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पी. साईंनाथ का वक्तव्य और सवाल-जवाब

( विकास संवाद के मीडिया संवाद में)


विकास संवाद के मीडिया संवाद के तीन दिनी सत्र के इस सत्र में मैं मीडिया के संस्थागत/संगठित पूंजीकरण/व्यापारीकरण (कार्पोरेटाइजेषन) पर अपनी बात केंद्रित कर रहा हूँ। यह संवाद प्रक्रिया किसी भी रूप में हो सकती है। सवाल-जवाब के रूप में भी। कोई जरूरी नहीं है कि आप मेरी बात खत्म होने का 40 मिनट तक इतंजार करें। आप बीच में हस्तक्षेप कर सवाल कर सकते हैं। मुझे कोई आपŸिा नहीं है।

मैं पाँच भाषाओं में बोल सकता हूँ, बराबर से खराब ढंग से। आज में अंगरेजी में बात़चीत करूंगा या फिर अंगरेजी और हिन्दी दोनों में।

मेरी जानकारी के मुताबिक यह संवाद तीन दिनों का है। क्या आपको मालूम है कि इन तीन दिनों में पूरे देष और उसके ग्रामीण इलाकों में 147 किसान आत्महत्या करते हैं। यह नेषनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी)  का जारी किया हुआ औसत आंकड़ा है। यानी प्रतिदिन 49 किसान आत्महत्या करते हैं। हर आधे घंटे में एक किसान।
इस आंकड़े के अनुसार आपके इस तीन दिनी संवाद के दौरान देष में ग्रामीण इलाकों में करीब डेढ़ सौ किसान आत्महत्या करने वाले हैं। लेकिन अफसोस कि मीडिया में इस संबंध में कहीं कोई खोज-खबर नहीं होती और न ही मीडिया अपनी तरफ से कोई प्रतिक्रिया देता है। इस मामले में वह संवेदनषील नहीं है।

किसानों की आत्महत्या के मामले में अभी हाल ही में 2012 के आंकड़े जारी किए गए हैं। ये इंटरनेट पर भी हैं, आप चाहें तो देख सकते हैं। इसके मुताबिक छŸाीसगढ़ ने अपने यहाँ की स्थिति में शून्य दर्षाया है। जबकि पष्चिम बंगाल ने यह आंकड़ा जारी ही नहीं किया है। इसके बावजूद अब तक की जानकारी में  14 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं।

संवाद के इन्हीं तीन दिनों के दौरान देष में तीन हजार बच्चे कुपोषण और भूख से संबंधित बीमारियों से मरने वाले हैं। और इधर सरकार इन्हीं तीन दिनों में अमीरों और पूंजीपति/व्यापारिक संस्थानों को आयकर में 06 हजार 800 करोड़ रुपयों की छूट देती है। आप चाहें तो औसत निकालकर देख सकते हैं। लेकिन सरकार यह पैसा किसानों और बच्चों के लिए नहीं देती है। न तो कुपोषण और भुखमरी से निबटने के लिए और न ही किसानों की मदद के लिए।

अभी सभी राज्यों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में खाद्य सुरक्षा के अधिकार का बिल लागू नहीं हुआ है। क्योंकि इसे लागू करने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है। लेकिन वह रु. पाँच लाख करोड़ वार्षिक अमीरों को दे सकती है। यह भी बताता चलूं कि यह पाँच लाख करोड़ की पूरी कहानी नहीं है। यह सिर्फ केन्द्र सरकार का बजट है। राज्य भी कई प्रकार की रियायतें, विषेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) में देते हैं। मैं इन पाँच लाख करोड़ में सेज को नहीं गिन रहा हूँ।

आपके बजट में पीछे एक भाग है, जिसके अनुच्छेद-12 का शीर्षक है ‘स्टेटमेंट आॅफ रिव्यू आॅफ इकानामी।’ इसमें पूरा ब्यौरा विस्तार से मिल जाएगा। यह ब्यौरा भी 2006-07 का है। यह भी इसलिए उपलब्ध है क्योंकि इसके लिए संसद में कुछ सांसदों ने सरकार पर जोर देकर आग्रह किया था। इस ब्यौरे में केवल पाँच लाख करोड़ की छूट या राहत का हिसाब है।

यह भी तीन मदों में। ये हैं-‘कार्पोरेट इनकम टेक्स, कस्टम और एक्साइज ड्यूटी। इसके अलावा केन्द्रीय बजट में अनुदान (सब्सीडी) अलग से है। यह  बिजली पर अनुदान (इलेक्ट्रीसिटी सब्सीडी), न्यूनतम मूल्य पर बिजली उपलब्ध कराने के लिए अनुदान (सब्सीडी लोवर रेट फाॅर इलेक्ट्रीसिटी, सेज) और म्युनीसपिल टेक्स (नगर पालिका कर)। कहा जाता है कि इस देष में पैसा नहीं है। स्वास्थ्य सुधार के लिए, बच्चों को बचाने के लिए, खाद्य सुरक्षा के लिए।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) को सब जगह लागू करने के लिए। महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (एमएनआरइजीएस) को सही ढंग से लागू करने के लिए पैसा नहीं है। यह योजना भी सीमित है। इसमें  पूरे परिवार के लिए 365 दिन काम नहीं है। सौ दिन काम पर पूरा परिवार कैसे जाएगा? सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) भी सीमित है। लेकिन ‘लूटमार’ सब जगह है। इनमें से किसी भी मसले पर मीडिया कोई प्रतिक्रिया नहीं देता।

भारतीय मीडिया राजनीतिक तौर पर पूरी तरह स्वतंत्र है। कोई मार्षल लाॅ लागू नहीं है। किसी तरह की सेंसरषिप नहीं है। राजनीतिक स्तर पर हम पूरी तरह स्वतंत्र हैं। मीडिया में खास तौर पर टेलीविजन में ‘क्रोनी केपिटलिज्म’ (ं‘अंतरंग मित्र’ पूंजीवाद) शब्द बार-बार आता है। आप सबने यह शब्द सुना होगा। टेलीविजन में पिछले तीन सालों में एंकर ने बताया होगा। यह पूंजी के भीतरी बंटवारे (कोर एलोटमेंट) का  मित्र पूंजीवाद (क्रोनी केपिटलिज्म) नहीं है क्या? मैं समझता हूँ, इसमें दो शब्द हैं, पहला-केपिटलिज्म, आप सब जानते हैं, क्या है। दूसरा शब्द क्रोनी है, वह हम हैं-मीडिया। ‘द मीडिया द क्रोनीज द क्रोनीज केपिटलिज्म’, यानी यंू कहें कि मीडिया पूंजीवाद का लंगोटिया यार है-यह स्थिति है मीडिया की।

आप सबने पढ़ा होगा जब अप्रैल में शारदा चिट फंड कंपनी डूब गई थी। एक स्टोरी आई थी और यह फिर गायब हो गई। इसमें बताया गया था कि सात सौ पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया गया। मैं इससे बहुत प्रभावित हुआ कि यह खबर आ गई। अक्टूबर 2008 में सात सौ नौकरियां गईं। पत्रकारों और कैमरामैन की नौैकरी चली जाए, इसकी रिपोर्टिंग कौन करता है। इस पर एनडीटीवी ने अच्छी स्टोरी की। यह थोड़ी भावुक किस्म की स्टोरी थी। बेचारे! सात सौ पत्रकारों की नौकरी चली गई। अब वे क्या करेंगे?

उन पर घर, गाड़ी आदि का बैंक ऋण है। प्रतिमाह इसकी मासिक किस्त (ईएमआई, इक्यूटेड मंथली इंस्टालमेंट) जमा करना है। बच्चे स्कूल जाते हैं। इसी एनडीटीवी प्राफिट ने उसी माह अपने मुंबई स्थित कार्यालय से 80 लोगों को नौकरी से निकाल दिया। एनडीटीवी ने ही अक्टूबर में ही 70 और लोगों को निकाला। यानी जो एनडीटीवी 700 पत्रकारों की नौकरी जाने की स्टोरी कर रहा है वही अपने उसी चैनल से एक साल से कम समय में डेढ़ सौ लोगों को नौकरी से निकाल रहा है। यह कहीं कुछ ज्यादा चिंताजनक हालात हैं।

अक्टूबर, 2008 में जब विष्व स्तर पर आर्थिक मंदी (ग्लोबल फाइनेंषियल कोलेप्स) आई। वाॅल स्ट्रीट बंद हुआ। तब बहुत बड़े बदलाव आए। यह संक्षिप्त में समझाना चाहूँगा। मीडिया में भी बुनियादी ढांचे में चिंताजनक बदलाव (सीरियस स्ट्रक्चरल चेंजेस) आए। मीडिया में भ्रष्टाचार पुरानी बात है, यह कोई नई बात नहीं है। पत्रकार, खराब पत्रकार यह भी नया नहीं है। पत्रकारिता के उद्देष्यों और उसके निहितार्थों  की  (स्टेट आॅफ कंटेट आॅफ जर्नलिस्ट) बात छोड़ो। पत्रकारिता के उद्देष्य या निहितार्थ (कंटेंट आॅफ जर्नलिज्म) एक महत्वपूर्ण हिस्सा है संपूर्ण पत्रकारिता का। पिछले दिनों देखने में आया कि एक पत्रकार बाढ़ पीड़ित (फ्लड विक्टिम) के कंधे पर बैठकर रिपोर्टिंग कर रहा है।

इस दृष्य ने मुझे सिंदबाद जहाजी (द स्टोरी आॅफ द सिंदबाद) की एक कहानी ‘द सिंदबाद द सैलर एंड द ओल्डमैन एंड द सी’ याद दिला दी। यह तो मैं ठीक मानता हूँ कि एक बाढ़ पीड़ित एक पत्रकार के कंधे पर बैठे, बैठना भी चाहिए। लेकिन बाढ़ पीड़ित के कंधों पर बैठ कर पत्रकारिता कहाँ तक उचित है? क्या हम एक स्टोरी के लिए इतने गिर गए हैं? बाढ़ पीड़ित के कंधों पर बैठे पत्रकार वाले दृष्य में एक सांकेतिक अर्थ है। यह मीडिया की पूर्णतः परजीविता या लकवाग्रस्त (कम्पलीट पेरासिटीकल नेचर आॅफ मीडिया) होने की प्रवृŸिा को बताता है। मीडिया के बुनियादी ढांचे में यह एक बहुत बड़ा बदलाव है।

