राकेश कुमार
मालवीय
यह गांधी का 150वां
साल है। बा का भी। बा और बापू की 150
साल में विनोबा को भला क्यों याद करें ? इसलिए क्योंकि विनोबा के भी इधर 125 साल हो रहे हैं। आज उनकी जयंती है। समय की यह
गिनती छोड़ भी दें और दुनिया के किसी भी कोने को देख लें तो क्या यह दो महापुरूष
बदली हुई परिस्थितियों में अब भी कोई रास्ता दिखा रहे हैं ? भले ही अब वह बातें
ठीक उसी तरह से लागू नहीं होती होंगी जैसी कि आज से सौ बरस पहले कही और समझाई जा
रही थीं, लेकिन सिद्धांतों तो शाश्वत हैं।
विनोबा के बारे में बहुत सारे चिंतक
कहते हैं कि उनका व्यक्तित्व गांधी से श्रेष्ठ हो जाता है। गांधी के चले जाने के
बाद सही मायने में गांधी के अंत्योदय के विचार को सर्वोदय में परिभाषित करने वाले
विनोबा उनकी विरासत को सही मायने में संभालने वाले हैं भी। इसके संकेत उन्होंने
गांधी को दे दिए थे और गांधी भी सहज भाव से उन्हें इसकी स्वीकृति दे भी देते हैं।
विनोबा जेल में हैं। जेल में उनका
सामना उस वक्त के सभी विचारों से हो रहा है। एकांत को पसंद करने वाली विनोबा इस
मौके को कई तरह के विचारों को समझने का एक मौका बना लेते हैं। विनोबा लिखते हैं कि
‘वहां जो सज्जनता गांधी वालों में दिखाई देती है वही दूसरे लोगों में भी पाई जाती
है और जो दुर्जनता दूसरों में दिखाई देती है वह इनमें भी पाई जाती है। तब मैंने
पाया कि सज्जनता किसी एक पक्ष की चीज नहीं है बहुत सोचते पर वे इस निर्णय पर
पहुंचे कि एक खास पक्ष में या संस्था में रहकर मेरा काम नहीं चलेगा सबसे अलग रहकर
जनता की सेवा ही मुझे करनी चाहिए।‘
इसी विचार को वह गांधी के सामने भी इसी
सहजता से प्रस्तुत कर देते हैं तिस पर गांधी कहते हैं कि ‘तेरा अभिप्राय मैं समझ
गया, तू सेवा करेगा और अधिकार नहीं रखेगा।
यह ठीक ही है।‘ और इसके बाद विनोबा तमाम उन संस्थाओं से खुद को हटा लेते हैं जो
उन्हें बहुत प्रिय थीं। यह विनोबा होने की शुरूआत है। जिस तरह से आजादी पाने के
बाद गांधी का रास्ता भी सत्ता की ओर नहीं जाता ठीक उसी तरह विनोबा भी सत्ता को
क्या संस्थाओं के विचार से भी खुद को अलग करा लेते हैं।
आज जब इन मिसालों को हम देखते हैं तो
ऐसे उदाहरण हमें दिखाई नहीं देते हैं। हमारे समाज का पूरा राजनैतिक—सामाजिक और
आर्थिक विमर्श भी इससे ठीक उल्टी तरफ जाते हैं, सारे जतन—यतन त्यागने के नहीं, पाने के हैं। विनोबा संघ जैसे शब्द
से भी संतुष्ट नहीं हैं, वह सर्वोदय समाज की स्थापना करते हैं, आज हजारों
संस्थाएं हैं, संघ हैं, लेकिन समाज गायब है, आखिरी आदमी का विमर्श गायब है।
विनोबा का संस्था का त्याग इसलिए है
क्योंकि वह अहिंसा के सिद्धांत में इतना अधिक भरोसा करते हैं कि संस्था में होने
से हिंसा का तत्व कहीं न कहीं आ ही जाता है और भारत जिसने दुनिया में स्वतंत्रता
संघर्ष की सबसे नायाब और रचनात्मक लड़ाई लड़ी, वह उसके महत्व को उसकी प्रतिष्ठा को और
आगे ले जाना चाहते हैं,
उनकी दृष्टि वैश्विक है।
विनोबा कहते हैं कि आज विज्ञान की
प्रगति को देखते हुए शस्त्रों के उपयोग से जो अपार हानि होगी उसकी तुलना में उनसे
होने वाला लाभ इतना मामूली होगा कि उसे हिसाब में गिना भी न जाएगा। सोचिए, गांधी और विनोबा
के विचारों को भुलाकर आज दुनिया किस मुहाने पर आ खड़ी हुई है। आज सब तरफ हथियारों
का बोलबाला है, हथियारों
का एक बड़ा बाजार है। शस्त्रों से हिंसा ही होती है। यह बाजार रोटी की कीमत पर है।
देश परमाणु हथियारों को लिए किसी भी क्षण मनुष्यता पर हमला कर सकते हैं। सर्वोदय
होना अब और दूर होता दिखाई देता है, क्योंकि मनुष्यता के इन महान मानकों पर नहीं, सामान्य रोटी—कपड़ा और मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य के रोज—रोज के संघर्ष
अब और बड़े होते जा रहे हैं, इसलिए क्या दो पल ठहरकर एक बार पीछे को नहीं देखा जाना चाहिए कि
हमारे अपने देश में बुजुर्ग क्या कुछ कह गए हैं।
जिस लोकतंत्र को हम दुनिया का सबसे
बड़ा मानते हुए गौरव करते हैं क्या वहां अब असहमतियों के लिए स्थान शेष है। क्या
वहां हम किसी की वैसी आलोचना कर सकते हैं जैसी विनोबा गांधी को कह देते हैं।
विनोबा कई मौकों पर सवाल करते हैं कि क्या गांधीजी के कारण सत्य की प्रतिष्ठा बढ़ी
है या सत्य के कारण गांधी जी की। या फिर यह कि गांधी जी ने शरीर परिश्रम अपनाकर
उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाई। एक मौके पर विनोबा पूछ ही लेते हैं कि गांधी जी कौन थे जो
श्रम को प्रतिष्ठा देते,
शरीर परिश्रम अपनाकर गांधीजी ने खुद प्रतिष्ठा प्राप्त की। सिद्धांत
व्यक्ति से बढ़कर होते हैं, इसलिए उन पर अमल करके व्यक्ति को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। अब के
मौकों पर व्यक्ति ही महत्वपूर्ण हो जाते हैं, सिद्धांत नहीं। सिद्धांत अपना लक्ष्य
पाने के लिए बदल लिए जाते हैं।
आज दुनिया की राह जिस ओर जा रही है
और जिसके नतीजों का हासिल केवल तमाम सवाल हैं उस परिस्थिति में विनोबा की
यह बात सोची जानी चाहिए कि " भगवन
! न मुझे भुक्ति चाहिए न मुक्ति। मुझे भक्ति दे। मुझे न सिद्धि चाहिए न समाधि।
मुझे सेवा दे।"
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