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‘राष्ट्रीय शर्म का हंगामा’


- चिन्मय मिश्र
अंततः नांदी फाउंडेशन की रिपोर्ट से शर्मिंदा हुए प्रधानमंत्री

नांदी फाउंडेशन द्वारा कुपोषण पर तैयार की गई रिपोर्ट को जारी करते हुए प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने इसे ‘राष्ट्रीय शर्म’ घोषित किया है। यहां पर सवाल यह उठता है कि पिछले कई वर्षों से बच्चों एवं स्वास्थ्य से जुड़े केंद्र एवं राज्य सरकारों के सभी मंत्रालय, सर्वोच्च न्यायालय, सारे के सारे राष्ट्रीय सर्वेक्षण, गैर सरकारी संगठन, संयुक्त राष्ट्र संघ की मानव संसाधन रिपोर्टों व अखबारों में कुपोषण से बच्चों के मरने के समाचारों के बावजूद अब तक यह ‘राष्ट्रीय शर्म’ का मसला क्यों नहीं बना और अब नांदी फाउंडेशन जो कि एक कंपनी की तरह कार्यरत है और देश भर में बच्चों को मध्यान्ह भोजन उपलब्ध करवाने का ठेका लेती है, की रिपोर्ट से   प्रधानमंत्री एकाएक शर्मसार क्यों हो गए?
इस पर आगे बात करने से पहले नांदी फाउंडेशन की रिपोर्ट की प्रस्तावना की आरंभिक पंक्तियों पर गौर करना आवश्यक है। इसमें लिखा है ‘अनेक नेता जिनमें अधिकांश युवा सांसद थे, ने निश्चय किया कि वे एक साथ मिलकर बच्चों में व्याप्त कुपोषण के खतरनाक स्तर में परिवर्तन लाएंगे। इसलिए उन्होंने तीन वर्षों तक देश के उन हिस्सों का भ्रमण किया जहां पर बड़ी मात्रा में कुपोषण व्याप्त है।’ फेहरिस्त जिसमें बच्चों से लेकर मुख्यमंत्री तक शामिल हैं, से उन्होंने इस मुद्दे को समझने के लिए भेंट की और ‘हंगामा’ खड़ा करने की आवश्यकता महसूस की। गौरतलब है नांदी फाउंडेशन की रिपोर्ट का शीर्षक भी ‘हंगामा’ ही है। यानि वे हंगामा खड़ा करना चाहते थे और इस प्रक्रिया में एक संगठन ‘सिटीजंस अलायंस अगेंस्ट मालन्यूट्रिशियन’ भी अस्तित्व में आया। यानि हमारे सांसदों को तीन वर्ष लगे कुपोषण समझने में। जबकि इस संबंध में अनेकों रिपोर्ट संसद के सामने भी आ चुकी हैं।

दुष्यंत कुमार ने लिखा है,
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है, जेरे बहस ये मुद्दआ।


उपरोक्त पंक्तियां अनगिनत बार दोहराई जा चुकी हैं लेकिन हमारी व्यवस्था में इनसे छुटकारा पाने का कोई प्रयास ही नहीं किया जाता।  प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में बहुत स्पष्ट तौर पर कहा था ‘हमारे सकल घरेलू उत्पाद में प्रभावशाली वृद्धि के बावजूद देश में कुपोषण का स्तर अस्वीकार्य स्तर पर है’ उनके इस वक्तव्य से दो बातें उभरकर आती हैं। पहली तो यह कि, क्या कुपोषण का कोई स्वीकार्य स्तर हो सकता है? और दूसरी अत्यन्त महत्वपूर्ण बात जो उभरती है वह यह कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में प्रभावशाली वृद्धि के बावजूद कुपोषण का बना रहना।