आज से बीस साल पहले मीडिया में एकाधिकार (मोनोपाॅली) का अर्थ बहुत अलग था। मीडिया में गोयनका साहब और साहू जैन साहब का उस समय एकाधिकार था। हिन्दुस्तान एक ऐसा देष है जहाँ दो जगह से अखबार निकलता है तो वह राष्ट्रीय प्रेस बन जाता है। मीडिया में इंडियन एक्सप्रेस का अपना एकाधिकार था। डालमिया या साहू जैन का अपना एकाधिकार था। आजकल मीडिया में उन दिनों का एकाधिकार (मोनोपाॅली) खत्म हो गया। अब मीडिया एकाधिकार, व्यापार संस्थागत/संगठित आभिजात्य पूंजीवादी साम्राज्य (कार्पोरेट) के एकाधिकार (मोनोपाॅली) का एक छोटा सा हिस्सा हो गया है। वह एक छोटे से विभाग की तरह है।

आजकल सबसे बड़ा मीडिया मालिक कौन है? मुकेष अंबानी। और मीडिया उसका मुख्य व्यवसाय नहीं है। उसके व्यवसाय का वह एक हिस्सा या विभाग है। द मीडिया मोनोपाॅली इज मच स्मालर पार्ट आॅफ जाइजंेटिंक कार्पोरेट मोनापाॅलीज् अर्थात् मीडिया एकाधिकार बहुत बड़े संस्थागत/संगठित आभिजात्य पूंजीवादी साम्राज्य का एक बहुत छोटा हिस्सा है।

मुकेष भाई ने कुछ महीने पहले या एक साल पहले नेटवर्क-18 खरीदा। जब वह इसे खरीद रहे थे तब वह यह नहीं जानते थे कि उन्होंने क्या खरीदा है? उन्हें इसका कोई इल्म नहीं था कि उनके साथ क्या हुआ? 22 चैनल इनाडु से आए। तेलुगु छोड़कर बाकी सब बिक गए इनाडु के। पत्रकारिता-मीडिया में इनाडु अच्छा खासा नाम है। लेकिन आजकल इनाडु का असली नाम है मुकेष अंबानी। अंबानी के इस इनाडु ने गैस या कोल घोटाले को किस तरह रिपोर्ट किया, यह हमारे सबके सामने है।

इसके अलावा इनाडु का पूरा चैनल समूह (फुल बुके) और नेटवर्क-18 का पूरा चैनल समूह (फुल चैनल्स बुके) अंबानी का है। उसने सीएनबीसी-18, लोकमत आईबीएन और सीएनएनआईबीएन भी खरीदा। मेरे कुछ पुराने मित्रों का समूह और सहयोगी सीएनएनआईबीएन में हैं। वे नहीं जानते हैं कि उसने क्या और क्यों खरीदा है? यह है अंबानी का मीडिया साम्राज्य (मीडिया एंपायर)। रामनाथ गोयनका जो मीडिया एकाधिकार (मोनोपाॅली) था, वह अंबानी के इस साम्राज्य की एक छोटी सी दुकान भी नहीं है।

इस एकाधिकार (मोनोपाॅली) पर हम अभी बहस करेंगे। कार्पोरेट स्टाइल काॅस्ट सेविंग क्या है? अर्थात् संस्थागत/संगठित पूंजीवादी साम्राज्य की लागत-बचत की शैली क्या है? लागत-बचत की इस संस्थागत/संगठित पूंजीवादी शैली को आप टेलीविजन पर देख सकते हैं। टेलीविजन में अब समाचार कार्यक्रम खत्म हो गया। अब सब बातचीत या बहस प्रसारित करने वाला टीवी (टाॅक टीवी) बचा है, ऐसा क्यों है? इसका सीधा सा अर्थ है-वस्तुतः बातचीत (टाॅक) सस्ती पड़ती है, एक तरह से यह बिल्कुल निःषुल्क पड़ती है।

टीवी पर बातचीत के लिए हमें बुलाया जाता है मुंबई से दिल्ली तक। इसका पारिश्रमिक हमें दो माह बाद चैक के रूप में दिया जाता है। हजार या पन्द्रह सौ रुपये का। यह कीमत/लागत कुछ भी नहीं है। यहाँ नौ लोग बैठते हैं। दो दिन बातचीत करते हैं। निष्चय ही टाइम स्लाट तो अलग है। ये नौ लोग अपने आप को सुनते हैं। एक तरह से यह स्वयं सुनने वाला टीवी (लिसन टीवी) है। लेकिन टाॅक टीवी ‘गंभीर विचारवान या बौद्धिक’ टीवी है। यह सस्ता है। यह पैसे बचाता है। इसकी कोई लागत नहीं है।

पत्रकारों को गांवों में बाढ़, अकाल की रिपोर्टिंग के लिए भेजो तो पैसा लगता है। इसलिए पैसा लगाएं क्यों? पांच आदमी बैठा दो। मनीष तिवारी, रविषंकर प्रसाद। मुझे तो लगता है कि ये सब लोग स्टूडियों में ही रहते हैं। वहाँ उनको एक कमरा दे दिया गया है। एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियों में चले गए।

श्रोता का सवाल: गोयनकाजी के समय में एक्सप्रेस का एकाधिकार और अब जो हुआ है, आज के और पहले के एक्सप्रेस में क्या फर्क है?

हम मुंबई में रामनाथजी से पालेकर अवार्ड के संबंध में बात करने कुछ और बहाना (एक्सक्यूज) लेकर गए। क्योंकि उन्होंने हमसे से कहा, ‘‘पालेकर अवार्ड और पैसे के संबंध में आपके साथ कोई बात नहीं करूंगा।’’ तब हमने बहाना बनाया, ‘भारतीय समाचार पत्र दिवस’ के संबंध में एक प्रस्ताव है। हम आपसे बात करना चाहते हैं।’ जब मिलने गए तब हमने उनसे पालेकर अवार्ड के संबंध में बात की।

मुझे तब पत्रकारिता में आए दो ही साल हुए थे। अब तैंतीस साल होने को आए। तब मैंने गोयनका साहब से पूछा, ‘‘आपका बड़ा साम्राज्य है। आपके कर्मचारी इसमें लाभ लेते हैं। वे हम बताते हैं कि आप हर रुपया बचाते (क्रंच) करते हैं। तब उन्होंने कहा, ‘जिसने भी आपसे यह कहा कि मैं एक रुपया बचाता हूँ यह झूठ है, सच तो यह है कि मैं हर पैसा बचाता (क्रंच) करता हूँ।

मराठवाड़ा में सूखा पड़ा। अखबार और चैनल वाले वहाँ पत्रकार को भेजने के लिए हजार रुपया भी नहीं देते। करीब डेढ़-दो सौ पत्रकार जाते हैं डावोस में। वहाँ चैनल पूरा स्टूडियो लगाते हैं। क्या आप जानते हैं इसमें कितना खर्च आता है? इसके लिए पैसा कहाँ से आया? यह हमने प्रकाषित नहीं किया कि पैसा कहाँ से आता है? भारतीय औद्योगिक और वाणिज्यिक मंत्रालय-संगठन और भारतीय औद्योगिक संगठन मिलकर पत्रकारों को पैसा देते हैं कि वहाँ जाओ। क्योंकि इसमें उनके अपने निजी हितों का बड़ा झगड़ा है।

हम लिखते हैं कि कोलगेट में अपने निजी हितों का झगड़ा है। जबकि इस मामले में पूरे मीडिया के अपने निजी हितों का भी झगड़ा है। क्योंकि तब करीब डेढ़ सौ लोग पूंजीपतियों को छुपाते/बचाते (कवंिरंग) हैं। इसलिए मैंने कहा, ‘पूुजीवाद तो संगठित जगत है।’ पैसा लेने और देने वाले पत्रकारों में से कुछ को सी.आई.आई. ने पैसा दिया। इस साल कुछ पत्रकारों को वाणिज्य मंत्रालय ने पैसा दिया। यह सब हमने प्रकाषित किया। इसलिए यह जानकारी में आ गया। इसके बाद सी.आई. आई. थोड़ा पीछे हट गया। व्

यक्तिगत प्रायोजकों में हीरो ने प्रायोजित किया। एनडीटीवी और दूसरों ने आईबीएन को प्रायोजित किया। यह मैंने 2007 में छापा। बाकी समाचार पत्र तो इस मामले को छुएंगे भी नहीं। क्योंकि इन सब के संवाददाता उनके खर्च पर मराठवाड़ा जा रहे थे।

हमें दो चैनल्स के इंटरनल संवाददाता मिल गए। भारत में यह एक अच्छी बात है कि हर संस्थान की बातें उजागर हो जाती हैं। भारतीय पत्रकारिता के लिए भी यह बहुत अच्छी चीज है। यह भी बहुत अच्छा है कि भारत में कोई गुप्त रहस्य/बात आप छुपाकर नहीं रख सकते। दो चैनल के 04-05 ई-मेल मिल गए। इनमें पूरा ब्यौरा था। हम पूरे ई-मेल को प्रकाषित नहीं कर पाए क्योंकि इससे स्रोत का पता लग जाता और दस लोगों की नौकरियां चलीं जातीं। इसमें लिखा गया है कि विष्व आर्थिक मंच (वल्र्ड इकाॅनामिक फोरम, डव्ल्यू.ई.एफ.) पर आपको नहीं बुलाया गया। आप अनिवार्य रूप से ई.डव्ल्यू.एफ. का पूरा नाम वल्र्ड इकाॅनामिक फोरम का उपयोग करें क्योंकि यह प्रतिस्पर्धी संगठनों (रेसलिंग फेडरेषन) के साथ गड्डमड्ड हो जाता है और भम्र पैदा करता है। क्योंकि यह कहते हैं कि लाल मकड़ी और काली मकड़ी के बीच की कमजोर दौड़ (फैक रेसलिंग रेड स्पाइडर्स वर्सेस ब्लेक स्पाइडर्स)।

