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नम्र का न होना



 राकेश दीवान

श्याम बहादुर ‘नम्र’ ने शहरी कोलाहल को छोड़ एक ऐसी दुनिया अपनाई थी, जिसमें प्रवेश करना साधारणतया किसी पढ़े-लिखे शहरी आदमी के बस में नहीं रहता। परंतु उन्होंने इस जीवन को न केवल अपनाया बल्कि इसे विस्तारित भी किया। सप्रेस के पूर्व सम्पादक एवं वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता राकेश दीवान का उनसे आत्मीयता भरा रिश्ता रहा है। प्रस्तुत आलेख ‘नम्र’ जी के व्यक्तित्व को समझने में सहायक सिद्ध होगा। - का. सं.


आखिर मित्रों पर अकेला छोड़ देने का आरोप लगाकर गरियाने वाले श्याम बहादुर ‘नम्र’ चले गए। सन् 76-77 में अपने दो छोटे बच्चों, पत्नी और हाथ में 14 हजार की मामूली रकम लेकर वे इस भरोसे पर बनारस से अनूपपुर चले आए थे कि वहां बैठा ‘विदूषक कारखाने’ का समूह कुछ बेहतर कर रहा है। उन दिनों शहडोल जिले के इस औद्योगिक कस्बे में देश के सर्वोच्च शिक्षा संस्थानों से पढ़-लिखकर निकले कुछ युवा आसपास के औपचारिक, अनौपचारिक संगठनों के साथ स्वास्थ्य, पर्यावरण, काम की परिस्थितियों और तकनीक आदि पर शोध और उनके प्रशिक्षण में लगे थे। अस्सी के दशक के अंत तक यह समूह तो समाप्त हो गया, लेकिन ‘नम्र’ ने उस जमाने में इलाके की उत्पादन प्रक्रिया से जुड़ने की अपनी जिदनुमा समझ के मुताबिक पास के जमुड़ी गांव में खरीदी पांच एकड़ ऊबड़-खाबड़, अनुपजाऊ जमीन को बनाने-संवारने में अपना और अपने परिवार का पूरा जीवन लगा दिया।

करीब साढ़े तीन दशक की कड़ी मेहनत मशक्कत के बाद खड़ा हुआ आज का ‘अंकुर फार्म’ ‘नम्र’ ने यूं ही सिर्फ दाल-रोटी की खातिर भर नहीं बनाया था। इसके पीछे उनकी सोच थी कि सामाजिक काम करने वालों को आसपास के उस समाज की उत्पादन प्रक्रिया का अंग होना चाहिए जिसके बीच वह काम करता है। इसलिए यह फार्म भी उत्पादन करके बाजार में बेच देने और नतीजे में अपने व अपने परिवार के पेट भरने का साधन भर नहीं रहा। शुरुआत में ही इलाके की बेतरतीब, अनुपजाऊ जमीनों का स्वभाव पहचानकर ‘नम्र’ ने वहां सब्जियों की पैदावार करने का बीड़ा उठाया। बाद में उनका यह प्रयोग इलाके भर के लिए मिसाल बन गया और अब तो ‘अंकुर फार्म’ से सीखकर किसान सब्जियों की पैदावार से लाभ कमा रहे हैं। आज के फंडिंग और चंदे पर जीवनयापन करने वाले सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए भी यह एक ऐसी मिसाल है जिसने समाज के बीच रहते हुए राजनीतिक मूल्यों की स्थापना करने का एक रास्ता दिखाया।