यहां हम दूसरी बात पर थोड़ा विस्तार में जाते हैं। इस स्वीकारोक्ति से यह तो स्पष्ट हो गया कि जीडीपी में वृद्धि का सामाजिक लाभ देश को नहीं मिल पा रहा है और देश में बड़े स्तर पर बेरोजगारी व गरीबी व्याप्त है। अर्थात हम रोजगार विहीन विकास दर की दिशा में दौड़ रहे हैं और बढ़ता मशीनीकरण जो कि रासायनिक व मशीनीकृत खेती के माध्यम से कृषि क्षेत्र में प्रवेश कर गया है, देश में बेरोजगारी बढ़ा रहा है। यदि हम एक ऐसी व्यवस्था के अंतर्गत निवास कर रहे हैं जिसमें हमारे 50 प्रतिशत बच्चों को दो वक्त की भरपेट रोटी तक नहीं मिल पा रही है तो क्या यह अनिवार्य नहीं है कि हम अपनी विकास एवं आर्थिक नीति पर पुनर्विचार करें? लेकिन क्या ऐसा होने की संभावना नजर आती है?

दुष्यंत कुमार का ही एक अत्यंत लोकप्रिय शेर है,

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

परंतु ‘हंगामा’ रिपोर्ट का मकसद सूरत बदलना तो कतई नजर नहीं आता। क्योंकि जिस दिन यह रिपोर्ट जारी हुई उसी दिन थोक व्यापार में सौ प्रतिशत विदेशी निवेश की बात भी सामने आ गई। नांदी फाउंडेशन ने देश के 100 कुपोषित जिलों और 6 अत्यन्त कुपोषित व 6 बेहतरीन जिलों का सर्वेक्षण किया है। इस दौरान 73,670 परिवारों को उन्होंने अपने सर्वेक्षण में शामिल किया है। इस प्रक्रिया में उन्होंने 74,020 माताओं, 1,09,093 बच्चों, 3,149 आंगनवाड़ी केंद्रों और 2,207 आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं से मुलाकात की है। सर्वेक्षण बताता है कि 100 जिलों में से 96 प्रतिशत स्थानों पर आंगनवाडि़यां मौजूद हैं। क्या वास्तव में आंगनवाडि़यों की तस्वीर इतनी सुहानी है? पिछले ही हफ्ते इंदौर जो कि    मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा और समृद्ध शहर है तथा इसे ‘हंगामा’ ने अपने सर्वेक्षण में भी शामिल किया है, में कार्यरत दीनबंधु सामाजिक संस्था ने 10 बस्तियों में कुपोषित बच्चों के सर्वेक्षण में करीब 73 प्रतिशत बच्चों को कुपोषित पाया था। इन बस्तियों में पात्रता के बावजूद आंगनवाडि़यां मौजूद नहीं हैं। इनकी स्थापना के बारे में लिखित आवेदन देने के बावजूद वहां 6 महीनों में आंगनवाडि़यां नहीं खुली हैं।

अगर नांदी फाउंडेशन या हमारे जागरूक सांसदों और विशिष्ट नागरिकों को कुपोषित बच्चों को लेकर कोई गंभीर सर्वेक्षण करना ही था वो उन्हें गांव व शहर में असुरक्षा में रह रहे बच्चों के बारे में पृथक सर्वेक्षण करना चाहिए था जिससे कि इनकी स्थिति पर विशेष गौर किया जाता। सामाजिक कार्यकर्ताओं का अनुमान है कि इन इलाके के बच्चों में 90 प्रतिशत तक में कुपोषण हो सकता है। बहरहाल ‘हंगामा’ तो खड़ा हो ही गया और हम सब इसके ‘मकसद’ को तलाश रहे हैं। वैसे भी इस पूरी रिपोर्ट को पढ़कर कहीं भी चैंकने जैसी स्थिति नहीं बनती सिवाय इसके मुखपृष्ठ के जहां पर बजाए रोटी या चावल के अधकटी ब्रेड छपी है। गोया कि भारत में रोटी नहीं ब्रेड खाई जाती हो। क्या यह रोटी फ्रांस के लुई चैदहवें के शासन में भूखे नागरिकों द्वारा किए जा रहे संघर्ष पर वहां भी रानी द्वारा की गई टिप्पणी की याद नहीं दिलाती?