सी.आई.आई. ने वादा किया कि छह घंटे के कार्यक्रम हम देंगे। यह वादा क्या था-यही कि पैसा हम देंगे। या तो सीधे तौर पर पूरे मीडिया ने अनुकूल प्रतिक्रिया के लिए मुद्दा तय (एजेंडा सेट) किया या फिर छिपे तौर पर। लेकिन आॅफ द मीडिया अब दोनों सीधे-सीधे मिल गए हैं। एक जमाने में विज्ञापन और कंटेंट में एक मर्यादा थी। यह मर्यादा टूट गई है। मैं मानता हूँ कि तब ऐसा कुछ मर्यादित था। मैं अस्वीकार नहीं करता कि अब सब नंगा हो गया है। यह भी एक ढांचा है।

टाइम्स आॅफ इंडिया ने साल 2002 में नई पद्धति शुरू की निजी-संधि (प्राइवेट ट्रीटी)। कितने लोग इसे जानते हैं? यह मध्यवर्गीय निजी संधि है। ऐसा लगता है कि दो देषों के बीच समझौता चल रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है। यह समझौता तो एक पूंजीवादी संगठन(कार्पोरेट) और समाचार पत्र के बीच है। अभी नब्बे प्रतिषत समाचार पत्र यह कर रहे हैं टाइम्स आॅफ इंडिया को छोड़कर। सबके अलग-अलग नाम हैं।

जब हिन्दुस्तान टाइम्स ने यह शुरू किया, टाइम्स आॅफ इंडिया ने धमकी दी कि यह हमारा ब्रांड नेम है। इस निजी संधि (प्राइवेट ट्रीटी) का मतलब क्या है? जब इनकी कंपनी मेरे साथ यह निजी-संधि पर हस्ताक्षर करेगी तब इसका मतलब होगा कि दस प्रतिषत हिस्सा (षेयर) मेरा है। इसका यह अर्थ भी है कि अब मैं इस कंपनी का दस प्रतिषत का मालिक हो गया। अभी तक एक समाचार पत्र के पास 240 निजी-संधि (प्राइवेट ट्रीटी)  ग्राहक हैं। जब इस समाचार पत्र और संबंद्ध संस्था (इक्विटी फर्म) के पास  240 कार्पोरेषंस के शेयर का मालिकाना हक है तो यह दर्षाता है कि विज्ञापन लेते हैं।

यह विज्ञापन लेने का बढ़िया तरीका है। एक उदाहरण लेते हैं-पेंटालूंस का । यह एक छोटी दूकान थी। अब बड़ा रिटेलर बन गया है। अब हर अखबार इस तरह की निजी-संधि या समझौता  (प्राइवेट ट्रीटी) कर रहा है। अखबारों का अपने इन ग्राहकों के साथ समझौता गुप्त है। लेकिन यह निजी-संधि (प्राइवेट ट्रीटी) तो गुप्त नहीं है। इसका पूरा ब्यौरा उपलब्ध है। इसकी बेवसाइट है-प्राइवेट ट्रीटी डाॅट काम।

अब सवाल उठता है कि दस प्रतिषत हिस्सा (षेयर) हमारा है तो इसका भुगतान कैसे करेंगे? भुगतान विज्ञापन के बिल में होता है। अखबार बताता है कि हम संबंधित संस्था से पूरे पेज का विज्ञापन लेते हैं। यह विज्ञापन हमारे अखबार में छपता है। यह हमारा समझौता है 240 कंपनियों के साथ। जब हमारा समझौता है तो बेचारे रिपोर्टर क्या स्टोरी करेंगे? कौन स्पष्ट करेगा कि वह हमारा ग्राहक है? यह मीडिया में बुनियादी ढांचागत परिवर्तन है।

मीडिया में स्वाभाविक या कहें मौलिक परिवर्तन आ गया। उसका रुख बदल गया। यहाँ मीडिया में ऐसा क्या हुआ कि पूरे पैसे की दिषा बदल गई। यह पैसा शेयर्स में इकट्ठा हो गया। सितम्बर 2008 में जब विष्व स्तर पर आर्थिक मंदी आई तब वाॅल स्ट्रीट में शेयर्स का मूल्य गिर गया। इस दषक में पहली बार हुआ कि टाइम्स आॅफ इंडिया बड़े घाटे में गया। अभी देखो मैंने तर्क दिया कि मेरे पास लाखों-करोड़ों शेेयर्स हैं दो सौ कंपनी के। अभी शेयर बाज़ार में गिरावट आती है तो शेयर्स के बारे में मैं पाठकों को सच नहीं बताऊंगा। मैंने स्वाभाविक रूप से बुनियादी तौर पर झूठ बोला कि स्टाॅक मार्केट बहुत अच्छा जा रहा है।

अक्टूबर 2008 में दो अखबारों ने अपनी डेस्क को आदेष दिए कि ‘‘रिसेषन’’ शब्द का उपयोग नहीं करेंगे। क्योंकि इसका संबंध भारतीय अर्थव्यवस्था से है। संयुक्त राज्य अमेरिका में ‘‘रिसेषन’’ लेकिन भारत में ‘स्लो-डाउन’ लिखा गया। आप पढ़ लीजिए। ये अखबार थे टाइम्स आॅफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स, जिन्होंने आदेष दिए थे कि ‘रिसेषन’ का प्रयोग नहीं किया जाए। आप ‘रिसेषन’ बोलो फ्लेष भी हो जाएगा। सभी कंपनियां गंभीर संकट में आ जाएंगी। क्योंकि शेयर्स का मूल्य पैसा बनाता है। जिनके शेयर्स अच्छे हैं वे इसके कारण गिर जाएंगे।

एक बड़ा खुलासा हुआ 2009 में पैड न्यूज के संबंध में। यह साल चुनाव का साल था। चुनाव में इतना पैसा गया शेयर्स में। इसकी बजाए भुगतान की दूसरी पद्धति अपनाना था-जहाँ कर नहीं हैं, जहाँ टेबिल के नीचे से पैसों का लेन-देन होता है, जहाँ आप आयकर को सरल/माफ (इवेड) कर सकते थे। इसलिए कि शेयर बाजार गिरा है। एक और नुकसान समाचार पत्रों को हुआ। पूरे पेज का विज्ञापन तो देना ही था क्योंकि यह समझौता था। लेकिन आयकर पाॅच करोड़ के मूल्य पर लेते हंै। इस तीस प्रतिषत कर का भुगतान दो नही ंतो डूब मरो। तो यह दोहरा नुकसान हुआ। एक तरफ शेयर का मूल्य गिर गया। दूसरी तरफ आयकर भी देना पड़ा।

उस समय पहली बार (मेजर षिफ्ट) हुआ। महाराष्ट्र के एक बड़े समूह के नौ संस्करण हैं। सबको पूना में बुलाया गया। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव सामने थे। अखबार के मुखिया भी आए। बहुत नाराज हुए। क्योंकि लोकसभा के चुनाव में पैड न्यूज में उनका प्रतिद्वंद्वी ज्यादा पैसा ले गया। महाराष्ट्र में हर समाचार पत्र को उनकी शाखाओं में प्रति शाखा के हिसाब से पैसा दिया गया। जैसे-नागपुर संस्करण का एक कोटा। यदि आपने 2009 में पढ़ा हो तो पूरे साल पैड न्यूज एक बड़ी खबर थी।

मीडिया कोषिष करता रहा कि शेयर बाज़ार फिर से खड़ा हो जाए। उसी समय 2009-10 में सेवी ने पैड न्यूज के मामले में प्राइवेट ट्रीटीज  और खासतौर पर निवेषकों को गंभीर रूप से धमकी/चेतावनी दी। सेवी ने कुछ किया। एक बार एक पत्र भी जारी किया। इसमें लिखा गया कि निवेषकों को गुमराह किया जा रहा है। यह एक गंभीर समस्या का कारण बनेगा। सेवी ने प्रेस काउंसिल को भी लिखा।

यहाँ एक विचार/बिंदू है जिसे बनाने/उठाने की कोषिष कर रहा हूँ कि आप मीडिया का उपयोग करते हैं,  इसका और शेयर बाजार का एक दूसरे से अपना गहरा गठजोड हैं। इसलिए वे कभी भी शेयर बाजार के संबंध में सच नहीं बोलेंगे। क्योंकि सच बोलेंगे तो खुद का मूल्य कम हो जाएगा। पत्रकार सोचता है कि मैं क्या उल्लू हूँ जो अपने मालिक/अध्यक्ष को नीचे ले जाऊंगा।

इसलिए मेरा यह स्पष्ट/साफ कहना है कि मीडिया में ढांचागत बुनियादी परिवर्तन आया है कि वह झूठ बोलने लगा है। अब पैड न्यूज एक नई...(टेक्टिस) है। इसका हमने पूरा ब्यौरा दिया लेकिन संसद ने कभी कोई पहल /(कदम नहीं उठाया) नहीं की। कितने समाचार पत्र और चैनल हैं जिन्होंने संसद की स्टैडिंग कमेटी की रिपोर्ट को प्रसारित/प्रकाषित किया? जबकि इस कमेटी की पूरी रिपोर्ट की सूचना आॅन लाइन है।

जब 2010 में संसद में पैड न्यूज पर पहली बार बहस हुई  तब सभी दल के नेता अरूण जेटली, अंबिका सोनी, सीताराम येचुरी, मुलायम सिंह सब सामने आकर खड़े हुए और उन्होंने कहा, खबर के लिए धमकी देकर पैसा लेना, यह शर्मनाक (सेम बिग एक्सटोटिंग) है। यह स्वतः प्रमाणित ब्लैकमेलिंग है। इस मुद्दे पर सभी दल बहिष्कार कर संसद से बाहर आ गए। संसद के एक भी शब्द को भी किसी समाचार पत्र ने रिपोर्ट नहीं किया केवल दो समाचार पत्रों को छोड़कर जिन्होंने इसे उजागर किया था।

