गई थी। आज घर वापसी जैसे जुमलों और कार्यक्रमों ने इसका और भी विकृत रूप हम सबके सामने प्रस्तुत कर दिया है। परंतु सांप्रदायिकता सिर्फ आदमी सरकार या विद्वेष पर ही जाकर नहीं रुकती। यह अंततः महिलाओं को सीमित करने का भी जरिया बन जाती है और धर्मरक्षा के नाम पर उन्हेें एक उत्पाद से ज्यादा कुछ नहीं समझती। धर्मरक्षा के नाम पर न्यूनतम 4 या 5 बच्चे पैदा करना इसकी पहली सीढ़ी है इसका अंत कहा होगा इसकी सुध किसी को नहीं है। 

वहीं दूसरी ओर पत्थर से मारकर संगसार करना या सरेआम नीलामी भी धर्म की पीठ पर सवार हैं। बढ़ती सांप्रदायिक कटुता के परिणाम भारत से ज्यादा किसी ने नहीं भुगते हैं। इसके बावजूद यह देश सबक सीखने को तैयार नहीं है। भारत में लगातार इस बात पर जोर दिया जाता रहा है कि देश का सबसे बड़ा आंतरिक संकट वामपंथी उग्रवाद है, लेकिन वर्तमान हालात साफ दर्शा रहे हैं कि सांप्रदायिकता उससे भी बड़ा खतरा है। यह भी तय है कि इसके लिए किसी एक वर्ग को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता लेकिन जैसा कि पंडित जवाहर लाल नेहरु का कहना था कि बहुसंख्या की सांप्रदायिकता हमेशा अधिक खतरनाक सिद्ध होती है।

भारतीय संबंधों मे गौर करें तो बड़ती आक्रामकता की बड़ी वजह हमारी जाति व्यवस्था है। दुखद बात यह है कि समय के साथ इसे जितना कमजोर होना था वैसा नहीं हो पाया। इसके विपरीत पिछले कुछ वर्षो से खाप पंचायतों के उभार और उनके मनमाने फरमान हमारे सामने चुनौती बन कर खड़े हो रहे हैं। जाति प्रथा भारत की एक विचित्र सी विशिष्टता है। विश्व में अन्यत्र इसके प्रमाण संभवतः नहीं मिलते। 

डा. राममनोहर लोहिया ने भारतीय जाति व्यवस्था पर बहुत विस्तृत चिंतन किया है। उनका सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष संभवतः यह था कि छुत-छूत पर आधारित इस व्यवस्था में उन्होने महिलाओं को हमेशा ’’शूद्र’’ की संज्ञा ही दी और यदि हम गंभीरता से विचार करे तो इसे काफी हद तक वैद्य भी मान सकते हैं। जातिवाद की ऐतिहासिकता पर वह कहते हैं, ’’दुनिया के इतिहास में छोटे-छोटे गिरोहों में युद्ध हुआ और विजेता गिरोह ने पराजित गिरोह को तबाह कर डाला। किन्तु भारत की विशिष्टता यह रही कि उसने इन गिरोहों को नष्ट करके उनके अधिकारों को सीमित किया और अपने जीवन का अंग बना दिया।

इस तरह पांच हजार वर्षो से भारतीय समाज अनेक गुटों में बँटा और इन गिरोहों का दलदल आज कायम है, उसमें कोई भी, सुधारक गिरोह भी, स्वयं एक गिरोह के रूप में समा लिया जाता है।’’ परंतु जाहिर सी बात है अल्पमत में रह रहा सवर्ण समाज इस तबके को ऊपर आने देने की मानसिक तैयारी आजादी के 67 साल बाद भी नहीं कर पा रहा है। 

इसे लेकर संघर्ष भी बदस्तूर जारी है। कभी-कभार यह संघर्ष प्रत्यक्ष रूप से दलित-सवर्ण हिंसक संघर्ष के रूप में सामने आ जाता है, लेकिन अपरोक्ष रूप से एक दूसरे के प्रति आक्रामकता तो सदैव ही बनी रहती है। अतएव इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जातिव्यवस्था ने हमारे समाज कोे परोक्षरूप से आक्रामक तो बनाया ही है। भारत के नेताओं में महात्मा गांधी ने इस समस्या को संभवतः सबसे बेहतर ढंग से समझा था। 

उनका मानना था कि धर्म  में अस्पृश्यता की यह घृणित भावना हम लोगों में तब आई होगी जब हम अपने पतन के चरम पर होंगे। उन्होने कहा था, ''मेरी राय में हिन्दू-धर्म में दिखाई पड़ने वाला अस्पृश्यता का वर्तमान रूप ईश्वर और मनुष्य के खिलाफ किया गया भयंकर अपराध है और इसलिए वह एक ऐसा विषय है जो धीरे-धीरे हिन्दू धर्म के प्राण को ही निःशेष किए दे रहा है।'' 

अस्पृश्यता को लेकर उन्होंने एक बार कहा था, ''यदि हम स्वयं मानवीय दया से शून्य हैं, तो उसके सिंहासन के निकट दूसरों की निष्ठुरता से मुक्ति की याचना नहीं कर सकते।'' उनका मानना कि भंगी के पेशे को नीच काम मानना अपने आप में नीच सोच है। एक स्थान पर उन्होने लिखा भी है, '' हम सब भंगी हैं, यह भावना हमारे मन में बचपन से ही जम जाना चाहिए और उसका सबसे आसान तरीका यह है कि जो समझ गए हैं वे शरीर श्रम का आरंभ पाखाना सफाई से करें।''  उनके पूरे जीवन में सफाई के प्रति आग्रह की भावना की नींव में ही संभवतः यह था कि वे मानते थे द्विज समुदाय का अहंकार तोड़ने का यह पहला प्रतीक या माध्यम हो सकता है। 

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