‘नम्र’ का यह ‘अंकुर फार्म’ उनके लिए एक प्रयोगशाला की तरह रहा। काम के साथ शिक्षा से लगाकर सम्मान से श्रम करने तक के प्रयोग ‘नम्र’ ने इसी फार्म में किए। जहरीली खादों, कीटनाशकों के जमाने में काम करने वालों को आवश्यक मास्क और दस्ताने जैसे सुरक्षा उपकरण उपलब्ध करवाने का चलन यहीं से शुरु हुआ था। काम के समय को लेकर खुद ‘नम्र’ के खिलाफ हुई हड़ताल के बाद मजदूरों को घड़ी पढ़ना सिखाने और फिर खुद समय का निर्धारण करने का जिम्मा देने के प्रयोग इसी फार्म में हुए थे। सामाजिक राजनीतिक समझ के साथ सब्जियों का उत्पादन कर लेने के बाद उसे बेचना टेढ़ी खीर था। तब सियासी गफलत में फंसी अनूपपुर की मंडी पर वापस किसानों को कब्जा दिलवाने की खातिर ‘नम्र’ ने इलाके की लंबी पदयात्रा भी निकाली लेकिन मंडी के मालिकों को यह मंजूर नहीं था कि एक किसान विक्रेताओं की मंडी का  प्रबंधन अपने हाथ में ले ले। तब उन्होंने सालों बाकायदा मंडी में दुकान लगाकर सब्जियां बेचीं। उस जमाने में ‘नम्र’ की दुकान स्थानीय किसान राजनीति की अड्डे की तरह मशहूर थी।

सब्जी की मार्फत किसानों की राजनीति करते हुए ‘नम्र’ को अपने मूल्य, सिद्धांत कभी आपसी बहसबाजी के साधन नहीं लगे। उनके लिए ऐसा कोई भी सिद्धांत नकारा था जो जीवन में उतारा न जा सके। आखिर एक उम्दा कमाई करते रोजगार को ‘भोपाल गैस कांड’ के बाद अचानक बदल देना किसके बस की बात थी? अपने फार्म में ऐसी कोई जहरीली दवा या खाद का उपयोग ‘नम्र’ को नामंजूर था। जिसे बनाने वाले कारखाने ने हजारों लोगों को रातों-रात मौत की नींद में सुला दिया हो। 84 के बाद ‘अंकुर फार्म’ ने तत्काल अपने को जैविक खेती की प्रयोगशाला में तब्दील कर लिया। जाहिर है, आर्थिक संकट के अलावा इस फैसले ने फार्म के पुराने श्रमिक मित्रों के लिए भी कठिनाई खड़ी कर दी थी, लेकिन ‘नम्र’ ने उन्हें भी अपनी बात समझाने में कसर नहीं छोड़ी।

अपनी समझ और सिद्धांतों पर कड़ाई से अमल करने वलो ‘नम्र’ ने कविताओं की रचना को भी उतनी ही सहजता के साथ साधा था। जीवन की आमफहम घटनाओं पर एक मामूली आदमी की प्रतिक्रियाओं को वे अपनी कविताओं के जरिए सरलता से उजागर कर लेते थे। अलबत्ता, उनकी कुछ कविताएं सर्वोदय जमात और ‘विदूषक कारखाने’ से मोहभंग के अनुभवों पर की गई प्रतिक्रियाएं थीं। काॅ. शंकरगुहा नियोगी, उनका ‘छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा’ और ऐसे तमाम मजदूर संगठनों के साथी ‘नम्र’ की कविताओं से प्रभावित थे।
कठिन फैसलों में अकेले खड़े हो जाने वाले ‘नम्र’ के साथ जीवन से जुड़ी कविताओं का जोड़ बिठाना यूं तो सरल नहीं दिखता, लेकिन जो उनके सरल स्वभाव को जातने हैं वे इसे समझ सकते हैं। आखिर 65 साल की उम्र में रेल की खिड़की पर बैठने की जिद ‘नम्र’ के अलावा और कौन कर सकता है? एक यारबाज, खांटी इंसान का यूं चले जाना वैसे तो दुखद होता ही है, लेकिन हम चाहें तो अब भी उससे कई बातें सीख, समझ सकते हैं। सर्वोदय प्रेस सर्विस से साभार 

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