पहली बार संसद में सभी/समूचे राजनीतिक दलों के एक साथ एक प्लेटफाॅर्म पर आने का परिदृष्य था। सबसे बढ़िया भाषण उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी का था। उन्होंने कहा, ‘‘पैड न्यूज ने दोहरे भौगालिक शास्त्र (जियोपाडी) की रचना की। एक तो उसने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के आदर्ष को आघात पहुँचाया। दूसरे उसने मीडिया के संतुलन/निष्पक्षता को तोड़ा। मीडिया लोकतंत्र का चैथा खंभा है, शेष तीन विधायिका, कार्यपालिका और न्याय पालिका हैं। इनमें से केवल मीडिया व्यावसायिक तौर पर संचालित होता है जबकि बाकी तीन नहीं।’’ मेरा सोचना अलग है-चैथा खंभा तो छोड़ो हम तो ‘फोर्थ और रियल स्टेट’’ में फर्क नहीं देखते। आगे यह पूरा भाषण उजागर (ग्लेक आउट) हुआ।

पुणे में समाचार पत्रों के नौ संपादकों को कोटा मिला। आपने ‘तनिष्का’ के बारे में सुना होगा। यह एक महिला पत्रिका है। इसमें प्रत्येक कर्मचारी सकाल समूह का है। प्रत्येक कर्मचारी का कोटा है। वह वरिष्ठ हो, विज्ञापन या प्रबंधन का हो, रिपोर्टिंग में हो या प्रसार में हो। एक सौ ‘नाम-लेखन’ (सबक्रिप्षन) पर यह दिया गया। प्रत्येक पर सात सौ रुपया। अब तक दो लोगों ने बहाना बनाकर इस्तीफा दिया। इसका कोई रिकार्ड नहीं है। क्योंकि यह एक शक्तिषाली समूह है। इसको कहते हैं मीडिया का उच्च स्तर का व्यापारीकरण।

एबीएसी आॅफ मीडिया, वाॅलीवुड और क्रिकेट का विज्ञापन करता है। पूरा क्रिकेट भी नहीं। आईपीएल में समाचार पत्र मीडिया भागीदार हैं। मीडिया पार्टनर्स। टीमों को पार्टनर्स कहते हैं। एक टीम का समाचार पत्र  मालिक है। डेकन क्राॅनिकल, डेकन चार्जर्स टीम का मालिक है। इसका मूल्य (चार्ज ) तो बहुत बढ़ गया। और बाद में यह बर्बाद भी हो गया। जो भी शर्मनाक मामला सामने आ रहा है वह एक भी मीडिया ने उजागर (ब्रेक) नहीं किया। आईपीएल एन्फोर्समेन्ट डाइरेक्टोरेट, मुंबई पुलिस ने इसे उजागर किया।

पूरी बीसीसीआई की कहानी इडी और आईबी ने उजागर किया। एक भी पत्रकार ऐसा नहीं है जिसने इसे उजागर किया हो बतौर पत्रकार। यह शर्मनाक है। भ्रष्टाचार पर जो भी कहानी आती है ब्रेकिंग होती है। हम...ग्यूरोक्रेटिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार की तरफ देखते हैं। ‘रेडियो टेप में पत्रकार का भ्रष्टाचार’। मान लो यह रेडियो टेप एक वाॅलीवुड फिल्म का था। इसमें पत्रकार का रोल हँसोड़ कलाकार (काॅमेडियन) का होता है।

हास्य राहत देता है यह (काॅमिकरिलीफ) इससे ज्यादा कुछ नहीं। इसमें उसने पैसा नहीं लिया तो वह वेबकूफ था बस! राडिया टेप्स की यह वास्तविक कहानी है-संगठित पूंजीपतियों की ताकत की। इसमें एक दर्जन से कार्पोरेट मालिकों के फोन काॅल टेप पकड़े गए थे, उन्होंने कहा, ए.राजा को मंत्री बनाया जाए और यह मंत्री पद (पोर्टफोलियो) दिया जाए। और उसको यह पद पोर्टफोलियो खासतौर पर दिया गया। यह सब कुछ हुआ। मित्र-पूंजीवाद (क्रोनी केपिटलिज्म)। हम सिर्फ मित्र (क्रोनी)। और राडिया में भी वही था कि हम मित्र (क्रोनी) हैं।

आईपीएल को देखो आज भी इतना भ्रष्टाचार है कि कह नहीं सकते। बहुत सारे पत्रकारों को कंटेंट प्राॅवाइडर के नाम पर दो महीने का अनरिर्टन कान्ट्रेक्ट (ऐसा अनुबंध जिसे वापस नहीं किया जाना है) मिलता है। जितना वह छह माह में नहीं कमा सकता उतना वह दो महीने में कमा लेता है। (आॅल सार्टस आॅफ स्टफस वेटिंग टू वस्र्ट बट द मीडिया इटसेल्फ इज इम्पीकेटिंग इट)।

क्रिकेट केे महान खिलाड़ी सुनील गावस्कर, रवि शास्त्री टीवी में बैठते हैं वे यहाँ आईपीएल की स्तुतियां गाते हैं उसका बचाव करते हैं। और कभी यह नहीं कहते हैं कि वे डेढ़ करोड़ रुपया बीसीसीआई से कमाते हैं। इससे बड़ा और झगड़ा क्या हो सकता है? लेकिन हम मीडिया वाले इसे उजागर/चिन्हित (प्वाइंट आउट) नहीं करेंगे। क्योंकि मीडिया के लिए इसमें विज्ञापन से आय बहुत ज्यादा है।

अंत में एक नया बदलाव /परिवर्तन (कन्वर्सन) आया है। एक संकेत है-अपने आप स्टाक एक्सचेंज ऊपर उठने के मामले में। अब यह खराब स्थिति में जा रहा है, लेकिन हम यह दर्षाते हैं कि सभी लक्षण बेहतर हैं हम स्थितियों से उबरेंगे (सिम्पटम्स आॅफ फ्री क्राइज सिस्चुएषन फ्री।)। वर्ष 2008 में जैसी स्थितियां थीं वैसी ही आ रहीं हैं। और मीडिया, समाचार पत्रों के संपादकीय में तारीफ छाप रहा है।

सभी समाचार पत्रों ने यह छापा कि सरकार ने रसोई गैस की कीमतों को अपने हाथ में ले लिया है। इससे अंबानी भाइयों को 72 मिलियंस का लाभ हुआ है। इस कारण अगले छह माह में कीमतों में और बढ़ोतरी होगी यह अंबानी के लिए लाभकारी होगी। क्या आपने देखा कि सभी कीमतों में क्या वृद्धि हुई? इनका असर दूसरी वस्तुओं पर भी पड़ेगा।

हम तकनीकी बदलाव के बारे में जानते हैं। अभी एक और तकनीकी बदलाव है वह है गैरतकनीकी बदलाव-जिसे मैं कहता हूँ यह एक नया बदलाव है। यह खासतौर पर भारत की विषेषता है। भारत में, दक्षिण एषिया में जो भी करो उसमें परिवार आ जाता है। केबिनेट बनाओ उसमें परिवार आ जाता है। कार्पोरेट बनाओ उसमें परिवार आ जाता है। महाराष्ट्र में हम इसे खानदान कार्पोरेट कहते हैं। जहाँ सब कुछ दो परिवार नियंत्रित करते हैं।
समाचारों में बदलाव आया। कहते हैं कि विषाल अंबानी समूह ने नेटवर्क-18 और दूसरे एक दर्जन मीडिया घरानों, संयुक्त मीडिया घराने, और बड़े व्यापारिक संस्थानों को खरीद /समायोजित (एक्वायर) कर लिया है।

जैसे-डालडास आॅफ लोकमत। काॅलगेट कोल ग्लाॅक्स में कौन है? पाॅवर ट्रांस्फोर्मस, शुगर मिल्स। इस तरह संयुक्त मीडिया समूह ने बड़ा व्यापार समायोजित/खरीदा (एक्वायर) किया।  संयुक्त व्यापार समूहों ने अपने परिवार के लोगों को राजनीति में आगे बढ़ाया। जैसे-जिन्दल्स। बहुत सारे यूएस के कार्पोरेट को खोजा गया और इसमें शामिल किया गया/इनसे सम्बद्ध किया गया। तब मीडिया घराने बड़े व्यापारी हो गए। संयुक्त राजनीतिक परिवार भी गए और उन्होंने मीडिया में अपना दाव लगाया।

आंध्र प्रदेष में जगन रेड्डी का साक्षी। अब यह इनाडु और पंजाब के पीटीवी के बराबर पर है। यह समायोजन है राजनीति और व्यापार का। यह बदलाव आया इन परिवारों में कि उन्होंने मीडिया की ताकत पर, राजनीतिक ताकत पर और कार्पोरेट की ताकत पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। भारतीय मीडिया में भीतरी तौर पर यह नया बदलाव बीज/बुनियादी रूप में आया। भारतीय मीडिया में यह नया बदलाव भयावह/डरावना है। यह भयावह स्थिति है हम सबके लिए। कार्पोरेट को हमारी जरूरत नहीं है। न हमारी रचनात्मकता की जरूरत है। वे चाहते हैं स्तरीयता/मानकीकरण (स्टैंडराइजेषन)। वे हर दिन नया टूथपेस्ट नहीं निकाल सकते हैं। टूथपेस्ट का स्तरीकरण/मानकीकरण होना चाहिए। पत्रकार का स्तर होना चाहिए। मापदंड (स्टैंडर्ड) यह है कि हमारा व्यापारिक हित हो। उसको बढ़ावा मिलना चाहिए।

विज्ञापन के लिए 11 हजार रुपये और लोकमत में उसके ऊपर 156 पेज/पृष्ठ अलग। उसका चुनाव खाता अलग और खूबसूरत है। गोपीनाथ मुण्डे का कुछ नहीं है। सलमान की एक रैली अषोक चव्हाण ने आयोजित की। इसमें दो लाख लोग आ गए। यह चार हजार रुपये में हो गया। जनता को संबोधित करने के सिस्टम पर खर्च 12 सौ रुपये और शेयर्स 800 रुपये। उनका चुनाव क्षेत्र है, उसमें बुकर हैं। यह स्टोरी तब आई थी जब उनके समूह ने हमें आमंत्रित किया था। वे हमें समझौता करने ले गए थे। मैं गया। पब्लिक आॅडिटोरियम में तीन हजार लोग। मैंने कहा, ‘‘मैं यहाँ इसलिए आया हूँ क्योंकि मैं सेवानिवृत होने के बाद बुकर के व्यवसाय में अपने आप को लगाना चाहता हूँ। सबसे सस्ता दुनिया में यही है।

