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उत्तर बस्तर के एक गुड़ी में बनाई गई गाड़ी। |
अपनी अनोखी परंपराओं के लिए बस्तर देश भर में जाना पहचाना जाता है। ऐसी ही एक प्रथा है बस्तर में मृतक स्तंभ। दक्षिण बस्तर में माडिय़ा तथा मूरिया जनजाति के लोगों में इस तरह के मृतक स्तंभ बनाए बनाने की प्रथा अधिक है। स्थानीय भाषा में इन्हें गुड़ी कहा जाता है।
प्राचीन काल में पूर्वजों को जहां दफनाया जाता था वहां 6 से 7 फीट ऊंचा एक चौड़ा तथा नुकीला पत्थर रख दिया जाता था। पत्थर दूर पहाड़ी से लाए जाते थे तथा इन्हें लाने में गांव के लोग मदद करते थे। जिस दिन पत्थर लाया जाता था उस दिन इस कार्य में मदद करने वालों के लिए भोज का आयोजन किया जाता था। कहीं-कहीं पर साल की लकड़ी को तराश कर गड़ा दिया जाता था। तब प्रथा यह भी थी की पूर्वजों को जो वस्तु उदाहरण (तीर-धनुष, कुल्हाड़ी, तुमड़ी आदी) से अधिक लगाव होता था उसे समाधि स्थल पर रख दिया जाता था।
समय बदला तो इन गुड़ी का स्वरूप भी बदलने लगा। कुछ स्थानों में पत्थरों तथा साल की लकड़ी में आकर्षक चित्रकारी की जाने लगी है। आदिवासी प्रकृति के अधिक करीब रहते हैं इसलिए चित्रकारी में पेड़, पौधे, पशु, पक्षी ही अधिक नजर आते हैं। जगदलपुर से बैलाडिला के मध्य रास्ते में जगह जगह एसे अनेक गुड़ी को देखा जा सकता है।
दंतेवाड़ा तथा बचेली के मध्य गामावाड़ा में एसे ही प्राचीन गुड़ी स्थल को पुरातत्व विभाग ने संरक्षित करने वहां फेसिंग भी की है। उत्तर बस्तर में भी इस प्रकार की प्रथा है, लेकिन यहां के गुड़ी का स्वरूप अलग होता है। यहां ईंट-पत्थरों से जोड़ाई कर गुड़ी बनाई जाती है। किसी को अगर जीप, बैलगाड़ी या मोटरसाइकिल आदि से अधिक लगाव रहा हो तो उसके गुड़ी का उसी का आकार दे दिया जाता है।
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पहले इस तरह से चौड़े तथा नुकीले पत्थरों को समाधि स्थल पर लगाया जाता था। |
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समय के साथ साथ गुड़ी का स्वरूप भी बदला तथा अब उनमें की जाने लगी है आकर्षक चित्रकारी। |
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अंदरूनी गांव में नजर आती है इस प्रकार की गुड़ी। |
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गुड़ी बनाने के लिए किया जाता था साल की लकड़ी का भी उपयोग। |
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पुराने समय में कुछ इस प्रकार भी बनाई जाती थी गुड़ी। |
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दक्षिण बस्तर के गामावाड़ा में पुरातत्व विभाग ने गुड़ी स्थल को संरक्षित करने लगाई है लोहे की फेंसिंग। |
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उत्तर बस्तर में गुड़ी का स्वरूप बदला नजर आता है। किसी को जीप पसंद हो गुड़ी को उसी का आकार दे दिया जाता है। |
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COURTESY: RAJESH SHARMA
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