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जहर का काम कर रही सांप्रदायिकता

स्कंद विवेक
 सांप्रदायिकता को प्राय: दंगा-फसाद, राजनीति और कानून व्यवस्था से ही जोड़ कर देखा जाता है। जाहिर है सांप्रदायिकता इन्हीं बातों से जुड़ी है, लेकिन यह सब छोटी अवधि के लक्षण और प्रभाव हैं। लंबी अवधि में साप्रदायिकता का एक और लक्षण है। वह है आर्थिक पाबंदी। इसके तहत संसाधनों पर हक रखने वाला समुदाय साप्रदायिक भावना के चलते दूसरे समुदाय को आर्थिक गतिविधियों से दूर रखता है। देश में सबसे बड़े बीड़ी उत्पादक जिले सागर (मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से करीब 17. किमी दूर) के एक तहसील राहतगढ़ को सामने रख कर बात करें तो इसे समझना शायद आसान हो जाए।
 इस कस्बे में करीब 25 हजार लोग रहते हैं, जिसमें से 2. हजार से अधिक लोग बीड़ी बनाने का काम करते हैं। यहां कि परिस्थितियां दो भागों में बांटी जा सकती हैं। सन 1992 से पहले और इसके बाद। 1992 से पहले पूरे इलाके में सौहार्द्य का माहौल था। हिन्दुओ और मुसलमानों का एक दूसरे के घर आना-जाना था। संसाधन भले ही हिन्दुओं के् हाथ में हो, लेकिन इसके बावजूद किसी को रोजगार की कोई बड़ी समस्या नहीं थी। बीड़ी बनाने का काम बहुत ही छोटे पैमाने पर था। सिर्फ महिलाएं घरों में बैठकर इसे बनाया करती थीं। पुरुष प्राय: मजदूरी जैसे कामों को किया करते थे।
6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के् बाद राहतगढ़ में भयंकर दंगे छिड़ गए थे। दंगे की इस आग में मनुष्य के साथ ही इलाके का सौहार्द्य भी जल कर खत्म हो गया। अब राहतगढ़ में दो स्पष्ट इलाके बन चुके् हैं। हिन्दुओं के् और मुस्लिमों के। अब हिन्दु मुस्लिमों से और मुस्लिम हिन्दुओं से अपनी दूरी बढ़ा रहा है। चूंकि आज भी सारे संसाधन हिन्दुओं के ही हाथ में हैं, इसलिए मुस्लिमों के् सामने रोजगार की बड़ी समस्या है। यही कारण है कि उनका परिवार अब पूरी तरह से बीड़ी मजदूरी पर आश्रित है। बीड़ी मजदूरी ही लगातार उन्हें और दयनीय स्थिति में ले जा रही है। आज हिन्दु मुस्लिमों से कतराते हैं, मुस्लिम हिन्दुओं से कतराते हैं। आपस में विश्वास नहीं है। परस्पर संवादहीनता की स्थिति कायम है। यह अविश्वास पूरे तबके लिए प्राणघातक साबित हो रहा है। खासतौर से बीड़ी मजदूरों के लिए जिनके पास बीड़ी बनाने के अलावा और कोई काम ही नहीं बचा है। लगातार बीड़ी बनाना उन्हें बीमारियों के् नजदीक ले जा रहा है। सांप्रदायिकता के् इस पहलू को प्राय: नजरअंदाज किया जाता है। इसका खामियाजा पीड़ित परिवारों के् मासूम बच्चे भुगतते हैं, जिन्हें वो सब नहीं मिल पाता जिसके वे हकदार होते हैं।


(लेखक नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया के् फेलो हैं)

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1 टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
bahut badhiya