चव्हाणजी ने हमें यही सिखाया है। उस समय लोकमत के तेरह संस्करण और उनमें 12-12 पेज/पृष्ठ जिसका मतलब 156 पेज। उस समय लोकमत का पब्लिक प्रिंट आर्डर 15 लाख। इस पूरे प्रिंट आर्डर में लोकमत के पत्रकारों का वेतन निकल सकता है। यह गौर करने लायक है कि उन पेजों में कोई विज्ञापन नहीं है। लोकमत के संबंध में चुनाव आयोग ने टाइम्स आॅफ, महाराष्ट्र टाइम्स और देषनगरी में लिखकर उŸार दिया। यह एक खबर है।

ओबामा वास्तव में एक शक्तिषाली/सक्रिय व्यक्तित्व है। पहला काला आदमी अमेरिका का राष्ट्रपति बना लेकिन उसको कुल पाँच पेज कवरेज भी नहीं मिला जबकि इनको 156 पेज मिले। 2008 से 12 तक चुनाव आयोग अपने विषिष्ट रूप में रहा, उसने जो कुछ भी किया वह बुद्धिमानी के साथ किया। फिर जनवरी 2012 से बहुत समझौते हुए और न्यायालय ने भी अच्छा किया।

उन दिनों वकील अभिषेक मनु सिंघवी, अषोक चव्हाण साहब प्रतिदिन मेरे संपर्क में थे। इस बीच स्थानीय अखबारों में हमारे बारे में भी स्टोरी आई कि इतना पैसा लिया। विलासराव प्रतिद्वंद्वी हैं, उन्होंने अषोक चव्हाण को बदनाम करने के लिए दो करोड़ दिए। मैंने बस एक ही विरोध किया कि मेरा मूूल्य/रेट इतना मत गिराओ। विलासराव मुझे देंगे तो दस करोड़ देंगे। इफ आई जस्ट टू शटअप। यह सब हुआ।

चुनाव आयोग ने राजनीतिक दबाव बनाया। अभी हाल में ही कुरैषी साहब सेवानिवृŸा हो गए। अभी जो लोग बैठे हैं उन्होंने इस मामले में न तो कोई परिणाम दिया और न ही किसी तरह का समर्पण दिखाया। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है। क्योंकि केवल माधव किरनालकर अभियोजन/बचाव पक्ष (द डिफीटेड राइवल) की तरफ से है। यह अकेला आदमी है जो इस मामले में देरी नहीं चाहता। देष का पैड न्यूज का मामला इसने कमजोर बनाया। अभी सुप्रीम कोर्ट ने इसे सुनवाई के लिए नहीं रखा है। अब तक एक साल चार महीने हो गए। यह भी एक चुनौती है। अभिषेक मनु सिंघवी ने चुनाव आयोग के न्यायिक अधिकार क्षेत्र को चुनौती दी, उन्होंने कहा, ‘‘चुनाव आयोग को कोई अधिकार नहीं है कि वह चुनाव खर्च/खाता की जांच करे।

उनका काम यह देखना है कि चुनाव खर्च का ब्यौरा जमा किया है या नही। वे उनके अंदर शून्य लिख सकते हैं। उनके पास कोई शक्ति (पावर) नहीं है। चुनाव आयोग, किरनालकर और भारत सरकार एक साथ रहे। लेकिन भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट जाकर कहा कि संविधान में चुनाव के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि वह चुनाव खाते की जांच कर सके। भारत सरकार ने भानावत से शपथ पत्र दिलाया। देखो वह भी कहाँ से? महाराष्ट्र से। देखो, इस तरह नियुक्ति हुई। इसलिए कि चुनाव आयोग मूर्ख (साॅट) बना। मैं सोचता हूँ कि चुनाव आयोग की भूमिका पूरी तरह असंतुष्ट कर देने वाली है। उसे अपनी रीढ़ और मजबूत करने की जरूरत है।

चुनाव में पेड न्यूज की तुलना में ज्यादा बड़ी होती गैरचुनावी पेड न्यूज। (नान इलेक्षन पेड न्यूज इज आॅन द होल बिगर देन पेड न्यूज।) लेकिन चुनाव में बाहर आ जाती है। हमने इस पर भी स्टोरी की। इसमें लिख दिया गया कि बी.टी. काॅटन ने इतना दान दिया। अपने आप फसल बर्बाद हो गई। लेकिन अंत में उसने कहा, ‘‘ दो गांव हैं-रामराजा और अंतर गांव जहाँ एक भी आत्महत्या नहीं हुई। इसलिए कि लोग बी.टी. काॅटन का उपयोग कर रहे थे। उस समय मैं वहीं था जब यह स्टोरी आई। हमने वीडियो स्टोरी की। कम्पनी वाले आए। पटाया दो लोगों को और टाइम्स आॅफ इंडिया की स्टोरी दिखाई। बोला इतनी अच्छी स्टोरी है, फोटो अच्छे हैं। हमारे आदमी बोले, ‘‘हाँ, सब कुछ अच्छा है पर खेत इस गाँव के नहीं हैं।’’ यह तो इलेक्षन पेड न्यूज है। पेड न्यूज है। हजारों करोड़ की बड़ी इंडस्ट्री की। लेकिन इससे चुनाव में लोकतंत्र सीधे जुड़ता है। यह उसकी खास विषेषता है। पैसे की दृष्टि से यह बड़ी है।

भारतीय लोकतंत्र में भारतीय मीडिया एकमात्र विषिष्ट/महत्वपूर्ण (एक्सक्लूसियस) संस्था है। बाकी सब संस्थाओं में प्रतिनिधि हैं। चाहे वे विष्वविद्यालय हों, राज्यपाल हों और न्यायपालिका में सर्वोच्च न्यायाधीष। लेकिन बड़े राष्ट्रीय समाचार पत्रों में हमारे पास विषिष्ट/सर्वोच्च प्रमुख संपादक नहीं हैं। यह बहुत ही विषिष्ट मीडिया है। वह कैसे आरक्षण के मसले पर प्रतिक्रिया देता है? वह इस मामले में बहुत मजबूती से सामने आता है। इस परिपेक्ष्य में मैं तर्क करता हूँ, क्या आप इसमें दलित को खोज सकते हैं? जबकि भारतीय लोकतंत्र और सरकार की प्रत्येक संस्था और उसकी शाखाओं में दलित मिल जाएंगे लेकिन मीडिया में नहीं। आदिवासी और दलित वर्ग से कोई संपादक नहीं है। आई.ए.एस. में आपको दलित मिलेंगे। पूरी आई.आई.टी. में दलित मिलेंगे। यद्यपि इनमें इनका सीधा प्रवेष है। लेकिन मीडिया में ऐसा नहीं है। क्योंकि मीडिया में मिथ्या अभिमान की दीवार बहुत मजबूत है।

ऐसे बहुत से विचार हैं जिन पर आप काम कर सकते हैं। मान भी लें कि पत्रकारों के बीच अच्छी नेटवर्किंग है। लेकिन हम कितना नेटवर्क करते हैं?, एक स्टोरी पर। जहाँ एक समाचार पत्र में एक अच्छी स्टोरी आती है तो दूसरे में वह प्रकाषित ही नहीं होती। अच्छी स्टोरी के प्रकाषित/खुलासा होने के लिए नेटवर्क होना चाहिए।
  चलिए हम पत्रकारिता के मौजूदा ढांचे के संबंध में बातचीत करते हैं। पहला यह कि तुम मीडिया में एकाधिकार (मोनोपाॅली) की समस्या को हल करने के लिए प्रयास नहीं करते। यदि हम मीडिया के एकाधिकार की समस्या पर रोक लगाने की बात को उठाते नहीं है तो क्या हम इसके साथ इस क्षेत्र में षिक्षा की समस्या को हल कर पाएंगे? नहीं होगा! कानून बनेगा, सामाजिक सुधार होगा, बदलाव होगा, आंदोलन होगा। षिक्षा पर रोज आंदोलन होता है। लेकिन मीडिया पर कुछ नहीं होता। पेंसठ साल पहले हमारा लोकतांत्रिक देष बनाया। ठीक है। इसमें मीडिया शामिल था। अभी इसमें दोनों शामिल हो गए-राजनीतिक व्यापार भी। तुम क्या कर सकते हो?