इस रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र संघ के हवाले से छपा है कि ‘प्रतिवर्ष 90 लाख बच्चे 5 वर्ष की उम्र के पहले कालग्रसित हो जाते हैं यानि प्रति तीन सेकेंड में एक बच्चा।’ प्रति तीन सेकेंड में एक बच्चा मर रहा है और हमारे सांसदों को पूरे तीन साल लगे इस समस्या की तह में पहुंचने का प्रयास करने में। इसके बावजूद क्या कुछ नया या त्वरित होने की उम्मीद नजर आती है? शायद नहीं। पिछले कई वर्षों से हम खाद्य सुरक्षा अधिनियम की चर्चा सुन रहे हैं और इसे लेकर धन की कमी का रोना भी हम डबडबाई आंखों से देख रहे हैं। क्या बच्चों को भूख से बचाने के लिए अध्यादेश जारी नहीं किया जा सकता? लेकिन सांसदों, विशिष्टजनों और प्रधानमंत्री के पास और भी बहुत से आवश्यक कार्य हैं। कुपोषण से तुरंत निपटने के लिए आवश्यक है कि वर्तमान आर्थिक नीति की चीर-फाड़ हो लेकिन इसके लिए कोई तैयार नहीं है। कारपोरेट की सामाजिक देयता मद से तैयार इस रिपोर्ट पर कोई टिप्पणी करना इसलिए भी उचित नहीं है क्योंकि इसमें ऐसी कोई नई बात सामने नहीं आई है जिसके पक्ष या विपक्ष में ज्यादा बात की जा सके।

हां इसकी एक बात को बार-बार दोहराया जा रहा है कि 92 प्रतिशत माताओं ने ‘कुपोषण’ शब्द ही नहीं सुना है। हो सकता है उन्होंने यह शब्द नहीं सुना हो, लेकिन पिछले लाखों वर्षों से माताएं बिना इस शब्द को सुने अपने बच्चों का लालन-पालन करती आई हैं और वे जानती हैं कि बच्चा स्वस्थ है या नहीं। बच्चे का स्वास्थ्य जानने के लिए मां को किसी शब्दकोश की आवश्यकता नहीं पड़ती और न ही यह कोई ‘राकेट तकनीक’ है जिसे कि अतिविशिष्ट लोग ही समझ सकते हैं। आज भी भारत में आधे प्रसव घरों में होते हैं और इससे साफ जाहिर होता है कि अतिरंजना से स्थितियों को पक्ष में नहीं किया जा सकता।

तो घूम फिर कर बात फिर वही आती है कि अंततः इस ‘हंगामों’ का कारण क्या है। कारण एक दम साफ है और प्रधानमंत्री ने भी कहा है कि केवल आंगनवाडि़यों एवं समेकित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) से कुपोषण दूर नहीं हो सकता। यानि अब सरकार के अलावा अन्य खिलाडि़यों की भी आवश्यकता है, कुपोषण मिटाने में। यहीं से नांदी फाउंडेशन और पोषण आहार बनाने वाली कंपनियों की भूमिका सामने आती है। इसी वर्ष अप्रैल में 12वीं पंचवर्षीय योजना भी आरंभ होने जा रही है, ऐसे में उसके पहले ‘लाबिंग’ भी तो आवश्यक होगी। वैसे इस लेख में जताई गई शंकाएं असत्य निकलें तो इससे ज्यादा खुशी की कोई बात नहीं हो सकती लेकिन यदि ऐसा नहीं होता तो यह वास्तव में अफसोसजनक ही होगा।

कारपोरेट जगत की कुपोषण में बढ़ती रुचि को लेकर आप सब क्या सोचते हैं? एकरसता हो सकती है लेकिन दुष्यंत कुमार के इस शेर पर गौर करिए और वास्तविकता समझने का प्रयास करिए,


ये घोषणा हो चुकी है, मेला लगेगा यहां पर,
हर आदमी घर पहुंच कर, कपड़े बदलने लगा है।




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