तकरीबन बीस बरस पहले जब इस विवि की स्थापना की गई उस समय भी प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी और सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री। उस समय राधेश्याम शर्मा को कुलपति नियुक्त किया गया था। यह बात सभी जानते हैं कि राधेश्याम शर्मा का झुकाव भी संघीय विचारधारा के आसपास ही था। इसके बाद भी इसी विचारधारा के कुलपति कुर्सी पर काबिज रहे हैं। वर्तमान कुलपति से ठीक पहले अच्युतानंद मिश्र ने पूरे पांच सालों तक इस कुर्सी की जिम्मेदारी निभाई, लेकिन उन पर कभी इस तरह के आरोप नहीं लगे और यह नौबत नहीं आई कि श्किक्षक, कर्मचारी और छात्र विरोध पर उतर आएं। इससे साफ जाहिर है कि मसला केवल विचारधारा का नहीं है, एक अच्छे व्यक्ति के रूप में कुठियाला विद्यार्थियों और शिक्षकों में अपनी छवि नहीं बना पाए।
एक और भ्रष्टाचार, आर्थिक अनियमियतताएं, अपनों को लाभ पहुंचाना, कुलपति पद के अयोग्य होने जैसे मामलों की परत-दर-परत कलई खुल रही है, वहीं मीडिया गेस्ट फैकल्टीज पर पाबंदी, विद्यार्थियों को प्रायोगिक ज्ञान की बजाए किताबी ज्ञान पर जोर, पत्रकारिता संस्थान में मैनेजमेंट कोर्सेस की शुरूआत और बेहतर प्लेसमेंट नहीं हो पाने से विद्यार्थियों में लगातार असंतोष बढ़ता जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि विश्विद्यालय में प्लेसमेंट सेल का एक ढांचा और बजट तो है लेकिन यह सभी विद्यार्थिओं को नौकरी दिलाने में असफल ही साबित हुआ है.
इस असंतोष को दूर करने और इस पूरी बहस को दूसरी दिशा में ले जाया जा रहा है और इसे संघ के खिलाफ विरोध रेखांकित करने की कोशिश की जा रही है, यदि विवि में कुलपति पद पर संघ के व्यक्ति का होना एक विरोध होता तो यह विरोध अच्युतानंद मिश्र के कार्यकाल में क्यों नहीं हुआ। आखिर क्या कारण है कि बीके कुठियाला के बाद ही यह विरोध शुरू हुआ।
उधर जनसंपर्क आयुक्त राकेश श्रीवास्तव ने एक नोटिस भेजकर कुलपति से अखबार में छप रही खबरों के बारे में उनसे स्पष्टीकरण मांगा। इस खबर के आने के बाद छात्रों का गुस्सा और भी बढ़ गया उन्होंने इस पर जमकर प्रदर्शन किया।
गौरतलब यह है कि कुलपति की इस कुर्सी पर वर्तमान कुलपति के अलावा कई और लोगों की नजरें जमी हुई थीं, लेकिन मूलत: हरियाणा के बीके कुठियाला ने इसमें बाजी मार ली थी। इस नियुक्ति के पैरोकारों को पूरी स्थिति पर विचार करते हुए इस निर्णय के बारे में पुर्नविचार करने की जरूरत दिखाई पड़ती है। इस पूरे मामले में वर्तमान छात्र सहित पूर्व छात्रों के सक्रिय होने के बाद यह एक बड़ा मामला बन सकता है और उस स्थिति में कुलपति को हटाना पड़ा तो निश्चित ही यह उन पैरोकारों की प्रतिष्ठा का मामला भी बनेगा। कहा यह भी जा रहा है कि भले ही संघ का कोई दूसरा व्यक्ति इस कुर्सी पर बैठ जाए, लेकिन एक व्यक्ति के रूप में उनकी छवि साफ-सुथरी होनी चाहिए।
एक लोकतांत्रिक व्यवस्था मे पत्रकारिता षिक्षण संस्थानों में सभी विचारधाराओं और मूल्यों का सम्मान होना चाहिए। अफसोस विवि की साख वर्तमान कुलपति की नियुक्ति के बाद से ही उनकी गतिविधियों और तानाशाहीपूर्ण रवैए के कारण लगातार गिरती जा रही है।
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