क्या तुम आज़ादी के पहले की पत्रकारिता में पीछे नहीं लौट सकते? यदि आप भारतीय समाज के एकाधिकारीकरण के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार नहीं है? यदि आप में संगठित व्यापारीकरण के खिलाफ लड़ने का माद्दा/की इच्छा शक्ति नहीं है? तो आप भारत में इनके खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ सकते। यद्यपि संयुक्त राज्य अमेरिका में कानून है-क्राॅस ओनरषिप लाॅज। इसका मतलब है अगर भोपाल में हर समाचार पत्र, हर टी.वी. चैनल, हर रेडियो चैनल मेरे हाथ में है तो वह बोल नहीं सकता। क्राॅस आॅनरषिप कानून (लाॅज) एक ही शहर में सभी मीडिया पर एक ही व्यक्ति के मालिकाना अधिकार की अनुमति नहीं देता।

इसे विकेन्द्रीकृत/विभिन्न हिस्सों में बांटना होगा यानी इसके अलग-अलग सौंपना होगा। इस कानून को तोड़ा जा रहा है। जब मैं 1998 में अयोवा विष्वविद्यालय गया था, मैंने वहाँ एक सेमेस्टर पढ़ाया, मैं संयुक्त राज्य अमेरिका में 12 सप्ताह बिना टेलीफोन सुविधा के रुका। उस जमाने में सेलफोन मँहगे थे। बेल टेलीफोन कंपनी में हड़ताल चल रही थी। तब मैंने बेल कंपनी के राइवल (प्रतिद्वंद्वी) को फोन किया। बेल कपनी ने बताया कि कर्मचारी हड़ताल पर है, नहीं हो सकता। मेकलाउड ने कहा, ‘‘हम यह नहीं कर सकते, क्योंकि मैकलाउड पर बेल का मालिकाना हक/या खरीद लिया है। क्राॅस आॅनरषिप कानून इस प्रकार के बंधनों को रोकता है।

हिन्दुस्तान में अराजकता के दो इतिहास हैं-दो प्रेस आयोग बैठाये गए। पहला प्रेस आयोग 1954 में और दूसरा 1980 में। इसमें उन समाचार पत्रों को आमंत्रित कर शामिल किया/जोड़ा गया जो बड़े व्यापारिक घरानों से जुड़े थे। दूसरे प्रेस आयोग में कुछ विषेष व्यक्तियों ने कहा, ‘‘भारत में प्रेस की आजादी पर सबसे बड़ी धमकी/खतरा जो आ रही है वह व्यापार मालिकों की ओर से हैं। यू.के. और यू.एस.ए. में इस पर रोक के लिए कानून हैं। लेकिन हमारे पास कोई कानून नहीं है।

हमें  मीडिया में एकाधिकार प्रभुत्व के खिलाफ लड़ना होगा। लेकिन अगर हम अभी कोई कदम नहीं उठाएंगे तो मर जाएंगे। सोचिए! और लड़िए मीडिया के लिए,  मीडिया पर एकाधिकार के प्रभुत्व पर प्रतिबंध/रोक के लिए लड़िए। आपको विद्रोह करना होगा।

कोल ब्लाॅक में कुछ थी मर्यादा/सीमा (केप्स)। बहुत सारे कोल ब्लाॅक्स आप नहीं दे सकते थे। फिर कैसे आपने एक ही चैनल को बहुत सारे कोल ब्लाॅक्स दिए? टेलीविजन जनता का संसाधन है। हम इसका कैसा उपयोग करेंगे, इसके निर्णय का अधिकार हमारा है। इस एकाधिकार के लिए लड़िए। आप नहीं लड़ सकते? आज दूसरे पत्रकार आंदोलन को पुनः जीवित करने की जरूरत है। अब पत्रकार संगठन/यूनियनें खत्म हो गए। और जिस दिन से पत्रकार आंदोलन खत्म हुआ है तब से पत्रकारों की स्वतंत्रता समाप्त हो गई है।

पेड न्यूज का एक मेरा अनुभव है। एक वरिष्ठ मराठी पत्रकार जिसे पेंतीस साल का अनुभव था, उन्होंने मुझे फोन किया और कहा, ‘‘साईंनाथ मेरे अखबार में एक बड़ी स्टोरी आ रही है। यह बिल्कुल पेड न्यूज है और उस पर मेरा नाम है तो मैंने कहा, ‘‘यह कैसे हुआ?’’ तब उन्होंने कहा, ‘‘जब हम दोनों ने पत्रकारिता शुरू की थी तब हम दोनो वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट से सुरक्षित थे।’’ आज? तुम जिस समाचार पत्र में काम कर रहे हो वह आज भी वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट का पालन कर रहा है परन्तु मैं जिस अखबार में काम कर रहा हूँ उसमें मेरा केवल ग्यारह माह का अनुबंध (कांटेªक्ट) है, उन्होंने कहा।

मेरी दादी अस्पताल में है। मेरे दो बच्चे काॅलेज में हैं। बेटे ने काम/रोजगार के लिए काॅलेज छोड़ दिया है। बेटी काॅलेज में प्रवेष के लिए राह देख रही है। मैं आठवे महीने में हूँ, 11 महीने के अनुबंध (कांटेªक्ट) में, तो क्या मैं हीरो बनूं? आप सलाह दीजिए। यह वह आदमी है जो सौ प्रतिषत ईमानदार है। मैं यह कभी विष्वास नहीं कर सकता कि वह पैसा लेगा। उसके पास विकल्प क्या था? क्योंकि वह अनुबंध (कांटेªक्ट) पर है। अनुबंध पत्रकारिता (कांटेªक्ट जर्नलिज्म), अनुबंधित श्रमिक (कांटेªक्ट लेबर) जैसा है। कभी भी आपको खत्म कर सकते हैं। वे किसी भी समय आपको नष्ट कर सकते हैं।

जब अनुबंधित पत्रकारिता (कांटेªक्ट जर्नलिज्म) आई तब पत्रकार संगठन (जर्नलिस्ट यूनियन) खत्म हो गए। जिस दिन पत्रकार संगठन खत्म हुए उस दिन पत्रकार की आत्मनिर्भरता और आज़ादी कम हो गई। अगर कोई अखबार आपको प्रताड़ित करेगा तो आपके साथ कौन खड़ा होगा? बीस साल पहले आपके साथ पत्रकार संगठन थे। अब कोई नहीं है।

साल 2010 में अधिकांष पत्रकार बैठकें/सम्मेलन हुए केवल पेड न्यूज के मसले पर। मैं 14 सेमिनार में गया, जहाँ सैंकड़ों पत्रकारों ने अपने अनुभव बताए। यह कहीं नहीं छपा। अनुभव बताने वाले पत्रकारों के समाचार पत्र में भी नहीं। राजस्थान में साढ़े चार सौ पत्रकार बैठक/सम्मेलन में आए। उच्च न्यायालय के न्यायाधीष आए। दो मिनट का भाषण दिया। अगले दिन समाचार पत्रों में न्यायाधीष का दो मिनट का भाषण छपा और कुछ नहीं। ‘‘पत्रकार भी बोले’’-ऐसा लिखा था अखबार में। पेड न्यूज के मुद्दे को समाचार में शामिल नहीं किया गया। यह है कार्पोरेट सेंसरषिप।

यदि आप संगठित पूंजीवादी साम्राज्य के एकाधिकार के खिलाफ नहीं लड़ेंगे तो आप पत्रकारिता को बचा नहीं सकते। यदि आप पत्रकारिता को जीवित नहीं कर सकते तो आप पत्रकार नहीं हो सकते। आज मीडिया के जो मुख्य नाक-नक्ष (फीचर) हैं वे जनसंचार (माॅस मीडिया) और जन वास्तविकता (माॅस रियलिटी) से असंबद्ध होते जा रहे हैं। हम इसकी संबद्धता को न तो चैनल्स से और न ही लेखन में बना पाए। लेकिन हम अपनी यह संबद्धता अपने जीवन से बना चुके हंै।

पेंसठ साल पहले जब भारत लोकतांत्रिक देष बना तब पत्रकार स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा थे। सभी राष्ट्रीय राजनीतिक नेता पत्रकार थे, पुरुष और महिला, वे चाहें विजयलक्ष्मी पंडित हों, जवाहरलाल नेहरु हों, गांधीजी हों या आंबेडकर हो। प्रत्येक पत्रकार थे जिन्होंने अखबार शुरू किए। आज यह बदल गया है। अब उस अति धनवान चेहरे को याद कीजिए, जैसे-अंबानी। पत्रकार, पेषेगत समूह हैं, व्यक्ति विषेष की तरह। इस समूह के नाते अपनी जड़ों से संबंद्धता को परिमार्जित कीजिए। वापस लौटिए अपने संघर्ष के साथ। अन्यथा कुछ होने वाला नहीं। भूल जाइए। आप पत्रकारिता की देखभाल/ उपचार/सुरिक्षित नहीं कर रहे हैं। इसलिए इसका हल है-ढांचागत, कानूनी, राजनीतिक, सामाजिक सुधार तब आप इसके वास्तविक स्वरूप/आकार को खड़ा/बना पाएंगे।

वर्तमान प्रेस परिषद (कांउसिल) कुछ नहीं करेगा। इसके पास कोई ताकत नहीं है। हम अपने हितों की लड़ाई के संबंध में बातचीत कर रहे हैं। मैं खोज चुका कि यह ‘जड’़ है। ब्राडकाॅस्टिंग काउंसिल और प्रेस परिषद उद्योगों के लोगों से भरी हैं, वे कुछ नहीं हैं। हमारे पास, ऐसे कार्यरत पत्रकार या संपादक नहीं हैं जो अपने पेषे से जुडे़ं हैं, वे अपनी तटस्थता को छोड़कर इस जड़ता के खिलाफ लडे़ंगे। असंभव। जबकि आप यह खोज और जांच चुके हैं तब आप उनकी ओर देखेंगे कि हिन्दू कुछ करेगा? एक्सप्रेस कुछ करेगा और टाइम्स कुछ करेगा? और आप कह रहे हैं, भेड़िया/ षिकारी, मैमने का मार्गदर्षन करे। यह सही नहीं है।

आपके पास कोई स्वतंत्र संगठन/व्यवस्था नहीं है, इस प्रकार/चरित्र का। तो नियमित कार्यकारिणी/व्यवस्था (रेगूलेटरी बाॅडी) में, वहाँ निजी हितों का बहुत झगड़ा है। आपकी आवष्यकता है नियमित कार्यकारिणी/व्यवस्था (रेगूलेटरी बाॅडी) की। दूसरे औद्योगिक संगठन उसमें हिस्सा लेते हैं, वे इसके सिद्धांत पर कब्जा कर चुके होेते हैं, वहाँ कोई नियम/कानून नहीं होते क्योंकि वह अपने निजी हितों का गंभीर झगड़ा है। वह आत्मानुषासन नहीं होता। वह स्वयं का बचाव होता है।

श्रीनिवासन रेड्डी और धनंजय ठाकुर ने श्रेष्ठ रिपोर्ट दी। उसमें कुछ श्रेष्ठ सिफारिषें कीं। संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने मेरा एक भी प्रस्ताव नहीं लिया। मैंने जो अभी बताया कि प्रेस परिषद की कार्यकारिणी में आप वर्तमान में नौकरी कर रहे संपादकों और उनके मालिकों को इसमें शामिल नहीं करें। आपके पास अलग तरह की नियमित कार्यकारिणी होगी तो बहुत सारे हल निकलेंगे/होंगे। और दूसरा विचार यह है कि अगर आप प्रेस को सबसे ज्यादा सुरक्षा देना चाहते हैं, तो यह आम आदमी से आएगी। आम और जनता से आएगी।

