राकेश कुमार
मालवीय
क्या आपकी आंखों के सामने अपने बच्चे
का चेहरा नहीं घूम गया, क्या
आपको आपके बच्चे की चिंता नहीं हो गई, क्या आपने एक पल में उसके स्कूल जाने से लेकर आने तक के एक—एक पल को याद नहीं कर लिया। जरूर, ऐसा किया ही होगा। गुड़गांव के एक
नामचीन स्कूल में बच्चे की हत्या की खबर हम सभी को अंदर तक दहला कर रख देती है।
आखिर, हम एक विश्वास
के आधार पर ही तो अपनी संतान को दूसरे हाथों में सौंप देते हैं, यह हाथ जितने चाक—चौबंद हैं, उतना ही अच्छा, लेकिन बीच—बीच में आती ऐसी खबरें हमें सचेत रहने
को कहती हैं।
घर के बाद स्कूल ही बच्चों की जिंदगी
के बाद सबसे जरूरी जगह है। इन दोनों जगहों को मिलाने का माध्यम यानि वैन या बस भी
एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इन तीनों जगहों से जिम्मेदारी जुड़ी हैं। ऐसे वक्त में
जबकि बच्चे को जल्दी से जल्दी स्कूल में दाखिल कर दिए जाने, उसे कक्षा में बैठा दिए जाने, उसके कांधों पर बस्ता टांग दिए जाने की
जल्दबाजी होती हो, वहां
सुरक्षा का सवाल तो जुड़ ही जाता है। ऐसे बहुत से लोग हैं, जो इस जल्दबाजी से बचते भी हैं, लेकिन ऐसे लोगों को उनके आसपास का समाज
भी सिद्धांतत: सहमत होने के बाद सवाल करता है कि अभी तक बच्चे का एडमिशन नहीं
करवाया, वह पीछे रह
जाएगा। इसके बाद आसपास के स्कूल बच्चे पर नजर लगाए तब तक सर्वे करते हैं, जब तक कि उसका एडमिशन पूरा नहीं हो
जाता। एक नन्हा सा बच्चा जो बमुश्किल पापा का सेल नंबर याद कर पाता है, रोज एक खतरे में स्कूल जाता और लौटता
है। हमारे समाज ने विकास के साथ नन्हों के साथ या जो खतरा भी मोल दिया है, वह एक साहसिक काम है जिसे चाहते न
चाहते करना ही पड़ता है। सवाल यही है कि जब इतना बड़ा खतरा मोल लिया जाएगा तो इसके
ऐसे परिणाम—दुष्परिणाम
सामने आएंगे ही।
स्कूल में जो होता है उसके बारे में तो
पूरी तरह से पता भी नहीं चलता है। बाजार और लाभ का लालच हर जोखिम लेने को तैयार
बैठा है। आप देखिए कि एक शिक्षक पर 35 बच्चों का अनुपात आखिर कितनी कक्षाओं में
पालन किया जाता है। केन्द्रीय स्कूलों के अलावा यह अनुपात कहीं भी आदर्श स्थिति
में लागू नहीं किया जाता। ऐसे में शिक्षक की अपनी क्षमताएं हैं।
बड़े भव्य स्कूलों में यह घटनाएं होती
हैं, तो सामने भी आ
जाती हैं। क्योंकि वहां बच्चों के अभिभावक अपना विरोध दर्ज करा पाने में ज्यादा
सक्षम हैं। वह मीडिया का ध्यान आकर्षित कर लेते हैं, वह फेसबुक और ट्विटर पर भी माहौल बना सकते हैं, पर हमारे देश में सभी स्कूल शहरों में
तो नहीं हैं। गांव—खेड़ों
के बच्चे जिस जोखिम में जीते हैं,
वह सोचा भी नहीं जा सकता। देश के सरकारी स्कूलों में आधारभूत
सुविधाओं का अभाव अब तक बना हुआ है,
सुरक्षा का मामला तो काफी दूर है। जहां सबसे ज्यादा सुरक्षा होना
चाहिए वहां सबसे ज्यादा लापरवाही का आलम है। डाइस की 2014—15 की रिपोर्ट बताती है कि देश के 44
प्रतिशत सरकारी प्रायमरी स्कूलों में बाउंडी वॉल ही नहीं है। निजी स्कूलों की बात
करें तो वहां भी 28 प्रतिशत प्रायमरी स्कूलों में बाउंडी वॉल नहीं है। अपर
प्रायमरी का भी हाल बहुत बेहतर नहीं हैं। 32 प्रतिशत सरकारी अपर प्रायमरी स्कूल और
23 प्रतिशत गैर सरकारी प्रायमरी स्कूल बिना बाउंडी वॉल के हैं। यह प्राथमिकता है
हमारे तंत्र की, लेकिन
जब अपराध और अपराधी मानसिकता ही हावी होने लगे तो एक दीवार कर भी क्या लेगी। जिस
स्कूल में एक बच्चे का कत्ल हुआ,
उसकी दीवारें तो बहुत उंची थीं।
छत्तीसगढ़ में दो साल पहले एक सरकारी
छात्रावास में एक शिक्षक ने बच्चियों के साथ जो किया वह शब्दों में बयां नहीं किया
जा सकता। वहां एक दर्जन से अधिक छात्राओं का वार्डन ने यौन शोषण करके गर्भवती कर
दिया था। गंभीर बात यह है कि इस प्रक्रिया को उसने पाठयक्रम का एक हिस्सा बताया।
ऐसी ही एक घटना और आई थी जहां स्कूलों में भूत होने की अफवाह फैला दी गई। इस भूत
के भय से लड़कियां बेहोश होकर गिर जाती थीं।
कहां—कहां किस—किस
तरह की विचित्र बातें आती हैं, और
कहां—कहां कौन—कौन इन सभी चीजों को रोक पाएगा, या कौन—कौन सी सरकार किस—किस
अपराधी को इसके लिए कुसूरवार ठहराकर सजा दिलवा पाएगी, यह सोच और कर पाना भारत जैसे बड़े और
विचित्र भौगोलिक परिस्थितियों वाले देश के लिए संभव होगा, लेकिन इसमें सबसे गंभीर बात यह है, कि जो जहां है वह अपना काम पूरी
जिम्मेदारी से नहीं कर रहा है। उसके काम में पूरी ईमानदारी, नैतिकता और वह जीवन मूल्य नहीं हैं
जिससे किसी भी समाज की बुनियाद मजबूत होती है। जिस सात साल के मासूम बच्चे के गाल
पर हमें चांटा मारने का दुख हो,
सोचिए उसे चाकू से कैसे गोदा जा सकता है। क्या कोई मनुष्य ऐसे क्या
कर सकता है, मनुष्य
क्या, हम तो पशुओं को
भी ऐसा करते नहीं देखते। कुदरती या लापरवाही वाली घटनाओं को छोड़ एक पल को छोड़ भी
दिया जाए, लेकिन
जानबूझपर बच्चों पर किए गए ऐसे अपराध हमारे किस विकास को बताते हैं।
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