आज से सौ साल पहले भारतीय मीडिया इस आम-आदमी का प्रतिनिधित्व करता था। परन्तु जब समाचार पत्र प्रेस कम संख्या में थे। तब यह अपने समय के अनुकूल था। और बड़े सामाजिक उद्देष्यों को लेकर सेवा करता था/ रक्षा/पूर्ति करता था। आज आपके पास विषाल मीडिया है जो क्षुद्र उद्देष्यों के लिए काम करता है। यह भारतीय मीडिया का विरोधाभास है। मीडिया के पास बहुत क्षुद्र/छोटे उद्देष्य हैं, ये भी बहुत बौने/सकरे हैं।

आपके पास ऐतिहासिक मूल्य हैं मेरे साथ चलो, उन्हें देखें। कोलकाता विष्वविद्यालय के पहले कुलपति  (वाईस चांसलर) आषुतोष जब गिरफ्तार हुए और रिहा हुए, उस समय के पत्रकारों का जनता से जो संबंध था, भारतीय संबंधों की इस खूबसूरती को देखें। जब बालगंगाधर तिलक को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था तब गलियों/सड़कों पर कौन आया था? टाटा, बिड़ला, गोदरेज, अंबानी, नहीं आए थे। लेकिन तब आम/साधारण जन ही गलियों/सड़कों पर निकले। 22 कार्यकर्ता मारे गए। जो मारे गए उनमें कोई पढ़ा-लिखा नहीं था।। बाल गंगाधर तिलक ने लिखा जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहते थे। यह इतिहास है। उस समय के नेताओं का यह था आम/साधारण जन से जीवंत संपर्क/जड़ाव। हमारा इसमें विष्वास नहीं रहा। आप एक ही स्रोत से सबकुछ प्राप्त करते हैं, क्या आपने ध्यान दिया

प्रतिदिन हर सुबह मैं पाँच अखबार प्राप्त करता हूँ। इस पूरे गट्ठर को पढ़ने में चालीस मिनट लेता हूँ। आज से दस साल पहले टाइम्स आॅफ इंडिया ने एक विज्ञापन दिया था कि औसत टीवी दर्षक केवल तीस मिनट टीवी देखता है जबकि वह 34 मिनट टाइम्स आॅफ इंडिया पढ़ता है। तब मैंेने उन्हें एक पत्र लिखा कि आपका पाठक बहुत ही विष्वसनीय/वफादार है, वह तीन बार अखबार पढ़ता ही नही ंतो कैसे वह 34 मिनट अखबार पढ़ता है? तो इन पाँच समाचार पत्रों में मैंने कुछ सामग्री एक्सप्रेस में पाता हूँ।

उसके कुछ राष्ट्रीय संवाददाता अच्छे हैं। वे निष्चित प्रकार की स्टोरी देते हैं। क्या आप यह नहीं जानते कि टाइम्स अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ब्रांड कवरेज देता है वह भी  मत/संपादकीय (ओपिनीयन्स पेज) पृष्ठ पर। इसलिए मैं विभिन्न प्रकार के अखबार देखता हूँ लेकिन मैं उन्हें एक सा पाता हूँ। तब मैं खास मसलों/मुद्दों के लिए  पत्रिकाओं को देखता हूँ। मेरी विषेष रुचि बेवसाइट देखने में हैं जो कृषि के संबंध में विचार-विमर्ष करती हैं।

एक खास बिंदू/विचार है-आपने ध्यान दिया होगा कि सभी सूचनाएं एक स्रोत और एक ही खाखे में आप हासिल करते हैं। क्या यह व्यग्र/बैचेन कर देने वाला नहीं है? एक दूसरा बिंदू है, वह बहुत ही रोचक है भारत का और वैसा ही शर्मनाक उसके मध्य वर्ग के संबंध में। इस देष में बहुत सारे लोग छोटे पत्र ( जर्नल्स) प्रकाषित करते हैं। मेरी आलोचना उन सबके लिए है।

इस तरह के जर्नल्स में यदि आप कुछ अंषदान नहीं देते हों, आप इनमें प्रकाषन के लिए नहीं लिखते हैं। भारत में एक हजार छोटे जर्नल्स प्रकाषित होते हैं जिनमें कुछ मूर्खतापूर्ण सामग्री (रिडिकल्स स्टफ) होती है। यहाँ ऐसी भी पत्रिकाएं हैं जो खास किस्म की जानकारियां/सूचनाएं देती हैं। जब यूपीएससी की परीक्षाएं आती हैं तब फ्रंटलाइन का प्रसार बढ़ जाता है। उस समय उसकी हजार-बारह सौ काॅपी बढ़ जाती हैं। लेकिन यह पैसा नहीं बनाता है।

भारत में लघु पत्र-पत्रिकाओं का आंदोलन है। इन जर्नल्स में यह काफी समृद्ध/धनी है। स्थानीय स्तर पर वे कुछ करते हैं. कुछ सामग्री इनमें से उठा लेते, चुरा लेते हैं। जैसे कुछ खास (एक्सक्लूसिव) कर दिया। हम उनकी सहायता कर सकते हैं जो छोटे आंदोलन चलाते हैं। इनमें से एक बहुत सस्ता तरीका है/पद्धति है आॅनलाइन साक्षात्कार (इंटरव्यू) की। प्रतिदिन टेलीविजन न्यूज आती है, इनमें कुछ ऐसी स्टोरी आती हैं जो बहुत अद्भुत या जिन पर विष्वास नहीं होता/हतप्रभ कर देने वाली होती हैं।

मारुति सुजकी ने एक कामगार के कान के सेलफोन में हाई डेफीनिषन लगाया। फिर पूरी कहानी कामगार ने बताई कि एक टाॅय में एक हजार कामगारों को एक साथ देखो। यह आॅनलाइन टीवी है। इसमें लागत बहुत कम है। आप स्थानीय स्तर पर आॅनलाइन टीवी समूह बनाइए। यह सस्ता रास्ता है। इस तरह के अनेक विकल्प है जो आप जोड़ सकते हैं साक्षात्कार के लिए। हमारे लोग, समाचार पत्रों और आॅनलाइन पर सहयोग नहीं करते, प्रतिक्रिया/अपना मत नहीं देते जो कि प्रगतिषील है। स्थानीय स्तर पर प्रगतिषील पत्रिकाआंें की सहायता कीजिए। समूह बनाइए आॅनलाइन टेलीविजन, सामुदायिक आॅनलाइन टेलीविजन। यह सस्ता है। यह हम कर सकते हैं।

मेरा सिद्धांत है सूचना के अधिकार के लिए-जिसके पास भी जनता का पैसा है उसका सार्वजनिक आॅडिट होना चाहिए, उसमें पूरा कार्पोरेट जगत आ जाता है, पहले और मीडिया उनका है। कोच्चि में आॅडिटर एसोसिएषन की बैठक प्रस्तावित की और इसके लिए वे तैयार हैं। मेरा कहना है कि अगर आप मुकेष भाई के साथ प्रोजेक्ट करते हैं तो लाखों-करोड़ों-अरबों रुपया मुकेष के हाथ में जा रहा है, यह पैसा आम जनता का है-यह मैं कह रहा हूँ। मुकेष कंपनी उसमें शामिल है उसका कैग आॅडिट होना चाहिए। सार्वजनिक आॅडिट होना चाहिए। और वह कंपनी सूचना के अधिकार के तहत होना चाहिए। समाचार पत्र सब जनता लेती है।

विज्ञापन लेते है डीएव्हीपी से, जो पैसा लेते हैं वह जनता (पब्लिक) का है। निष्चित ही जनता के पैसे के प्रति जवाबदेही बनती है कि इस पैसे को किस तरह खर्च किया गया। आॅडिटर्स एसोेसिएषन के लोगों को मैंने कहा-इसका आॅडिट कर सकते हैं। उन्होंने कहा-कर सकते हैं। वे मानते हैं कि यह एक अच्छा सिद्धांत है।

सवाल: सामाजिक मसलों के लिए मीडिया में बहुत कम जगह रह गई। ऐसे में आप क्या कर सकते हैं जब बी.टी.काॅटन की कंपनी के लगातार विज्ञापन आते रहते हैं। ऐसे में मीडिया कर्मी या सामाजिक कार्यकर्ता या एक सामान्य व्यक्ति के तौर पर आप क्या कर सकते हैं?

साईंनाथ: यहाँ कम से कम दस विचार/चीजें ऐसी हैं जिन पर तत्काल आप काम कर सकते हैं। इनमें जो शामिल हैं- संपूर्ण ढांचे और नियमित कार्यकारणी का पुनर्निर्माण। मैं चाहता हूँ बहुत ही स्पष्ट/साफ विचार बने, जब मैं कहता हूँ कि  नियम/नियमित व्यवस्था (रेगूलेषन) हो। मेरा मतलब नियमों के उद्देष्यों (रेगूलेषन आॅफ कंटेंट) से नहीं है। मेरा मतलब पूरे ढांचे को व्यवस्थित करने से है। पूरे ढांचे/कार्यकारणी का पुनर्निर्माण, जैसे प्रेस परिषद या ब्राॅडकाॅस्टिंग काउंसिल। मैं किसी से यह नहीं कहना चाहता कि आपने क्या सही लिखा हंै और क्या गलत लिखा हैं? हम उस विचार/बिंदू पर आते है जो आप बना रहे हैं। तुमने पाया होगा, मूल बात के दृढ़तापूर्वक पूरे खुलासे में भिन्नता है। यहाँ बहुत सारे अखबार, कई व्यापार पत्रकार लिखते हैं कि आपका पैसा यहाँ लगाएं, आपका पैसा वहाँ लगाएं। उनके पास उन कंपनियों के शेयर्स होते हैं। दुनिया में ऐसे कई अखबार हैं जिनके काफी कठोर/मजबूत नियम हैं खुलासे के। (रूल्स आॅफ डिसक्लोजर)। जब आप व्यापार पत्रकार के रूप में कहीं कार्यभार संभालते हैं तब आपको अपने पूरे कामकाज को लेकर संपादक के सामने स्पष्ट घोषणा करनी पड़ती है। जब आप अपने कथन का पूरा खुलासा करते हैं तो वह भी/आपका लेखन भी स्पष्ट/साफ होना चाहिए। आईपीएल में सुनील गावस्कर, हर्षा भोगले कहते हैं कि आईपीएल कितना अद्भुत है। यद्यपि इसमें सभी सट्टा लिखने वाले (बुकीज) और सभी बड़े लोग पकड़े गए। यदि आप आईपीएल से तीन करोड़ रुपया प्राप्त करते हैं तो आप यही कहेंगे जो सुनील और हर्षा कह रहे हैं। इसको कहते हैं निजी हितों का झगड़ा। इसका पूरा खुलासा हुआ है। यदि आप कम पाएंगे तो आप इसको उजागर करेंगे। मैंने समूह वार्ता (पेनल डिस्कषन्स) में जनता के सामने कहा। वहाँ सभी लोग बैठे थे। इनमें वे कुछ खास कार्पोरेट प्रतिनिधि भी थे जिनके अपने निजी स्वार्थ हैं। आईपीएल ने एजेंट्स को भी वार्ता में भाग लेने की अनुमति दी थी। इसका मतलब है कि मीडिया में नई आचार संहिता (न्यू कोड आॅफ एथिक्स) जो पूरी दृढ़ता/ मजबूूूती के साथ अपने लेखेजोखे को आधुनिक/व्यवस्थित और मजबूत कर रहा है। आप क्या कर सकते हैं? हाँ, यह किया जा सकता है। आपने देखा होगा कि बड़े-बड़े साम्राज्य ध्वस्त हो गए। यह कभी सरल नहीं रहा। यह हुआ है। आप चाहें तो यह सरल है। यह किया जा सकता है।
  अगर स्थानीय समाचार पत्र हैं, सामुदायिक अखबार हैं तो पेड न्यूज हो सकती है। लेकिन राष्ट्रीय समाचार पत्र यह नहीं कर सकते। क्योंकि लागत की कीमत करोड़ों रुपया है, जिसका पैसा कार्पोरेट जगत के नाम पर है। आपको, शहरों के स्तर तीस-चालीस करोड़ रुपया निवेष करके चार-पाँच साल घाटा उठाना चाहिए? आप और मैं यह नहीं कर सकते। लेकिन स्थानीय पत्र-पत्रिकाएं यह कर सकते है, सफलता प्राप्त करके। ऐसे उदाहरण केरल में हैं जो समाचार पत्र सफलता प्राप्त कर रहे हैं।

  अगर नए पत्रकार जीवित रहना चाहते हैं तो आपको मल्टी मीडिया योग्यता हासिल करनी होगी। मैं साधारण/सरल तरीके से बताता हूँ-मैं बहुत अच्छा हूँ। समाचार पत्र के लिए पैसों के मूल्य के लिए। क्योंकि मैं सभी छाया चित्र उपलब्ध कराता हूँ इसकी अलग से कोई कीमत नहीं होती। तो क्या है कि एक छायाकार का वेतन बचता है। अभी क्षेत्रीय स्तर पर टीवी रिपोर्टर/संवाददाता हैं, कैमरामैन से लेकर सब वही है। तो मैं कह रहा हूँ कि यदि आप दो योग्यताएं विकसित नहीं करेंगे तब आप दस साल बाद स्वयं को बचा (सर्वाइव) नहीं पाएंगे। हर क्षेत्रीय स्तर के चैनल में रिर्पोटर, कैमरामैन भी है।

  एक और बात है कि अभी संयुक्त राज्य अमेरिका में समाचार पत्र बंद हो रहे हैं लेकिन भारत में समाचार पत्र पैसा बना रहे हैं। यह उनकी प्रतिभा है। यह अलग बात है कि उनका खेल अलग है मेरा खेल अलग है। लेकिन मैं इस बुद्धिमानी की सम्मान/तारीफ करता हूँ। वह बहुत सारी गतिविधियां चलाते हैं। लेकिन यह आंकलन/मूल्यांकन बहुत ज्यादा है कि हम महान हैं, हम विकास कर रहे हैं। दरअसल भारत में साक्षरता बढ़ रही है इसलिए समाचार बढ़ रहे हैं। मैं एक समाचार पत्र की सिफारिष करूंगा, ‘‘खबर लहरिया’’ अभी उसने अपनी बेवसाइट आरंभ की है, प्रत्येक व्यक्ति वह देख सकता है। यह चित्रकूट से आता है। दो महीने पहले, मैं इसके पत्रकारों से मिला हूँ। इतनी ऊर्जा/उत्साह, उनका नजरिया देखो। उन्होंने अभी अपना पाँचवा संस्करण आरंभ किया। इसका मतलब है कि जगह है। अगर आपका मुद्दों पर नजरिया स्पष्ट है। लेकिन एक और बात बताता हूँ, जैसे हमारे मध्यवर्गीय पत्रकार है, कृपया आप समझेंगे। दस-पन्द्रह सालों में बड़े समाचार पत्र कैसे महान/बड़े हुए? एक या दो समाचार पत्रों को छोड़कर, सभी ने  अपना कमजोर जमीनी स्तर मजबूती से छोड़ा। क्योंकि वे डिजिटल प्लेटफाॅर्म पर आए। जब आप डिजिटल प्लेटफाॅर्म पर प्रिंट, फोटोग्राॅफी, आॅडियो टेप्स, वीडियो टेप्स को जोड़ते हैं।

  क्या देष की कुल जनसंख्या के 53 प्रतिषत लोगों के पास सेलफोन हैं? मैं ऐसा नहीं सोचता कि यह कोई बड़ा आंकड़ा है। मैं कहता हूँ सच, 53 प्रतिषत का। यह 40 प्रतिषत है। वह भी कैसे? बाकी सब एक-एक आदमी पाँच-पाँच फोन रखे हुए है। पत्नी का अलग है। वैसे भी घर में पाँच फोन हैं। अब गिना कैसे जाता है? एक कनेक्षन एक मालिक/व्यक्ति। यह सच नहीं है। यह सही नहीं है। क्या 53 प्रतिषत लोग सेलफोन का उपयोग कर रहे हैं जबकि 61 प्रतिषत लोगों के बैंक खाते नहीं हैं। यह कैस फैल गया दस साल में? 1998 में मैं सेलफोन का खर्च वहन नहीं कर सकता था। लेकिन अभी सेलफोन जैसे फैल गया है, पिछले दस सालों में। आने वाले दस सालों में ब्राॅडबैंड ऐसे ही फैलेगा। कई जगह हो सकता है कि ब्राॅडबैंड मुफ्त (फ्री) हो जाए। मेरे और आपके लिए नहीं। कार्पोरेट जगत चाहता है कि हमेषा आपका ब्राॅडबैंड उत्पादों के साथ राग/अनुराग बना रहे। इसलिए अगले दस सालों में ब्राॅडबैंड फैलेगा बिल्कुल उसी तरह जैसे पिछले दस सालों में सेलफोन फैला।

  ब्राॅडबैंड का भारत में भीतरी स्तर तक प्रवेष/पहुँच बहुत कमजोर है, इसलिए यहाँ समाचार पत्रों के सामने चुनौती नहीं है जैसी अमेरिका में है। वहाँ नब्बे प्रतिषत ब्राॅडबैंड है। यहाँ दो से छह प्रतिषत ब्राॅडबैंड का प्रवेष/पहुँच है। लेकिन अब एक और तकनीकी बदलाव आ रहा है। अभी जो हमारी बेवसाइट बन रही हैं, जो पच्चीस साल पुरानी हमारी टीम है, उसने ऐसी बेवसाइट डिजाइन की है कि वह बेवसाइट, आप जो भी उपकरण (डिवाइस) उपयोग कर रहे हैं साइज, फार्मेट और वेट में समायोजित (एडजेस्ट) हो जाती है। अगर आप सेलफोन में देख रहे हैं तो वह सेलफोन फार्मेट में आ जाती है। अगर आप टेबलेट देख रहे हैं तो उसमें एडजस्ट हो जाती है। डेस्कटाॅप पर देख रहे हैं तो उसमें एडजस्ट हो जाती है। बिना रिबूटिंग के। तो आने वाले दस सालों के भीतर हम और अधिक आगे भी आने वाली चीजों को स्वीकार करते चले जाएंगे। ब्राॅडबैंड विद्यालय (स्कूल) में आ जाएगा। महाविद्यालयों (काॅलेज) में आ जाएगा। नहीं तो काॅलेज जीवित नहीं रह पाएंगे। इसलिए मैं कहता हूँ कि आप दूसरी योग्यताएं विकसित कीजिए। कृपया इसके साथ ही डिजिटल प्लेटफाॅर्म पर संपर्क विकसित कीजिए। डिजिटल प्लेटफाॅर्म पर अब तक सुपरमैन नहीं बैठा है तो भी एकाधिकार (मोनोपाॅली) हो रहा है। गूगल और ट्विटर बहुत तेज हैं। उनका एकाधिकार ज्यादा बड़ा है मीडिया एकाधिकार की तुलना में। वास्तव में इंटरनेट पर एकाधिकार बहुत खराब/बुरा है। क्योंकि वे आपका व्यक्तिगत विवरण चुरा लेते हैं। दूसरे एकाधिकार आपके साथ यह नहीं करते। डिजिटल मीडिया पर आप अपनी आखें खुली रखिए। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि आप पत्रकारिता छोड़ दें। विभिन्न प्रकार के मीडिया के उपकरणों से अपने को जोड़िये/संबंद्ध रखिए। मैं एक राजनीतिक व्यक्ति हूँ। मैं तटस्थ नहीं हूँ। लेकिन हर आदमी का अपना एक प्रभाव क्षेत्र होता है। हर आदमी टेªड यूनियन का नेता नहीं बन सकता, हर आदमी नेता नहीं बन सकता और हर आदमी जनोन्मुखी पत्रकारिता (प्रो-पीपल जर्नलिज्म) नहीं कर सकता। लेकिन मैं चाहता हूँ कि लोग इस पर ध्यान केन्द्रित करें।...

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